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रामायण के प्रमुख पात्र - माता कौसल्या

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रामायण के प्रमुख पात्र - माता कौसल्या


महारानी कौसल्या का चरित्र अत्यन्त उदार है| ये महाराज दशरथ की सबसे बड़ी रानी थीं| पूर्व जन्म में महराज मनु के साथ इन्होंने उनकी पत्नी रूप में कठोर तपस्या कर के श्रीराम को पुत्र रूप में प्राप्त करने का वरदान प्राप्त किया था| इस जन्म में इनको कौसल्या रूप में भगवान् श्रीराम की जननी होने का सौभाग्य मिला था|


श्री कौसल्या जी का मुख्य चरित्र रामायण के अयोध्या काण्ड से प्रारम्भ होता है| भगवान् श्रीराम का राज्याभिषेक होने वाला है| नगर भर में उत्सव की तैयारियाँ हो रही हैं| माता कौसल्या के आनन्द का पार नहीं है | वे श्रीराम की मंगल-कामना से अनेक प्रकार के यज्ञ, दान, देवपूजन और उपवास में संलग्न हैं| श्रीराम को सिहांसन पर आसीन देखने की लालसा से इनका रोम-रोम पुलकित है| परन्तु श्रीराम तो कुछ दूसरी ही लीला करना चाहते हैं | सत्य प्रेमी महाराज दशरथ कैकेयी के साथ वचनबद्ध होकर श्रीराम को वनवास देने के लिये बाध्य हो जाते हैं|


प्रात:काल भगवान् श्रीराम माता कैकेयी और पिता महाराज दशरथ से मिलकर वन जाने का निश्चय कर लेते हैं और माता कौसल्या का आदेश प्राप्त करने के लिये उनके महल में पधारते हैं| श्रीराम को देखकर माता कौसल्या उनके पास आती हैं| इनके हृदय में वात्सल्य-रस की बाढ़ आ जाती है और मुँह से आशीर्वाद की वर्षा होने लगती है| ये श्रीराम का हाथ पकड़कर उनको उन्हें शिशु की भाँति अपनी गोदमें बैठा लेती हैं और कहने लगती हैं - 'श्रीराम! राज्याभिषेक में अभी विलम्ब होगा| इतनी देर तक कैसे भूखे रहोगे, दो-चार मधुर फल ही खा लो|'भगवान् श्रीराम ने कहा - 'माता! पिताजी ने मुझको चौदह वर्षों के लिये वन का राज्य दिया है, जहाँ मेरा सब प्रकार से कल्याण ही होगा| तुम भी प्रसन्नचित्त होकर मुझको वन जाने की आज्ञा दे दो| चौदह साल तक वन में निवास कर मैं पिताजी के वचनों का पालन करूँगा, पुन: तुम्हारे श्रीचरणों का दर्शन करूँगा|'


श्रीराम के ये वचन माता कौसल्या के हृदय में शूल की भाँति बिंध गये| उन्हें अपार क्लेश हुआ| वे मूर्च्छित होकर धरती पर गिर गयीं, उनके विषाद की कोई सीमा न रही| फिर वे सँभलकर उठीं और बोलीं - 'श्रीराम! यदि तुम्हारे पिता का ही आदेश हो तो तुम माता को बड़ी जानकार वन में न जाओ! किन्तु यदि इसमें छोटी माता कैकयी की भी इच्छा हो तो मैं तुम्हारे धर्म-पालन में बाधा नहीं बनूँगी| जाओ! कानन का राज्य तुम्हारे लिये सैकड़ों अयोध्या के राज्य से भी सुखप्रद हो|'पुत्र वियोग में माता कौसल्य का हृदय दग्ध हो रहा है, फिर भी कर्त्तव्य को सर्वोपरि मानकर तथा अपने हृदय पर पत्थर रखकर वे पुत्र को वन जाने की आज्ञा दे देती हैं| सीता-लक्ष्मण के साथ श्रीराम वन चले गये| महाराज दशरथ कौसल्या के भवन में चले आये| कौसल्या जी ने महराज को धैर्य बँधाया, किन्तु उनका वियोग-दुःख कम नहीं हुआ| उन्होंने राम-राम कहते हुए अपने नश्वर शरीर को त्याग दिया| कौसल्या जी ने पतिमरण, पुत्रवियोग-जैसे असह्य दुःख केवल श्रीराम-दर्शन की लालसा में सहे| चौदह साल के कठिन वियोग के बाद श्रीराम आये| कौसल्याजी को अपने धर्मपालन का फल मिला| अन्त में ये श्रीराम के साथ ही साकेत गयीं|


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