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श्री गुरु तेग बहादर जी-साखियाँ-एक पीर का भ्रम निवृत करना

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ॐ साँई राम जी



 श्री गुरु तेग बहादर जी-साखियाँ-एक पीर का भ्रम निवृत करना

एक दिन एक पीर जी कि रोपड़ में रहता था अपने मुरीदो से कार भेंट लेता हुआ आनंदपुर आया| गुरु जी के दरबार की महिमा संगत का आना-जाना तथा लंगर चलता देख वह बड़ा प्रभावित हुआ| उसने एक सिख से पूछा यह किस गद्दी का गुरु है? सिख ने कहा यह गुरु नानक साहिब जी की गद्दी पर बैठे नौवें गुरु श्री गुरु तेग बहादर जी हैं| पीर ने कहा गुरु नानक जी तो बड़े बली महापुरुष हुए हैं| अगर यह इनकी गद्दी पर विराजमान हैं तो इनमे भी शक्ति होनी चाहिए| सिख ने कहा गुरु जी वैराग्य के पुंज और शक्ति के मालिक हैं|

पीर ने अगला प्रशन किया कि गुरु जी ग्रहस्थी हैं या फकीर? सिख ने उत्तर दिया की गुरु जी ग्रहस्थी हैं| गुरु नानक देव जी भी ग्रहस्थी थे| पीर ने फिर कहा वैराग्य गुरु पीर होकर फिर यह ग्रहस्थ का आडम्बर क्यों?

इसके पश्चात पीर ने गुरु जी के दर्शन करके जब यही सवाल पूछा तो गुरु जी ने कहा साईं लोगों! ग्रहस्थ सब धर्मों से ऊँचा है| यह सारे पीरो-फकीरों, ऋषि-मुनियों को पैदा करता है फिर सबकी गुजरान का आधार रहता है| जो पुरुष ग्रहस्थ धर्म में पूरे उतरते हैं उन्हें अन्तिम समय मुक्ति प्राप्त होती है|

ग्रहस्थ का धर्म है अतिथि की सवा करनी तथा अपनी नेक कमाई से पुण्य दान करना| ऐसा ग्रहस्थी परम सुख प्राप्त करता है|

गुरु जी से यह बात सुनकर पीर ने गुरु जी को माथा टेका और कहा कि अब मुझे इस बात का ज्ञान हो गया है की ग्रहस्थ धर्म पुरुष का मुख्य उदेश्य है इसको बुरा समझना एक बड़ी भूल है|

श्री गुरु तेग बहादर जी की शहीदी

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ॐ साँई राम जी



श्री गुरु तेग बहादर जी की शहीदी


औरंगजेब एक कट्टर मुसलमान था| जो कि अपनी राजनीतिक व धार्मिक उन्नति चाहता था| इसके किए उसने हिंदुओं पर अधिक से अधिक अत्याचार किए| कई प्रकार के लालच व भय देकर हिंदुओं को जबरदस्ती मुसलमान बनाया| उसने अपने जरनैलो को भी आज्ञा दे दी हिंदुओं को किसी तरह भी मुसलमान बनाओ| जो इस बात के लिए इंकार करे उनका क़त्ल कर दिया जाए| 

औरंगजेब के हुकम के अनुसार कश्मीर के जरनैल अफगान खां ने कश्मीर के पंडितो और हिंदुओं को कहा कि आप मुसलमान हो जाओ| अगर आप ऐसा नहीं करोगे तो क़त्ल कर दिया जायेगा| कश्मीरी पंडित भयभीत हो गए| उन्होंने अपना अन्न जल त्याग दिया और प्रार्थना करने लगे| कुछ दिन के बाद उन्हें आकाशवाणी के द्वारा अनुभव हुआ कि इस समय धर्म की रक्षा करने वाले श्री गुरु तेग बहादर जी (Shri Guru Tek Bahadar Ji) हैं| आप पंजाब जाकर अपनी व्यथा बताओ| वह आपकी सहायता करने में समर्थ हैं| 

आकाशवाणी के अनुसार पंडित पूछते-पूछते श्री गुरु तेग बहादर जी के पास आनंदपुर आ गए और प्रार्थना की कि महाराज! हमारा धर्म खतरे में है हमे बचाएं| 

उनकी पूरी बात सुनकर गुरु जी सोच ही रहे थे कि श्री गोबिंद सिंह जी (Shri Guru Gobind Singh Ji) वहाँ आ गए| गुरु जी कहने लगे बेटा! इन पंडितो के धर्म की रक्षा के लिए कोई ऐसा महापुरुष चाहिए, जो इस समय अपना बलिदान दे सके| 

पिता गुरु का वह वचन सुनकर श्री गोबिंद जी ने कहा कि पिता जी! इस समय आप से बड़ा और कौन महापुरुष है, जो इनके धर्म कि रक्षा कर सकता है? आप ही इस योग्य हो| 

अपने नौ साल के पुत्र की यह बात सुनकर गुरु जी बहुत प्रसन्न हुए| आपने पंडितो को कहा कि जाओ अफगान खां से कह दो कि अगर हमारे आनंदपुर वासी गुरु जी मुसलमान हो जाएगें तो हम भी मुसलमान बन जाएगें|

यह बात सुनकर औरंगजेब ने गुरु जी को दिल्ली बुला लिया| गुरु जी ने सन्देश वाहक को कहा कि तुम चले जाओ हम अपने आप बादशाह के पास पहुँच जाएगें| गुरु जी ने घर बाहर का प्रबंध मामा कृपाल चंद को सौंप कर तथा हर बात अपने साहिबजादे को समझा दी और आप पांच सिक्खों को साथ लेकर दिल्ली की और चल दिए| 

आगरे पहुँच कर गुरु जी ने एक गडड़ीए के द्वारा कौतक रच के अपने आप को बंदी बना लिया| औरंगजेब ने आपको बंदीखाने में बंद करके काजी को गुरु जी के पास भेजा और प्रार्थना की कि आप मुसलमान हो जाओ| गुरु जी ने वचन किया तुम सारे देश में एक धर्म करना चाहते हो परन्तु यदि परमात्मा चाहे तो दो धर्मो के तीन हो जायेगें| इस बात को सिद्ध करने के लिए गुरु जी ने एक मण मिर्च मंगाई और उन्हें जलाया| आगे से गुरु जी कहने लगे यदि राख में से एक मिर्च साबुत निकली तो परमात्मा को एक धर्म कबूल होगा यदि दो निकली तो दो धर्म और अगर तीन मिर्चे साबुत निकली तो समझ लेना कि परमात्मा को तीसरा धर्म कबूल होगा| 

इस तरह जब मिर्चो का ढेर जलाकर औरंगजेब ने राख को बिखेर कर देखा तो उसमे से तीन मिर्चे साबुत निकली| यह निर्णय देखकर बादशाह हैरान हो गया| 

इसके पश्चात जब गुरु जी किसी तरह भी मुसलमान होना ना माने तो उन्हें करामात दिखाने के लिए कहा गया| गुरु जी ने करामात को कहर का नाम दिया और करामात दिखने से मना कर दिया| औरंगजेब ने कहा ना आप इस्लाम धर्म कबूल करना चाहतें हैं और ना ही कोई करामात दिखाना चाहतें हैं तो फिर कत्ल के लिए तैयार हो जाइए| गुरु जी ने कहा हमें आप की दोनों बाते स्वीकार नहीं परन्तु तुम्हारी तीसरी बात कत्ल होना हमे स्वीकार है| 

इस समय गुरु जी के साथ पांच सेवादार सिख भी कैद थे-

· भाई मति दास

· भाई दिआला जी

· भाई गुरदित्ता जी

· भाई ऊदो जी

· भाई चीमा जी


जब गुरु साहिब जी किसी भी तरह ना माने तो औरंगजेब ने गुरु जी को डराने के लिए भाई मति दास को आरे से सिरवा दिया और भाई दिआले जी को पानी की उबलती हुई देग में डालकर आलू की तरह उबाल दिया| दोनों सिखों ने अपने आप को हँस-हँस कर पेश किया| जपुजी साहिब का पाठ तथा वाहि गुरु का उच्चारण करते हुए सच खंड जा विराजे| बाकी तीन सिख गुरु जी के पास रह गए| 

गुरु जी ने अपना अन्तिम समय नजदीक जानकर बाकी तीन सिखों को वचन किया कि तुम अपने घरों को चले जाओ अब यहाँ रहने का कोई लाभ नहीं है| उन्होंने प्रार्थना की कि महाराज! हमारे हाथ पैरों को बेडियाँ लगी हुई हैं, दरवाजों पर ताले लगे हुए हैं हम यहाँ से किस तरह से निकले| गुरु जी ने वचन किया कि आप इस शब्द का "कटी बेडी पगहु ते गुरकीनी बन्द खलास"का पाठ करो| आपकी बेडियाँ टूट जाएगीं और दरवाजों के ताले खुल जाएगे और तुम्हें कोई नहीं देखेगा|

गुरु जी का वचन मानकर दो सिख आज़ाद हो कर चले गए| बाद में भाई गुरु दित्ता ही गुरु जी से पास रह गए| गुरु जी ने अपनी मस्ती में यह शलोक पड़ा|

शलोक महला ९

संग सखा सब तजि गए कोऊ न निबहिओ साथ||
कहु नानक इिह बिपत मै टेक एक रघुनाथ||५५||


इसके पश्चात गुरु जी ने अपनी माता जी व परिवार को धैर्य देने वह प्रभु की आज्ञा को मानने के लिए शलोक लिखकर भेजे - 

गुन गोबिंद गाइिओ नही जनमु अकारथ कीन||
कहु नानक हरि भजु मना जिहि विधि जल कौ मीन||१||


यहाँ से आरम्भ करके अंत में लिखा -

राम नामु उरि मै गहियो जाकै सम नही कोइि||
जिह सिमरत संकट मिटै दरसु तुहारो होइि||५७||

(श्री गुरु ग्रंथ साहिब पन्ना १४२६-१४२९)


इन शालोको के साथ ही गुरु जी ने पांच पैसे और नारियल एक सिख के हाथ आनंदपुर भेज के गुरु गद्दी अपने सुपुत्र श्री गोबिंद राय को दे दी|

अंत में जब 13 माघ (सुदी 5) संवत 1732 विक्रमी का अभाग्यशाली दिन वीरवर आ गया| आप जी को चाँदनी चौक कोतवाली के पास सूर्य अस्त के समय बादशाह के हुक्म से जल्लाद ने तलवार के एक वार से शहीद कर दिया| इस निर्दय सके का वर्णन गुरु गोबिंद सिंह जी ने इस तरह किया-

