ॐ साँई राम
रही गर कुछ त्रुटी मेरी भक्ति में
इक बार तो मुझसे कहा होता
सुधार लेता मैं त्रुटी को अपनी
चिराग मेरे घर का तो ना बुझा होता
अपने कर्मो की चादर औढ़े
दर बदर मैं भटकता रहा हूँ
एक लाल की जिंदगी ना बख्शी
अब घुट घुट के जी रहा हूँ
कलेजा मेरा काट कर
मिला क्या तुझे बाबा
मैं ना फैला सका हाथ कहीं
शिर्डी को जाना काशी और काबा
निकला तू भी निर्दयी जमाने की तरह
मेरा साथ बीच डगर छोड़ दिया
मैं बेबस लाचार बहुत हूँ तू ये जाने
तेरी खातिर जग से मुख मोड़ लिया