तेग बहादर के चलत भयो जगत को शोक||
है है है सब जग भयो जै जै जै सुर लोक||१६||

(दशम ग्रंथ: बिचित्र नाटक, ५ अध्याय)


इस अत्याचार के समय इतिहासकार लिखते हैं कि बहुत भयानक काली आंधी चली| जिसके अंधकार मैं आपजी का पवित्र शीश भाई जैता (जीऊन सिंह) अपने कपड़ो में लपेटकर जल्दी-जल्दी चलकर आनंदपुर ले आया| यहाँ आप जी के शीश को बड़े सत्कार, वैराग्य तथा शोक सहित अग्नि भेंट किया गया| इस स्थान गुरुद्वारा "शीश गंज"सुशोभित है|

इसके पश्चात इस आंधी के गुबार में ही आप जी का पवित्र धड़ एक लुबाणा सिख अपनी बैल गाड़ी के माल में ले गया और अपनी कुटीर में रख दिया| फिर उसने आग लगाकर धड़ को वहीं अग्नि भेंट कर दिया| इस स्थान पर "गुरुद्वारा रकाबगंज"सुशोभित है|

श्री गुरु गोबिंद सिंह जी : जीवन-परिचय

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 ॐ साँई राम जी




श्री गुरु गोबिंद सिंह जी : जीवन-परिचय

Parkash Ustav (Birth date): December 22, 1666 at Patna Sahib, Bihar. 
प्रकाश उत्सव (जन्म की तारीख): पटना साहिब, बिहार में 22 दिसंबर 1666.

Father: Guru Teg Bahadar ji 
पिता: श्री गुरु तेग बहादर जी

Mother: Mata Gujri ji 
माँ: माता गुजरी जी

Mahal (spouse): Mata Sundri ji, Mata Jeto J, Mata Sahib Kaur Ji 
महल (पति या पत्नी): माता सुन्दरी जी, माता जेतो जम्मू, माता साहिब कौर जी

Sahibzaday (offspring): Baba Ajit Singh, Baba Jujhar Singh, Baba Zorawar Singh and Baba Fateh Singh 
साहिबज़ादे (वंश): बाबा अजीत सिंह, बाबा जूझर सिंह, बाबा जोरावर सिंह और बाबा फतेह सिंह

Joti Jyot (ascension to heaven): October 7, 1708 at Nanded. 
ज्योति ज्योत (स्वर्ग करने के उदगम): नांदेड़ में 7 अक्टूबर 1708.



वह प्रगटिओ मरद अगंमड़ा वरियाम अकेला || 
वाहु वाहु गोबिंद सिंह आपे गुर चेला || १७ || 

(भाई गुरदास दूजा)

श्री गुरु गोबिंद सिंह जी का जन्म पोरव सुदी सप्तमी संवत 1723 विक्रमी को श्री गुरु तेग बहादर जी के घर माता गुजरी जी की पवित्र कोख से पटना शहर में हुआ| 
मुर पित पूरब कीयसि पयाना || भांति भांति के तीरथि नाना || 

जब ही जात त्रिबेणी भए || पुन दान निन करत बितए || 
तही प्रकास हमारा भयो || पटना सहर विखे भव लयो || 

(दशम-ग्रंथ: बिचित्र नाटक ७ वां अध्याय)


माता नानकी जी ने अपने पौत्र के जन्म की खबर देने के लिए एक विशेष आदमी को चिट्ठी देकर अपने सुपुत्र श्री गुरु तेग बहादर जी के पास धुबरी शहर भेजा| गुरु जी ने चिट्ठी पड़कर जब राजा राम सिंह को खुशी भरी खबर सुनाई तब राजा ने अपने फौजी बाजे बजवाए| तोपों की सलामी दी तथा गरीबों को दान दिया| चिट्ठी लेकर आने वाले सिख को गुरु जी ने बहुत धन दिया उसका लोक परलोक संवार दिया|

इसके पश्चात गुरु जी ने माता जी को चिट्ठी लिखी कि माता जी! इस समय हम कामरूप के पास धुबरी शहर ठहरे हुए हैं| राजा राम सिंह का काम संवार कर जल्दी वापस आप के पास पटने आ जाएगे| गुरु नानक साहिब आपके अंग-संग हैं| आपने चिंता नहीं करनी| साहिबजादे का नाम "गोबिंद राय"रखना| यह आशीष और धैर्य पूर्ण चिट्ठी पड़कर माताजी और परिवार के अन्य सदस्य बहुत खुश हुए|

जो कोई भी भिखारी और प्रेमी माता जी को बधाई देने घर आता माता जी उसको धन, वस्त्र और मिठाई आदि से प्रसन्न करके घर से भेजते| माता जी ने साहिबजादे के सोने व खेलने के लिए एक सुन्दर पंघूड़ा बनवाया जिसमे साहिबजादे को लेटाकर माता जी लोरियाँ देती व पंघूड़ा हिलाकर मन ही मन खुश होती| आपके हाथों के कड़े, पाँव के कड़े और कमर की तड़ागी के घुंघरू खनखनाते रहते| माता नानकी जी बालक गोबिंद राय को स्नान कराकर सुंदर गहने व कपड़े पहनाते|

पटने से आनंदपुर साहिब बुलाकर श्री गुरु तेग बहादर जी ने अपने सुपुत्र श्री गोबिंद राय जी को घुड़ सवारी, तीर कमान, बन्दूक चलानी आदि कई प्रकार की शिक्षा सिखलाई का प्रबंध किया| बच्चो के साथ बाहर खेलते समय मामा कृपाल जी को आपकी निगरानी के लिए नियत कर दिया| इस प्रकार श्री गुरु तेग बहादर जी के किए हुए प्रबंध के अनुसार आप शिक्षा लेते रहे|



दशमेश जी इस प्रथाए अपनी आत्म कथा बचित्र नाटक में लिखते हैं -


मद्र देस हम को ले आए || भांति भांति दाईयन दुलराऐ || 
कीनी अनिक भांति तन रछा || दीनी भांति भांति की सिछा || 

(दशम ग्रंथ बिचित्र नाटक, ७ वा अध्याय)

प्राग राज के निवास समय श्री गोबिंद राय जी के जन्म से पहले एक दिन माता नानकी जी ने स्वाभाविक श्री गुरु तेग बहादर जी को कहा कि बेटा! आप जी के पिता ने एक बार मुझे वचन दिया था कि तेरे घर तलवार का धनी बड़ा प्रतापी शूरवीर पोत्र इश्वर का अवतार होगा| मैं उनके वचनों को याद करके प्रतीक्षा कर रही हूँ कि आपके पुत्र का मुँह मैं कब देखूँगी| बेटा जी! मेरी यह मुराद पूरी करो, जिससे मुझे सुख कि प्राप्ति हो|

अपनी माता जी के यह मीठे वचन सुनकर गुरु जी ने वचन किया कि माता जी! आप जी का मनोरथ पूरा करना अकाल पुरख के हाथ मैं है| हमें भरोसा है कि आप के घर तेज प्रतापी ब्रह्मज्ञानी पोत्र देंगे|

गुरु जी के ऐसे आशावादी वचन सुनकर माता जी बहुत प्रसन्न हुए| माता जी के मनोरथ को पूरा करने के लिए गुरु जी नित्य प्रति प्रातकाल त्रिवेणी स्नान करके अंतर्ध्यान हो कर वृति जोड़ कर बैठ जाते व पुत्र प्राप्ति के लिए अकाल पुरुष कि आराधना करते|

गुरु जी कि नित्य आराधना और याचना अकाल पुरख के दरबार में स्वीकार हो गई| उसुने हेमकुंट के महा तपस्वी दुष्ट दमन को आप जी के घर माता गुजरी जी के गर्भ में जन्म लेने कि आज्ञा की| जिसे स्वीकार करके श्री दमन (दसमेश) जी ने अपनी माता गुजरी जी के गर्भ में आकर प्रवेश किया|


श्री दसमेश जी अपनी जीवन कथा बचितर नाटक में लिखते है -

|| चौपई || 

मुर पित पूरब कीयसि पयाना || भांति भांति के तीरथि नाना || 
जब ही जात त्रिबेणी भए || पुन्न दान दिन करत बितए || १ || 
तही प्रकास हमारा भयो || पटना सहर बिखे भव लयो || २ || 

(दशम ग्रन्थ: बिचित्र नाटक, ७वा अध्याय)

पहला विवाह
संवत 1734 की वैसाखी के समय जब देश विदेश से सतगुरु के दर्शन करने के लिए संगत आई और लाहौर की संगत में एक सुभीखी क्षत्री जिसका नाम हरजस था उन्होंने अपनी लड़की जीतो का रिश्ता श्री (गुरु) गोबिंद राय जी के साथ कर दिया| विवाह की मर्यादा को 23 आषाढ़ संवत 1734 को पूर्ण किया| आज कल यह स्थान "गुरु का लाहौर"नाम से प्रसिद्ध है|

साहिबजादे

चेत्र सुदी सप्तमी मंगलवार संवत 1747 को साहिबजादे श्री जुझार सिंह जी का जन्म हुआ|

माघ महीने के पिछले पक्ष में रविवार संवत् 1753 को साहिबजादे श्री जोरावर सिंह जी का जन्म हुआ|

बुधवार फाल्गुन महीने संवत् 1755 को साहिबजादे श्री फतह सिंह जी का जन्म हुआ|

दूसरा विवाह
संवत 1741 की वैसाखी के समय जब देश विदेश से सतगुरु के दर्शन करने के लिए संगत आई और लाहौर की संगत में एक कुमरा क्षत्री जिसका नाम दुनीचंद था उन्होंने अपनी लड़की सुन्दरी का विवाह सात बैसाख श्री (गुरु) गोबिंद राय जी के साथ कर दिया|

साहिबजादे

23 माघ संवत 1743 को साहिबजादे श्री अजीत सिंह जी का जन्म पाऊँटा साहिब में हुआ|

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 51

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 ॐ सांई राम



आप सभी को शिर्डी के साँई बाबा ग्रुप की ओर से श्री साईं-वार की हार्दिक शुभ कामनाएं, हम प्रत्येक साईं-वार के दिन आप के समक्ष बाबा जी की जीवनी पर आधारित श्री साईं सच्चित्र का एक अध्याय प्रस्तुत करने के लिए श्री साईं जी से अनुमति चाहते है , हमें आशा है की हमारा यह कदम  घर घर तक श्री साईं सच्चित्र का सन्देश पंहुचा कर हमें सुख और शान्ति का अनुभव करवाएगा, किसी भी प्रकार की त्रुटी के लिए हम सर्वप्रथम श्री साईं चरणों में क्षमा याचना करते है...


श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 51 - उपसंहार 

अध्याय – 51 पूर्ण हो चुका है और अब अन्तिम अध्याय (मूल ग्रन्थ का 52 वां अध्याय) लिखा जा रहा है और उसी प्रकार सूची लिखने का वचन दिया है, जिस प्रकार की अन्य मराठी धार्मिक काव्यग्रन्थों में विषय की सूची अन्त में लिखी जाती है । अभाग्यवश हेमाडपंत के कागजपत्रों की छानबीन करने पर भी वह सूची प्राप्त न हो सकी । तब बाब के एक योग्य तथा धार्मि भक्त ठाणे के अवकाशप्राप्त मामलतदार श्री. बी. व्ही. देव ने उसे रचकर प्रस्तुत किया । पुस्तक के प्रारम्भ में ही विषयसूची देने तथा प्रत्येक अध्याय में विषय का संकेत शीर्षक स्वरुप लिखना ही आधुनिक प्रथा है, इसलिये यहाँ अनुक्रमाणिका नहीं दी जा रही है । अतः इस अध्याय को उपसंहार समझना ही उपयुक्त होगा । अभाग्यवश हेमा़डपंत उस समय तक जीवित न रहे कि वे अपने लिखे हुए इस अध्याय की प्रति में संशोधन करके उसे छपने योग्य बनाते ।

श्री सदगुरु साई की महानता
............................

हे साई, मैं आपकी चरण वन्दना कर आपसे शरण की याचना करता हूँ, क्योकि आप ही इस अखिल विश्व के एकमात्र आधार है । यदि ऐसी ही धारणा लेकर हम उनका भजन-पूजन करें तो यह निश्चित है कि हमारी समस्त इच्छाएं शीघ्र ही पूर्ण होंगी और हमें अपने परम लक्ष्य की प्राप्ति हो जायेगी । आज निन्दित विचारों के तट पर माया-मोह के झंझावात से धैर्य रुपी वृक्ष की जड़ें उखड़ गई है । अहंकार रुपी वायु की प्रबलता से हृदय रुपी समुद्र में तूफान उठ खड़ा हुआ है, जिसमें क्रोध और घृणा रुपी घड़ियाल तैरते है और अहंभाव एवं सन्देह रुपी नाना संकल्प-विकल्पों की संतत भँवरों में निन्दा, घृणा और ईर्ष्या रुपी अगणित मछलियाँ विहार कर रही है । यघपि यह समुद्र इतना भयानक है तो भी हमारे सदगुरु साई महाराज उसमें अगस्त्य स्वरुप ही है । इसलिये भक्तों को किंचितमात्र भी भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है । हमारे सदगुरु तो जहाज है और वे हमें कुशलतापूर्वक इस भयानक भव-समुद्र से पार उतार देंगे ।

प्रार्थना

श्री सच्चिदानंद साई महाराज को साष्टांग नमस्कार करके उनके चरण पकड़ कर हम सब भक्तों के कल्याणार्थ उनसे प्रार्थना करते है कि हे साई । हमारे मन की चंचलता और वासनाओं को दूर करो । हे प्रभु । तुम्हारे श्रीचरणों के अतिरिक्त हममें किसी अन्य वस्तु की लालसा न रहे । तुम्हारा यह चरित्र घर-घर पहुँचे और इसका नित्य पठन-पाठन हो और जो भक्त इसका प्रेमपूर्वक अध्ययन करें, उनके समस्त संकट दूर हो ।


फलश्रुति (अध्ययन का पुरस्कार)

अब इस पुस्तक के अध्ययन से प्राप्त होने वाले फल के सम्बन्ध में कुछ शब्द लिखूँगा । इस ग्रन्थ के पठन-पठन से मनोवांछित फल की प्राप्ति होगी । पवित्र गोदावरी नदी में स्नान कर, शिरडी के समाधि मन्दिर में श्री साईबाबा की समाधि के दर्शन कर लेने के पश्चात इस ग्रन्थ का पठन-पाठन या श्रवण प्रारम्भ करोगे तो तुम्हारी तिगुनी आपत्तियाँ भी दूर हो जायेंगी । समय-समय पर श्री साईबाबा की कथा-वार्ता करते रहने से तुम्हें आध्यात्मिक जगत् के प्रति अज्ञात रुप से अभिरुचि हो जायेगी और यदि तुम इस प्रकार नियम तथा प्रेमपूर्वक अभ्यास करते रहे तो तुम्हारे समस्त पाप अवश्य नष्ट हो जायेंगें । यदि सचमुच ही तुम आवागमन से मुक्ति चाहते हो तो तुम्हें साई कथाओं का नित्य पठन-पाठन, स्मरण और उनके चरणों में प्रगाढ़ प्रीति रखनी चाहिये । साई कथारुपी समुद्र का मंथन कर ुसमें से प्राप्त रत्नों का दूसरों को वितरण करो, जिससे तुम्हें नित्य नूतन आनन्द का अनुभव होगा और श्रोतागण अधःपतन से बच जायेंगे । यदि भक्तगण अनन्य भाव से उनकी शरण आयें तो उनका ममत्व नष्ट होकर बाबा से अभिन्नता प्राप्त हो जायेगी, जैसे कि नदी समुद्र में मिल जाती है । यदि तुम तीन अवस्थाओं (अर्थात्- जागृति, स्वप्न और निद्रा) में से किसी एक में भी साई-चिन्तन में लीन हो जाओ तो तुम्हारा सांसारिक चक्र से छुटकारा हो जायेगा । स्नान कर प्रेम और श्रद्घयुक्त होकर जो इस ग्रन्थ का एक सप्ताह में पठन समाप्त करेंगे, उनके सारे कष्ट दूर हो जायेंगे या जो इसका नित्य पठन या श्रवण करेंगे, उन्हें सब भयों से तुरन्त छुटकारा मिल जायेगा । इसके अध्ययन से हर एक को अपनी श्रद्घा और भक्ति के अनुसार फल मिलेगा । परन्तु इन दोनों के अभाव में किसी भी फल की प्राप्ति होना संभव नहीं है । यदि तुम इस ग्रन्थ का आदरपूर्वक पठन करोगे तो श्री साई प्रसन्न होकर तुम्हें अज्ञान और दरिद्रता के पाश से मुक्त कर, ज्ञान, धन और समृद्घि प्रदान करेंगे । यदि एकाग्रचित होकर नित्य एक अध्याय ही पढ़ोगे तो तुम्हें अपरिमित सुख की प्राप्ति होगी । इस ग्रन्थ को अपने घर पर गुरु-पूर्णिमा, गोकुल अष्टमी, रामनवमी, विजयादशमी और दीपावली के दिन अवश्य पढ़ना चाहिये । यदि ध्यानपूर्वक तुम केवल इसी ग्रन्थ का अध्ययन करते रहोगे तो तुम्हें सुख और सन्तोष प्राप्त होगा और सदैव श्री साई चरणारविंदो का स्मरण बना रहेगा और इस प्रकार तुम भवसागर से सहज ही पार हो जाओगे । इसके अध्ययन से रोगियों को स्वास्थ्य, निर्धनों को धन, दुःखित और पीड़ितों को सम्पन्नता मिलेगी तथा मन के समस्त विकार दूर होकर मानसिक शान्ति प्राप्त होगी ।
मेरे प्रिय भक्त और श्रोतागण । आपको प्रणाम करते हुए मेरा आपसे एक विशेष निवेदन है कि जिनकी कथा आपने इतने दिनों और महीनों से सुनी है, उनके कलिमलहारी और मनोहर चरणों को कभी विस्मृत न होने दें । जिस उत्साह, श्रद्गा और लगन के साथ आप इन कथाओं का पठन या श्रवण करेंगे, श्री साईबाबा वैसे ही सेवा करने की बुद्घि हमें प्रदान करेंगे । लेखक और पाठक इस कार्य में परस्पर सहयोग देकर सुखी होवें ।

प्रसाद - याचना

अन्त में हम इ
स पुस्तक को समाप्त करते हुए सर्वशक्तिमान परमात्मा से निम्नलिखित कृपा या प्रसादयाचना करते है –

हे ईश्वर । पाठकों और भक्तों को श्री साई-चरणों में पूर्ण और अनन्य भक्ति दो । श्री साई का मनोहर स्वरुप ही उनकी आँखों में सदा बसा रहे और वे समस्त प्राणियों में देवाधिदेव साई भगवान् का ही दर्शन करें । एवमस्तु ।


।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।
।। ऊँ श्री साई यशःकाय शिरडीवासिने नमः ।।

आप सभी को शिर्डी के साँई बाबा ग्रुप की ओर से हार्दिक धन्यवाद, हम प्रत्येक साईं-वार के दिन आप के समक्ष बाबा जी की जीवनी पर आधारित श्री साईं सच्चित्र का एक अध्याय प्रस्तुत करने के लिए श्री साईं जी के श्री चरणों में अनुग्रह करते है की वह हमें इसे पुन: आरम्भ (दिनांक 15 अप्रैल 2021 से) करने हेतु आज्ञा प्रदान करें एवं हम अपने सभी पाठको से इस बात की भी क्षमा चाहते है की यदि अनजाने में हम से कोई भूल हो गयी हो तो बाबा श्री साईं जी हमें क्षमा प्रदान करने की कृपा करें, हम आपका इस सहयोग के लिए हृदय से आभार व्यक्त करते है एवं आपको आश्वासन देते है की अगले साईं-वार से श्री साईं सचरित्र का पुन: प्रसारण किया जायेगा, हमें आशा है की हमारा यह कदम घर घर तक श्री साईं सच्चित्र का सन्देश पंहुचा कर सभी को सुख और शान्ति का अनुभव करवाएगा, किसी भी प्रकार की त्रुटी के लिए हम सर्वप्रथम श्री साईं चरणों में क्षमा याचना करते है... एवं सभी पाठको का एक बार फिर से आभार व्यक्त करते है ...!!

ॐ सांई राम जी  

श्री गुरु गोबिंद सिंह जी : गुरुगद्दी मिलना

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श्री गुरु गोबिंद सिंह जी-गुरुगद्दी मिलना

श्री गुरु तेग बहादर जी के समय जब औरंगजेब के हुकम के अनुसार कश्मीर के जरनैल अफगान खां ने कश्मीर के पंडितो और हिंदुओं को कहा कि आप मुसलमान हो जाओ| अगर आप ऐसा नहीं करोगे तो क़त्ल कर दिया जायेगा| कश्मीरी पंडित भयभीत हो गए| उन्होंने अपना अन्न जल त्याग दिया और प्रार्थना करने लगे| कुछ दिन के बाद उन्हें आकाशवाणी के द्वारा अनुभव हुआ कि इस समय धर्म की रक्षा करने वाले श्री गुरु तेग बहादर जी हैं| आप पंजाब जाकर अपनी व्यथा बताओ| वह आपकी सहायता करने में समर्थ हैं| 

आकाशवाणी के अनुसार पंडित पूछते-पूछते श्री गुरु तेग बहादर जी के पास आनंदपुर आ गए और प्रार्थना की कि महाराज! हमारा धर्म खतरे में है हमे बचाएं| 

उनकी पूरी बात सुनकर गुरु जी सोच ही रहे थे कि श्री गोबिंद सिंह जी वहाँ आ गए| गुरु जी कहने लगे बेटा! इन पंडितो के धर्म की रक्षा के लिए कोई ऐसा महापुरुष चाहिए, जो इस समय अपना बलिदान दे सके| 

पिता गुरु का वह वचन सुनकर श्री गोबिंद जी ने कहा कि पिता जी! इस समय आप से बड़ा और कौन महापुरुष है, जो इनके धर्म कि रक्षा कर सकता है? आप ही इस योग्य हो| 

अपने नौ साल के पुत्र की यह बात सुनकर गुरु जी बहुत प्रसन्न हुए| आपने पंडितो को कहा कि जाओ अफगान खां से कह दो कि अगर हमारे आनंदपुर वासी गुरु जी मुसलमान हो जाएगें तो हम भी मुसलमान बन जाएगें|

यह बात सुनकर औरंगजेब ने गुरु जी को दिल्ली बुला लिया| गुरु जी ने सन्देश वाहक को कहा कि तुम चले जाओ हम अपने आप बादशाह के पास पहुँच जाएगें| गुरु जी ने घर बाहर का प्रबंध मामा कृपाल चंद को सौंप कर तथा हर बात अपने साहिबजादे को समझा दी और आप पांच सिखों को साथ लेकर दिल्ली की और चल दिए|

जब गुरु साहिब जी किसी भी तरह ना माने तो औरंगजेब ने गुरु जी को डराने के लिए भाई मति दास को आरे से चीर दिया और भाई दिआले जी को पानी की उबलती हुई देग में डालकर आलू की तरह उबाल दिया| दोनों सिखों ने अपने आप को हँस-हँस कर पेश किया| जपुजी साहिब का पाठ तथा वाहि गुरु का उच्चारण करते हुए सच खंड जा विराजे| बाकी तीन सिख गुरु जी के पास रह गए| 

गुरु जी ने अपना अन्तिम समय नजदीक जानकर बाकी तीन सिखों को वचन किया कि तुम अपने घरों को चले जाओ अब यहाँ रहने का कोई लाभ नहीं है| उन्होंने प्रार्थना की कि महाराज! हमारे हाथ पैरों को बेडियाँ लगी हुई हैं, दरवाजों पर ताले लगे हुए हैं हम यहाँ से किस तरह से निकले| गुरु जी ने वचन किया कि आप इस शब्द का "कटी बेडी पगहु ते गुरकीनी बन्द खलास"का पाठ करो| आपकी बेडियाँ टूट जाएगीं और दरवाजों के ताले खुल जाएगे और तुम्हें कोई नहीं देखेगा|
इसके पश्चात गुरु जी ने अपनी माता जी व परिवार को धैर्य देने वह प्रभु की आज्ञा को मानने के लिए शलोक लिखकर भेजे - 


गुन गोबिंद गाइिओ नही जनमु अकारथ कीन|| 
कहु नानक हरि भजु मना जिहि विधि जल कौ मीन||१||


यहाँ से आरम्भ करके अंत में लिखा -

राम नामु उरि मै गहियो जाकै सम नही कोइि|| 
जिह सिमरत संकट मिटै दरसु तुहारो होइि||५७|| 

(श्री गुरु ग्रंथ साहिब पन्ना १४२६-१४२९)

इन शालोको के साथ ही गुरु जी ने पांच पैसे और नारियल एक सिख के हाथ आनंदपुर भेज के गुरु गद्दी अपने सुपुत्र श्री गोबिंद राय को दे दी|

परन्तु गुरुगद्दी पर बैठने की पूरी मर्यादा श्री गुरु तेग बहादर जी के अन्तिम संस्कार करने के बाद 12 मघहर संवत 1232 को की गई| इस समय बाबा बुड्डा जी से पांचवी पीढ़ी उनके बड़े पोत्र बाबा राम कुइर (बाबा गुरबक्श सिंह) जी ने आप जी को गुरुगद्दी का तिलक लगाकर गुरु की मर्यादा अर्पण की| इसके पश्चात संगत ने अपनी अपनी भेंट अर्पण करके आपको नमस्कार किया|

आपजी ने गुरुगद्दी पर बैठकर अपने बाबा श्री गुरु हरि गोबिंद जी की तरह मीरी-पीरी दोनों कामों को अपना लिया| अच्छे योद्धा, शस्त्र व घोड़े अपने पास इक्टठे करने शुरू कर दिए| बीबी वीरो के पांच पुत्र, बाबा सूरज मल जी के दो पौत्र तथा श्री गुरु हरिगोबिंद जी के प्र्रोहित का पुत्र दयानन्द आदि योद्धे सतिगुरु के पास आनंदपुर रहने लगे| सतिगुरु जी इन से मिलकर नित्य प्रति शस्त्र विद्या का और घोड़े की सवारी का अभ्यास करते रहते| इनके साथ ही आपजी गुरु घर की मर्यादा के अनुसार सिख सेवकों को सतिनाम के उपदेश द्वरा आनन्दित करते| 


बिचित्र नाटक में आप जी लिखते हैं - 

राज साज हम पर जब आयो || जथा शकत तब धरम चलायो || 
भांति भांति बन खेल शिकारा || मरे रीछरोझ झंखार || १ || 

(दशम-ग्रंथ: बिचित्र नाटक: ७ वां अध्याय)

श्री गुरु गोबिंद सिंह जी - खालसा पंथ की साजना

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ॐ साँई राम जी








श्री गुरु गोबिंद सिंह जी - खालसा पंथ की साजना

पाँच प्यारों का चुनाव करना 

वैसाखी संवत १७४६ वाले दिन एक बहुत बड़े पंडाल में गुरु जी का दीवान सजा| सभी संगत एकत्रित हो गई| संगत आप जी के वचन सुन ही रही थी कि गुरु जी अपने दाँये हाथ में एक चमकती हुई तलवार ले कर खड़े हो गए|

श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने ऊँची आवाज में कहा कि कोई सिख हमे अपना शीश भेंट दे|आप जी के यह वचन सुनकर भाई दया राम जी उठ कर खड़े हो गए और प्रार्थना कि गुरूजी मेरा शीश हाजिर है|गुरु जी बाजू पकड़कर तम्बू में ले गए| कुछ समय के बाद रक्त से भीगी तलवार लेकर तम्बू से बाहर आ गए|

गुरु जी ने फिर एक और सिख के शीश कि मांग की| फिर भाई धर्म जी हाथ जोड़कर खड़े हो गए| उसे भी गुरु जी हाथ पकडकर अंदर ले गए|खून से भीगी तलवार लेकर गुरु जी ने फिर से शीश की माँग की|

अब मुहकम चंद जी व चौथी बार भाई साहिब चंद जी आये| गुरु जी ने फिर वैसे ही किया|हाथ पकड़कर अंदर ले गए व फिर खून से भीगी तलवार लेकर शीश की माँग| अब पांचवी बार हिम्मत मल जी हाथ जोड़कर खड़े हो गए| गुरु जी उन्हें भी अंदर ले गए|

गुरु जी ने तलवार को म्यान में डाल दिया और सिंघासन पर बैठ गए| तम्बू में ही पाँच शीश भेंट करने वाले प्यारों को नयी पोशाकें पहना कर अपने पास बैठा कर संगत को कहा की यह पाँचो मेरा ही स्वरूप है और मैं इनका स्वरूप हूँ| यह पाँच मेरे प्यारे है|


अमृत तैयार करके छकाना 
तीसरे पहर गुरु जी ने लोहे का बाटा मँगवा कर उसमें सतलुज नदी का पानी डाल कर अपने आगे रख दिया| पाँच प्यारों को सजा कर अपने सामने खड़ा कर लिया| फिर अपने बांये हाथ से बाटे को पकड़कर दाँये हाथ से खंडे को जल में घुमाते रहे|मुख से जपुजी साहिब आदि बाणियो का पाठ करते रहे|पाठ की समाप्ति के बाद अरदास करके पाँच प्यारों को बारी-२ पहले अमृत के पाँच-पाँच घूँट पिलाये| फिर पाँच-२ बार हरेक की आँखों पर इसके छींटे मारे| पाँच-२ घूँट हरेक के केशों में डाले|हर बार बोल "वाहिगुरू जी का खालसा वाहिगुरू जी की फतह "पहले आप कहते और पीछे-२ अम्रृत पीने वाले को कहलाते|

इस तरह गुरु जी ने अमृत पिला कर हरेक प्यारों को सिंह पद प्रदान किया जैसे-
१. भाई दया सिंह जी
२. भाई धर्म सिंह जी
३. भाई मुहकम सिंह जी
४. भाई साहिब सिंह जी
५. भाई हिम्मत सिंह जी

इस तरह पाँच प्यारों को हर प्रकार की शिक्षा से तयार करके गुरु गोबिंद जी ने उनसे आप अमृत छका और अपने नाम के साथ भी श्री गोबिंद राय से श्री गुरु गोबिंद सिंह जी कहलाये|


जिस स्थान पर आप जी ने यह सारा कौतक रचा, उसका नाम केशगढ़ रखा| जो इस समय तख़्त केसगढ़ के नाम से आनंदपुर साहिब में सुशोभित है|

इस सारे उत्साह भरपूर चरित्र को देखकर और भी हजारों सिक्खों ने खंडे का अमृत छककर सिंह सज गए| सब सिखों ने अमृत छक कर पाँच ककार की रहत धारण करके अपने नाम के साथ "सिंह"रख लिया|

श्री गुरु गोबिंद सिंह जी-साखियाँ-पूर्ण सिक्ख के लक्षण व सिक्खी धारण योग्य बातें

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 श्री गुरु गोबिंद सिंह जी-साखियाँ-पूर्ण सिक्ख के लक्षण व सिक्खी धारण योग्य बातें

श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने वचन किया कि हे सिक्खो! जिस का जीवन धर्म के लिए है और अपना आचरण गुर-मर्यादा के अनुसार रखता है, वही पूरण सिक्ख है|

गुरु जी आगे कहने लगे कि सिक्ख अपनी कमाई में से गुरु के निमित दशवंध दे|सिक्खी की रहत में रहे, स्नान और ध्यान स्मरण में लग कर समय व्यतीत करे| परायी स्त्री व पराये धन का त्याग करे| गुरुबाणी का पाठ करे, गुरु पर विश्वास रखे|

सिक्ख के धारण योग्य बातें:
१. सिक्ख भ्रम न करे|
२. सम्बन्धी के मरने पर रोना पीटना न करे|
३. नीच चंडाल को और वैश्या स्त्री को कर्ज न दे| खोटे पुरुष के साथ कभी प्रीति ना करे|
४. वाहिगुरू की ओर से विमुख होकर आंहे न भरे|
५. गुरूद्वारे जाते समय नाख्नों तक सारे पैर धोकर अंदर जाए|
६. रोटी खाने के बाद पेट ना बजाये|
७. चलते-चलते खाना व शौच न करे|
८. अन्न खा कर उसकी निंदा ना करे|
९. बदचलण पुरुष व स्त्री से प्रीति न करे|
१०. धर्म पुस्तकों को पढकर व सुन कर अपना अंहकार दूर करे|
११. जीवन की जुमेवारियो को धैर्य से निभाए|
१२. खोटा हठ, खोटा भोजन में अपना बडप्पन न करे|
१३. खाता-पीता मन को प्रभू की याद में लगाये|

जो सिक्ख अपने व्यवहार तथा खाने-पीने को शुद्ध रखता है, उसका घर धन से भरपूर रहता है|

श्री गुरु गोबिंद सिंह जी-साखियाँ-अरदास की महत्ता

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श्री गुरु गोबिंद सिंह जी-साखियाँ-अरदास की महत्ता

एक दिन उजैन शहर के रहने वाले एक सिक्ख बशंबर दास ने गुरु जी के आगे प्रार्थना की कि सच्चे पातशाह! मुझे धन कि बख्शिश करो| मेरे घर बड़ी गरीबी है|

सतिगुरु जी ने फ़रमाया कि भाई! सिक्ख को हर कार्य के प्रारम्भ के समय कड़ाह प्रसाद करके उसे पवित्र चौंकी पर रख कर ऊपर साफ़ कपड़े से ढक कर पास बैठ कर पूरी पवित्रता से जपुजी साहिब का पाठ करना या करवाना चाहिए| इसके पश्चात कार्य कि सफलता के लिए खड़े होकर हाथ जोड़कर नम्रता से अरदास करनी अथवा करवानी चाहिए| फिर जो भी कार्य होगा अवश्य सिद्ध होगा|

घर जाकर भी तुम इस तरह कि ही अरदास करवाना , तेरे घर बहुत धन और सुख सम्पदा कि बख्शिश होगी| हे बशंबर दास! हरेक सिक्ख कि यह अरदास होनी चाहिए|

बशंबर दास ने कहा,गुरु जी! महलों और दुशालों में रहते अथवा अति गरीबी के समय हर हालात में आप जी के चरणों का भरोसा मेरे ह्रदय में ज्यों का त्यों बना रहे| मेरा मन सिक्खी भरोसे से न डोले|

श्री गुरु गोबिंद सिंह जी-साखियाँ-चरण पाहुल तथा खंडे के अमृत की शक्ति

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श्री गुरु गोबिंद सिंह जी-साखियाँ-चरण पाहुल तथा खंडे के अमृत की शक्ति

सिक्खों ने पांच प्रकार की सिक्खी का उल्लेख सुनकर श्री गुरु गोबिंद सिंह जी से प्रार्थना कि महाराज! हमें पाहुल व अमृत का उल्लेख बताओ| गुरु जी ने फरमाया कि भाई! तंत्र-मन्त्र आदि कार्य कि सिद्धि के लिए प्रसिद्ध है,परन्तु वाहिगुरू-मन्त्र जो चारों वर्णों को एक करने वाला है,इससे सभी सिद्ध हो जाते है| लोहे का शस्त्र (खंडा), जल तथा मिष्ठान से तैयार किया हुआ अमृत एक बड़ा तन्र्त्र है, जो स्त्री व पुरुष को बलवान बना देता है|

श्री गुरु नानक देव जी से लेकर अब तक गुरु घर में चरण पाहुल की मर्यादा थी| जिससे सिक्ख की गुरु चरणों में बहुत प्रीति होती है| चरण धोकर उसके ऊपर गुरु मन्त्र पड़कर सिक्ख को पिला देना व भजन करने का उपदेश देना, इस विधि से केवल मन्त्र के बल से सतो गुणी चरणामृत बनता है|

परन्तु जल तथा मिष्ठान्न लोहे के बाटे में डाल कर उसमें लोहे का खंडा घुमा कर अमृत तैयार किया जाता है| यह तंत्र है, जिसमें बिजली की तरह ऐसी शक्ति पैदा होती है, जो अमृत पान करने वाले के अंदर वीर रस व धर्म की दृढ़ता भर देती है, इस अमृत को तैयार करते समय जो जो गुरुबाणी का पाठ एक मन होकर सिंह करते है, वह मन्त्र है| गुरुसिख को जो पाँच ककार धारण कराये जाते है, वह यंत्र है|

इन तीनों तंत्र, मन्त्र व यंत्र के इकठ में एक त्रिगुणी बलवान शक्ति पैदा हो जाती है| इस लिए खंडे का अमृत चरणामृत से कई प्रकार से बढकर शक्ति रखता है|

श्री गुरु गोबिंद सिंह जी-साखियाँ-आज्ञा मानने की व्याख्या

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श्री गुरु गोबिंद सिंह जी-साखियाँ-आज्ञा मानने की व्याख्या

एक दिन श्री गुरु गोबिंद सिंह जी दीवान की ओर आ रहे थे कि रास्ते में एक सिक्ख दीवार पर लेप कर रहा था| दीवार के ऊपर लेप मारते समय उससे गुरु जी के पाजामे के ऊपर चिकड़ के छींटे पड़ गए|

गुरु जी ने सेवकों से कहा इस लिपाई करने वाले को जोर से थप्पड़ मारो| यह बात सुनकर कई सिक्खों ने जोर से थप्पड़ लगा दिए| बहुत थप्पड़ों की मार से वह गरीब सिक्ख बेहोश हो गया| उसकी यह दशा देखकर गुरु जी ने अपने सेवकों को कहा मैंने एक सिक्ख को थप्पड़ मारने की आज्ञा दी थी| परन्तु आप सब ने हो इस गरीब को एक एक थप्पड़ मारकर बेहोश कर दिया है|

सिक्खों ने कहा महाराज! हमने तो आपका हुक्म माना है| गुरु जी ने कहा यदि हमारा हुक्म मानते हो तो इस सिक्ख को कोई अपनी लड़की का रिश्ता दे दो| गुरु जी का यह वचन सुनकर सभ चुप हो गए| सबको चुप देखकर गुरु जी ने कहा, गुरु का हुक्म तब ही यथार्थ है यदि गुरु के सारे हुक्म माने जाए| परन्तु तुमसे सिक्खी दूर है| आसान हुक्म मान लेते हो तथा कठिन समय चुप धारण कर लेते हो|

गुरु जी के यह वाक्य सुनकर कंधार के एक सिक्ख अजायब सिंह ने अपनी लड़की का रिश्ता उस गरीब सिक्ख को दे दिया तथा गुरु की अटूट खुशी प्राप्त की|

श्री साई सच्चरित्र – अध्याय-1

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  सांई राम जी





आप सभी को शिर्डी के साईं बाबा ग्रुप की ओर साईंवार की हार्दिक शुभ कामनाएं, हम प्रत्येक साईवार के दिन आप के समक्ष बाबा जी की जीवनी पर आधारित श्री साईं सच्चित्र का एक अध्याय प्रस्तुत करने के लिए श्री साईं जी से अनुमति चाहते है , हमें आशा है की हमारा यह कदम घर घर तक श्री साईं सच्चित्र का सन्देश पंहुचा कर हमें सुख और शान्ति का अनुभव करवाएगा, किसी भी प्रकार की त्रुटी के लिए हम सर्वप्रथम श्री साईं चरणों में क्षमा याचना करते है...

श्री साई सच्चरित्र – अध्याय-1
गेहूँ पीसने वाला एक अद्भभुत सन्त वन्दना - गेहूँ पीसने की कथा तथा उसका तात्पर्य
----------------------------------
पुरातन पद्घति के अनुसार श्री हेमाडपंत श्री साई सच्चरित्र का आरम्भ वन्दना करते हैं 

1.
प्रथम श्री गणेश को साष्टांग नमन करते हैंजो कार्य को निर्विध समाप्त कर उस को यशस्वी बनाते हैं कि साई ही गणपति हैं 


2.
फिर भगवती सरस्वती कोजिन्होंने काव्य रचने की प्रेरणा दी और कहते हैं कि साई भगवती से भिन्न नहीं हैंजो कि स्वयं ही अपना जीवन संगीत बयान कर रहे हैं 


3.
फिर ब्रहाविष्णुऔर महेश कोजो क्रमशः उत्पत्तिसि्थति और संहारकर्ता हैं और कहते हैं कि श्री साई और वे अभिन्न हैं  वे स्वयं ही गुरू बनकर भवसहगर से पार उतार देंगें 


4.
फिर अपने कुलदेवता श्री नारायण आदिनाथ की वन्दना करते हैं  जो कि कोकण में प्रगट हुए  कोकण वह भूमि हैजिसे श्री परशुरामजी ने समुद् से निकालकर स्थापित किया था  तत्पश्चात् वे अपने कुल के आदिपुरूषों को नमन करते हैं 


5.
फिर श्री भारदृाज मुनि कोजिनके गोत्र में उनका जन्म हुआ  पश्चात् उन ऋषियों को जैसे-याज्ञवल्क्यभृगुपाराशरनारदवेदव्याससनक-सनंदनसनत्कुमारशुकशौनकविश्वामित्रवसिष्ठवाल्मीकिवामदेवजैमिनीवैशंपायननव योगींद्इत्यादि तथा आधुनिक सन्त जैसे-निवृतिज्ञानदेवसोपानमुक्ताबाईजनार्दनएकनाथनामदेवतुकारामकान्हानरहरि आदि को नमन करते हैं 


6.
फिर अपने पितामह सदाशिवपिता रघुनाथ और माता कोजो उनके बचपन में ही गत हो गई थीं  फिर अपनी चाची कोजिन्होंने उनका भरण-पोषण किया और अपने प्रिय ज्येष्ठ भ्राता को नमन करते हैं 


7.
फिर पाठकों को नमन करते हैंजिनसे उनकी प्रार्थना हैं कि वे एकाग्रचित होकर कथामृत का पान करें 


8.
अन्त में श्री सच्चिददानंद सद्रगुरू श्री साईनाथ महाराज कोजो कि श्री दत्तात्रेय के अवतार और उनके आश्रयदाता हैं और जो ब्रहा सत्यं जगनि्मथ्या का बोध कराकर समस्त प्राणियों में एक ही ब्रहा की व्यापि्त की अनुभूति कराते हैं 
 श्री पाराशरव्यासऔर शांडिल्य आदि के समान भक्ति के प्रकारों का संक्षेप में वर्णन कर अब ग्रंथकार महोदय निम्नलिखित कथा प्रारम्भ करते हैं 


गेहूँ पीसने की कथा
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सन् 1910 में मैं एक दिन प्रातःकाल श्री साई बाबा के दर्शनार्थ मसजिद में गया  वहाँ का विचित्र दृश्य देख मेरे आश्चर्य का ठिकाना  रहा कि साई बाबा मुँह हाथ धोने के पश्चात चक्की पीसने की तैयारी करने लगे  उन्होंने फर्श पर एक टाट का टुकड़ा बिछाउस पर हाथ से पीसने वाली चक्की में गेहूँ डालकर उन्हें पीसना आरम्भ कर दिया  मैं सोचने लगा कि बाबा को चक्की पीसने से क्या लाभ है  उनके पास तो कोई है भी नही और अपना निर्वाह भी भिक्षावृत्ति दृारा ही करते है  इस घटना के समय वहाँ उपसि्थत अन्य व्यक्तियों की भी ऐसी ही धोरणा थी  परंतु उनसे पूछने का साहस किसे था  बाबा के चक्की पीसने का समाचार शीघ्र ही सारे गाँव में फैल गया और उनकी यह विचित्र लीला देखने के हेतु तत्काल ही नर-नारियों की भीड़ मसजिद की ओर दौड़ पडी़  उनमें से चार निडर सि्त्रयां भीड़ को चीरता हुई ऊपर आई और बाबा को बलपूर्वक वहाँ से हटाकर हाथ से चक्की का खूँटा छीनकर तथा उनकी लीलाओं का गायन करते हुये उन्होंने गेहूँ पीसना प्रारम्भ कर दिया  पहिले तो बाबा क्रोधित हुएपरन्तु फिर उनका भक्ति भाल देखकर वे षान्त होकर मुस्कराने लगे  पीसते-पीसते उन सि्त्रयों के मन में ऐसा विचार आया कि बाबा के  तो घरदृार है और  इनके कोई बाल-बच्चे है तथा  कोई देखरेख करने वाला ही है  वे स्वयं भिक्षावृत्ति दृारा ही निर्वाह करते हैंअतः उन्हें भोजनाआदि के लिये आटे की आवश्यकता ही क्या हैं  बाबा तो परम दयालु है  हो सकता है कि यह आटा वे हम सब लोगों में ही वितरण कर दें  इन्हीं विचारों में मगन रहकर गीत गाते-गाते ही उन्होंने सारा आटा पीस डाला  तब उन्होंने चक्की को हटाकर आटे को चार समान भागों में विभक्त कर लिया और अपना-अपना भाग लेकर वहाँ से जाने को उघत हुई  अभी तक शान्त मुद्रा में निमग्न बाब तत्क्षण ही क्रोधित हो उठे और उन्हें अपशब्द कहने लगेसि्त्रयों क्या तुम पागल हो गई हो  तुम किसके बाप का माल हडपकर ले जा रही हो  क्या कोई कर्जदार का माल हैजो इतनी आसानी से उठाकर लिये जा रही हो  अच्छाअब एक कार्य करो कि इस अटे को ले जाकर गाँव की मेंड़ (सीमापर बिखेर आओ  मैंने शिरडीवासियों से प्रश्न किया कि जो कुछ बाबा ने अभी किया हैउसका यथार्थ में क्या तात्पर्य है  उन्होने मुझे बतलाया कि गाँव में विषूचिका (हैजाका जोरो से प्रकोप है और उसके निवारणार्थ ही बाबा का यह उपचार है  अभी जो कुछ आपने पीसते देखा थावह गेहूँ नहींवरन विषूचिका (हैजाथीजो पीसकर नष्ट-भ्रष्ट कर दी गई है  इस घटना के पश्चात सचमुच विषूचिका की संक्रामतकता शांत हो गई और ग्रामवासी सुखी हो गये 

यह जानकर मेरी प्रसन्नता का पारावार  रहा  मेरा कौतूहल जागृत हो गया  मै स्वयं से प्रश्न करने लगा कि आटे और विषूचिका (हैजारोग का भौतिक तथा पारस्परिक क्या सम्बंध है  इसका सूत्र कैसे ज्ञात हो  घटना बुदिगम्य सी प्रतीत नहीं होती  अपने हृतय की सन्तुष्टि के हेतु इस मधुर लीला का मुझे चार शब्दों में महत्व अवश्य प्रकट करना चाहिये  लीला पर चिन्तन करते हुये मेरा हृदय प्रफुलित हो उठा और इस प्रकार बाब का जीवन-चरित्र लिखने के लिये मुझे प्रेरणा मिली  यह तो सब लोगों को विदित ही है कि यह कार्य बाबा की कृपा और शुभ आशीर्वाद से सफलतापूर्वक सम्पन्न हो गया  आटा पीसने का तात्पर्य
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शिरडीवासियों ने इस आटा पीसने की घटना का जो अर्थ लगायावह तो प्रायः ठीक ही हैपरन्तु उसके अतिरिक्त मेरे विचार से कोई अन्य भी अर्थ है  बाब शिरड़ी में 60 वर्षों तक रहे और इस दीर्घ काल में उन्होंने आटा पीसने का कार्य प्रायः प्रतिदिन ही किया  पीसने का अभिप्राय गेहूँ से नहींवरन् अपने भक्तों के पापोदुर्भागयोंमानसिक तथा शाशीरिक तापों से था  उनकी चक्की के दो पाटों में ऊपर का पाट भक्ति तथा नीचे का कर्म था  चक्की का मुठिया जिससे कि वे पीसते थेवह था ज्ञान  बाबा का दृढ़ विश्वास था कि जब तक मनुष्य के हृदय से प्रवृत्तियाँआसक्तिघृणा तथा अहंकार नष्ट नहीं हो जातेजिनका नष्ट होना अत्यन्त दुष्कर हैतब तक ज्ञान तथा आत्मानुभूति संभव नहीं हैं  यह घटना कबीरदास जी की उसके तदनरुप घटना की स्मृति दिलाती है  कबीरदास जी एक स्त्री को अनाज पीसते देखकर अपने गुरू निपतिनिरंजन से कहने लगे कि मैं इसलिये रुदन कर रहा हूँ कि जिस प्रकार अनाज चक्की में पीसा जाता हैउसी प्रकार मैं भी भवसागर रुपी चक्की में पीसे जाने की यातना का अनुभव कर रहा हूँ  उनके गुरु ने उत्तर दिया कि घबड़ाओ नहीचक्की के केन्द्र में जो ज्ञान रुपी दंड हैउसी को दृढ़ता से पकड़ लोजिस प्रकार तुम मुझे करते देख रहे हो  उससे दूर मत जाओबसकेन्द्र की ओप ही अग्रसर होते जाओ और तब यह निशि्चत है कि तुम इस भवसागर रुपी चक्की से अवश्य ही बच जाओगे 

।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु  शुभं भवतु ।।

श्री गुरु गोबिंद सिंह जी-साखियाँ-शुद्ध गुरुबाणी पढ़ने का महत्व

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ॐ साँई राम जी 




श्री गुरु गोबिंद सिंह जी-साखियाँ-शुद्ध गुरुबाणी पढ़ने का महत्व

एक दिन एक सिक्ख श्री गुरु गोबिंद सिंह जी की शरण में "दखणी ओंकार"का पाठ पढ़ रहा था| गुरु जी उसकी मीठी व सुन्दर आवाज़ के साथ बाणी का पाठ बड़े प्रेम से सुन रहे थे| परन्तु जब उसने यह चरण -

करते की मिति करता जाणै के जाणै गुरु सूरा ||

पढ़ी तो आपने एक सेवादार को कहा कि इसके मुँह के ऊपर थपड़ मारो व इसे दूर ले जाओ| जब यह बात हुई तो संगत ने बड़े हैरान होकर प्रार्थना की कि सच्चे पातशाह! इस सिक्ख से आपने इस तरह क्यों किया है? यह तो बड़े प्रेम से गुरुबाणी पढ रहा था|

गुरु जी ने उत्तर दिया यह सिक्ख बाणी का पाठ गल्त कर रहा था| इससे यह व्यवहार इस लिए किया गया है क्योंकि यह पढ़ रहा था -

करते की मिति करता जाणै के जाणै गुरु सूरा ||

जिसका गल्त अर्थ यह बनता है कि कर्ते की महिमा कर्ता ही जनता है, गुरु शूरवीर क्या जान सकता है| सवाल यह है कि यदि करते की मिति को गुरु नहीं जान सकता, तो फिर उस गुरु ने सिक्ख को क्या उपदेश देना है|

सो भाई सिक्खों! गुरु जी की बाणी के शुद्ध पाठ उच्चारण का बहुत बड़ा महत्व है| इसका शुद्ध पाठ किया करो| इस चरण का शुद्ध पाठ यह है कि -
"के जाणै गुरु सूरा" - जिसका अर्थ है - कर्ते की महिमा कर्ता आप ही जानता है या शूरवीर गुरु जानता है|

आप जी के यह वचन सुनकर सारे सिक्खों ने शुद्ध पाठ करने का प्रण किया|

श्री गुरु गोबिंद सिंह जी-साखियाँ-लंगर की परीक्षा करनी

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 ॐ साँई राम जी




श्री गुरु गोबिंद सिंह जी-साखियाँ-लंगर की परीक्षा करनी

आनंदपुर में सिक्ख संगत ने अपने अपने डेरों में लंगर लगाए हुए थे| गुरू जी ने जब इनकी शोभा सुनी कि गुरु की नगरी में आने वाला कोई भी रोटी से भूखा नहीं रहता तो एक दिन रात के समय गुरु जी आप एक गरीब सिक्ख का वेष धारण करके इनकी परीक्षा लेने चल पड़े|

एक सिक्ख के डेरे पर जाकर आपने कहा हमें जल्दी भोजन दो, भूख लगी है| उसने कहा कुछ देर बैठ जाओ भोजन तैयार हो रहा है, मिल जाएगा|

उससे हटकर आप जी दूसरे सिक्ख के डेरे गए और वहाँ भी भोजन माँगा| परन्तु उसने कहा दाल भाजी तैयार हो रही है, फिर आकर भोजन छक लेना|

फिर इसके पश्चात गुरु जी तीसरे व चौथे सिक्ख के डेरे भोजन के लिए गए| तो एक ने कहा "आनन्द साहिब"का पाठ तथा अरदास करके लंगर बटेगा| दूसरे ने कहा सारी संगत एकत्रित हो जाए, तो पंक्ति लगाकर लंगर बाँटा जाएगा, आप बैठ जाओ|

इसके पश्चात आप जी भाई नन्द लाल जी के डेरे भोजन के लिए गए| आप ने वहाँ जाकर भी भोजन माँगा| भाई के पास जो कुछ तैयार था गुरु जी के आगे लाकर रख दिया| गुरु जी छक कर बहुत प्रसन्न हुए और अपने महलों में आ गए|

दूसरे दिन जब सिक्खों के लंगर की बातें चली तो गुरु जी ने अपनी रात की सारी वार्ता सुनाकर बताया की हमे केवल भाई नन्द लाल के लंगर से ही भोजन मिला है| बाकी सबने कोई ना कोई बात करके हमें लंगर नहीं छकाया| जो सिक्ख भूखे को शीघ्र ही भोजन देने का यत्न करता है, वही सिक्ख हमें प्यारा है| भूखे को रोटी-पानी देने के लिए कोई समय नहीं विचारना चाहिए| जिस अन्न के दाने से प्राण बच जाते है, उसका पुण्य फल सभी दानों से अधिक है|

सतिगुरु जी की तरफ से अन्न दान महिमा सुनकर सबने प्रण कर लिया कि आगे से किसी को भूखा नहीं भेजा जाएगा|

श्री गुरु गोबिंद सिंह जी-साखियाँ-गधे को शेर की पौशाक पहना कर सिखों को शिक्षा

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 ॐ साँई राम जी




श्री गुरु गोबिंद सिंह जी-साखियाँ-गधे को शेर की पौशाक पहना कर सिखों को शिक्षा

एक दिन श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने सिक्खों को शिक्षा देने के लिए शेर की खाल रात के समय एक गधे को पहना दी| उस गधे को बाहर खेतों में छोड़ दिया| हरे खेत खाकर गधा बहुत मस्त हो गया|

एक दिन रात के समय वह अपने ही मालिक कुम्हार के घर आकर खड़ा हो गया| कुछ देर बाद कुम्हार के गधे हींगे तो वह भी बाहर से हींगने लगा| कुम्हार ने जब उसकी यह आवाज़ सुनी तो गधे से ऊपर से शेर की खाल उतार दी|उसे दो चार डंडे भी मारे और दूसरे गधों के साथ बांध दिया| यह बात सारे लोगों में फ़ैल गई कि जिसको शेर समझकर उससे डरते थे, वह कुम्हार का गधा था| जिस पर से खाल उतरकर कुम्हार ने उसपर छट लाद दी है|

यह बात सुनकर गुरु जी ने सिक्खों को बताया कि यह तुम्हें बाणा उदहारण के द्वारा समझाया है कि जिस तरह एक गधा शेर का बाणा धारण करके लोगों के खेत खाता रहा और उसे शेर समझकर उसके पास कोई न गया| परन्तु जब वह अपने भाईयों से मिलकर अपनी भाषा बोला तो उसको कुम्हार ने डंडे मारकर आगे लगा लिया और पीठ पर छट लादकर अन्य गधों के साथ बांध दिया| इसी तरह सिक्खी बाणा है, जो इसको धारण करके इसपर कायम रहेगा, उससे सारे लोग भय खायेंगे| परन्तु जो सिक्खी बाणे पर असूलों को त्याग देगा, उसपर सब कोई अपने हुक्म की छट लादेगा और खरी खोटी बोली के डंडे मारेगा|

यह दृष्टांत सुनकर सारे सिक्खों ने प्रण किया कि वह कभी भी सिक्खी बाणे और असूलों का त्याग नहीं करेंगे|

श्री गुरु गोबिंद सिंह जी-साखियाँ-ब्राहमणों की परीक्षा करनी

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 ॐ साँई राम जी




श्री गुरु गोबिंद सिंह जी-साखियाँ-ब्राहमणों की परीक्षा करनी

श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने ब्राहमणों का चुनाव करने के लिए दूर दूर के क्षेत्रों से जैसे कश्मीर, मथुरा, प्रयाग व काशी आदि दक्षिण पूर्व दिशा से सारे पंडितो को आनंदपुर आने के लिए अपने सिख भेजकर बुलवाया|

बहुत से पंडित एकत्रित हो गए| गुरु जी ने उनके लिए एक ओर लंगर में खीर, पूड़े तथा लड्डू आदि तैयार करवाए| दूसरी ओर गुरु जी ने मासाहारी भोजन तैयार करवाया| इसके पश्चात गुरु जी ने सबको कहा कि जो वैष्णव भोजन खीर पूड़े आदि खायेगा उसे पांच रूपये दक्षिणा मिलेगी तथा जो मांस वाला भोजन खायेगा उसे पांच मोहरे दक्षिणा मिलेगी|

गुरु जी के यह वचन सुनकर बहुत से पंडित मांस खाने वाले लंगर में जाकर बैठ गए| बाकी थोड़े से ही वैष्णव भोजन खीर पूड़े वाले लंगर में रह गए| दोनों लंगर में सबने भोजन खा लिया|

गुरु जी ने मासाहारी ब्राहमणों को सम्बोधित करके कहा कि तुमने लोभवश होकर अपना ब्राहमण धर्म भ्रष्ट किया है| मांस खाना क्षत्रियों का धर्म है ब्राहमणों का नहीं| इस करके तुम्हें पांच-पांच मोहरों की जगह पांच-पांच रूपये दक्षिणा दी जाती है|

इसके पश्चात गुरु जी ने वैष्णवों को कहा कि तुमने लोभवश होकर अपना ब्राहमण धर्म नहीं छोड़ा जो कि लोक व परलोक में सहायक होता है| तुम्हें शाबाश है| उनको गुरु जी ने प्रसन्न होकर पांच - पांच मोहरे दक्षिणा दी| आपने बड़े ही सत्कार से उनको विश्राम कराया|

श्री गुरु गोबिंद सिंह जी – साखियाँ - जेब काटने वाले चोर को शिक्षा

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ॐ साँई राम जी




श्री गुरु गोबिंद सिंह जी – साखियाँ - जेब काटने वाले चोर को शिक्षा

श्री गुरु गोबिंद सिंह जी के दरबार में सदा एक मेला सा लगा रहता था| एक दिन चार सिख गुरु जी के पास आए| उन्होंने आकर प्रार्थना की कि किसी ने उनकी जेब काट ली है व पैसे नकदी निकाल लिए हैं| उनकी बात सुनकर गुरु जी ने सिखों को हुक्म दिया कि संगत की भीड़ में एक आदमी जिसने सिर पर लाल पगड़ी बांधी है, कमर पर धोती है तथा उसके हाथ में माला व माथे पर चन्दन का सफ़ेद तिलक लगा हुआ है, उसे पकड़कर हमारे पास ले आओ|

सिखों ने गुरु जी की बात सुनी व गुरु जी की बताई निशानी के अनुसार एक आदमी के हाथ पैर बांधकर गुरु जी के समक्ष ले आए| गुरु जी ने उसकी तलाशी करवाई| चुराया हुआ सारा समान व धन उसके पास से ही निकला| तब गुरु जी ने उस जेब कतरे को कैद में डलवा दिया|

कुछ दिनों के बाद आपने उसे बुलाकर कहा तूने जेब काटने के लिए हमारी आराधना करके प्रण किया था, मैं तीन जेबें काटकर फिर यह काम नहीं करूंगा| परन्तु तूने अपने प्रण से फिर कर चौथी बार जेब क्यों काटी? इसलिए तुम्हें कैद की सजा दी जाती है| परन्तु यदि अब तुम यह प्रण हमारे सामने कर लो कि आगे से कोई ऐसा काम नहीं करोगे, तो तुम्हें छोड़ देते हैं|

उस चोर ने गुरु की बात सुनकर उनसे क्षमा माँगी व यह प्रण किया कि वह आगे से ऐसा कोई काम नहीं करेगा| गुरु जी ने उसे बुलाकर उपदेश दिया व कैद से निकाल दिया|

श्री गुरु गोबिंद सिंह जी – साखियाँ - सोने का कड़ा गंगा नदी में फैंकना

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ॐ साँई राम जी




श्री गुरु गोबिंद सिंह जी – साखियाँ - सोने का कड़ा गंगा नदी में फैंकना

एक दिन गुरु गोबिंद सिंह जी गंगा में नाव की सैर कर रहे थे| सैर करते हुए आपके हाथ से सोने का कड़ा दरिया में गिर गया| आप जब घर पहुँचे तो माता जी ने आपसे पूछा बेटा! आपका कड़ा कहाँ है? तब आपने माता जी को उत्तर दिया, माता जी! वह दरिया में गिरकर खो गया है|

माता जी फिर से पूछने लगी कि बताओ कहाँ गिरा है? गुरु जी माता जी को लेकर गंगा नदी के किनारे आ गए| उन्होंने अपने दूसरे हाथ का कड़ा भी उतारकर पानी में फैंक कर कहा कि यहाँ गिरा था| आप की यह लापरवाही देख कर माता जी को गुस्सा आया| वह उन्हें घर ले आई|

घर आकर गुरु जी ने माता जी को बताया कि माता जी! इन हाथों से ही अत्याचारियों का नाश करके गरीबों की रक्षा करनी है| इनके साथ ही अमृत तैयार करके साहसहीनों में शक्ति भरकर खालसा साजना है| यदि इन हाथों को माया के कड़ो ने जकड़ लिया, तो फिर यह काम जो अकाल पुरख ने करने की हमें आज्ञा की है वह किस तरह पूरे होंगे? जुल्म को दूर करने के लिए इन हाथों को लोहे जैसे शक्तिशाली मजबूत करने के लिए लोहे का कड़ा पहनना उचित है| अतः खालसा पंथ सजाकर आपने सिखों को लोहे का कड़ा ही पहनने का हुक्म किया, जो जगत प्रसिद्ध है|

गंगा नदी के जिस घाट पर आप जी खेलते व स्नान करते थे, उसका नाम गोबिंद घाट प्रसिद्ध है| 

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 2

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 ॐ सांई राम



आप सभी को शिर्डी के साईं बाबा ग्रुप की ओर से साईं-वार की हार्दिक शुभ कामनाएं |

हम प्रत्येक साईं-वार के दिन आप के समक्ष बाबा जी की जीवनी पर आधारित श्री साईं सच्चित्र का एक अध्याय प्रस्तुत करने के लिए श्री साईं जी से अनुमति चाहते है |

हमें आशा है की हमारा यह कदम घर घर तक श्री साईं सच्चित्र का सन्देश पंहुचा कर हमें सुख और शान्ति का अनुभव करवाएगा| किसी भी प्रकार की  त्रुटी के लिए हम सर्वप्रथम श्री साईं चरणों में क्षमा याचना करते है|

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 2

ग्रन्थ लेखन का ध्येय, कार्यारम्भ में असमर्थता और साहस, गरमागरम बहस, अर्थपूर्ण उपाधि हेमाडपन्त, गुरु की आवश्यकता । 
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गत अध्याय में ग्रन्थकार ने अपने मौलिक ग्रन्थ श्री साई सच्चरित्र (मराठी भाषा) में उन कारणों पर प्रकाश डाला था, जिननके दृारा उन्हें ग्रन्थरतना के कार्य को आरन्भ करने की प्रेरणा मिली । अब वे ग्रन्थ पठन के योग्य अधिकारियों तथा अन्य विषयों का इस अध्याय में विवेचन करते हैं ।



ग्रन्थ लेखन का हेतु
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किस प्रकार विषूचिका (हैजा) के रोग के प्रकोप को आटा पिसवाकर तथा उसको ग्राम के बाहर फेमककर रोका तथा उसका उन्मूलन किया, बाबा की इस लीला का प्रथम अध्याय में वर्णन किया जा चुका है । मैंने और भी लीलाएँ सुनी, जिनसे मेरे हृदत को अति आनंद हुआ और यही आनंद का स्त्रोत काव्य (कविता) रुप में प्रकट हुआ । मैंने यह भी सोचा कि इन महान् आश्चर्ययुक्त लीलाओं का वर्णन बाबा के भक्तों के लिये मनोरंजक इवं शिक्षाप्रद सिदृ होगा तथा उनके पाप समूल नष्ट हो जायेंगे । इसलिये मैंने बाबा की पवित्र गाथा और मधुर उपदेशों का लेखन प्रारम्भ कर दिया । श्री साईं की जीवनी न तो उलझनपूर्ण और न संकीर्ण ही है, वरन् सत्य और आध्यात्मिक मार्ग का वास्तविक दिग्दर्शन कराती है ।

कार्य आरम्भ करने में असमर्थता और साहस
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श्री हेमाडपन्त को यह विचार आया कि मैं इस कार्य के लिये उपयुक्त पात्र नहीं हूँ । मैं तो अपने परम मित्र की जीनी से भी भली भाँति परिचित नहीं हूँ और न ही अपनी प्रकृति से । तब फिर मुझ सरीखा मूढ़मति भला एक महान् संतपुरुष की जीवनी लिखने का दुस्साहस कैसे कर सकता है । अवतारों की प्रकृति के वर्णन में वेद भी अपनी असमर्थता प्रगट करते हैं । किसी सन्त का चरित्र समझने के लिये स्वयं को पहले सन्त होना नितांत आवश्यक है । फिर मैं तो उनका गुणगान करने के सर्वथा अयोगमय ही हूँ । संत की जीवनी लिखना एक महान् कठिन कार्य है, जिसकी तुलना में सातों समुद्र की गहराई नापना और आकाश को वस्त्र से ढकना भी सहज है । यह मुझे भली भरणति ज्ञात था कि इस कार्य का आरम्भ करनेके लिये महान् साहस की आवश्यकता है और कहीं ऐसा न हो कि चार लोगों के समक्ष हास्य का पात्र बनना पड़े, इसीलिये श्री साईं बाबा की कृपा प्राप्त करने के लिये मैं ईश्वर से प्रार्थना करने लगा ।
महाराष्ट्र के संतश्रेष्ठ श्री ज्ञानेश्वर महाराज के कथन है कि संतचरित्र के रचयिता से परमात्मा अति प्रसन्न होता है । तुलसीदास जी ने भी कहा है कि-साधुचरित शुभ सरिस कपासू । निरस विषद गुणमय फल जासू ।। जो सहि दुःख पर छिद्र दुरावा । वंदनीय जेहि जग जस पावा ।। भक्तों को भी संतों की सेवा करने की इच्छा बनी रहती है । संतों की कार्य पूर्ण करा लेने की प्रणाली भी विचित्र ही है । यथार्थ प्रेरणा तो संत ही किया करते हैं, भक्त तो निमित्त मात्र, या कहिये कि कार्य पूर्ति के लिये एक यंत्र मात्र है । उदाहरणार्थ शक सं. 1700 में कवि महीपति को संत थरित्र लेखन की प्रेरणा हुई । संतों ने अंतःप्रेरणा की और कार्य पूर्ण हो गया । इसी प्रकार शक सं. 1800 में श्री दासगणू की सेवा स्वीकार हुई । महीपति ने चार काव्य रचे – भक्तविजय, संतविजय, भक्तलीलामृत और संतलीलामृत और दासगणू ने केवल दो – भक्तलीलामृत और संतकथामृत – जिसमें आधुनिक संतों के चरित्रों कावर्णन है । भक्तलीलामृत के अध्याय 31, 32, और 33 तथा संत कथामृत के 57 वें अध्याय में श्री साई बाबा की मधुर जीवनी तथा अमूल्य उपदेशों का वर्णन सुन्दर एवं रोचक ढ़ंग से किया गया है । पाठकों से इनके पठन का अनुरोध है । इसी प्रकार श्री साई बाबा की अद्भभुत लीलाओं का वर्णन एक बहुत सुन्दर छोटी सी पुस्तिका - श्री साई बाबा भजनमाला में किया गया है । इसकी रचना बान्द्रा की श्रीमती सावित्रीबाई रघुनाथ तेंडुलकर ने की है ।
श्री दासगणू महाराज ने भी श्री साई बाबा पर कई मधुर कविताओं की रचना की है । एक और भक्त अमीदास भवानी मेहता ने भी बाबा की कुथ कथाओ को गुजराती में प्रकाशित किया है । साई प्रभा नामक पत्रिका में भी कुछ लीलाएँ शिरडी के दक्षिणा भिक्षा संस्थान दृारा प्रकाशित की गई है । अब प्रश्न यह उठता हैं कि जब श्री साईनाथ महाराज के जीवन पर प्रकाश डालने वाला इतना साहित्य उपलब्ध है, फिर ौर एक ग्रन्थ साई सच्चरित्र रचने की आवश्यकता ही कहाँ पैदा होती है । इसका उत्तर केवल यही है कि श्री साई बाबा की जीवनी सागर के सदृश अगाध, विस्तृत और अथाह है । यति ुसमें गहरे गोता लगाया जाय तो ज्ञान एवं भक्ति रुपी अमूल्य रत्नों की सहज ही प्राप्ति हो सकती है, जिनसे मुमुक्षुओं को बहुत लाभ होगा । श्री साई बाबा की जीवनी, उनके दृष्टान्त एवं उपदेश महान् आश्चर्य से परिपूर्ण है । दुःख और दुर्भाग्यग्रस्त मानवों को इनसे शान्ति और सुख प्राप्त होगा तथा लोक व परलोक मे निःश्रेयस् की प्राप्ति होगी । यदि श्री साई बाबा के उपदेशो का, जो वैदिक शिक्षा के समान ही मनोरंजक और शिक्षाप्रद है, ध्यानपूर्वक श्रवण एवं मनन किया जाये तो भक्तों को अपने मनोवांछित फल की प्राप्ति हो जायेगी , अर्थात् ब्रहम से अभिन्नता, अष्टांग योग की सिदिृ और समाधि आनन्द आदि की प्राप्ति सरलता से हो जायगी । यह सोचकर ही मैंने चरित्र की कथाओं को संकलित करना प्रारम्भ कर दिया । साथ ही यह विचार भी आया कि मेरे लिये सबसे उत्तम साधना भी केवल यही है । जो भोले-भाले प्राणी श्री साई बाबा के दर्शनों सो अपने नेत्र सफल करने के सौभाग्य से वंचित रहे है, उन्हें यह चरित्र अति आनन्ददायक प्रतीत होगा । अतः मैंने श्री साई बाबा के उपदेश और दृषटान्तों की खोज प्रारम्भ कर दी, जो कि उनकी असीम सहज प्राप्त आत्मानिभूतियों का निचोड़ था । मुझे बाबा ने प्रेरणा दी और मैंने भी अपना अहंकार उनके श्री चरणों पर न्योछावर कर दिया । मैने सोचा कि अब मेरा पथ अति सुगम हो गया है और बाबा मुझे इहलोक और परलोक में सुखी बना देंगे ।
मैं स्वंय बाब की आज्ञा प्राप्त करने का साहस नहीं कर सकता था । अतः मैंने श्री माधवराव उपनाम शामा से, जो कि बाब के अंतरंग भक्तों में से थे, इस हेतु प्रार्थना की । उन्होंने इस कार्य के निमित्त श्री साई बाबा से विनम्र शब्दों में इस प्रकार प्रार्थना की कि ये अण्णासाहेब आपकी जीवनी लिखने के लिये अति उत्सुक है । परन्तु आप कृपया ऐसा न कहना कि मैं तो एक फकीर हूँ तथा मेरी जीवनी लिखने की आवश्यकता ही क्या है । आपकी केवल कृपा और अनुमति से ही ये लिख सकेंगें, अथवा आपके श्री चरणों का पुण्यप्रताप ही इस कार्य को सफल बना देगा । आपकी अनुमति तथा आशीर्वाद के अभाव में कोई भी करर्य यशस्वी नहीं हो सकता । यह प्रार्थना सुनकर बाबा को दया आ गई । उन्होंने आश्वासन और उदी देकर अपना वरद-हस्त मेरे मस्तक पर रखा और कहने लगे कि इन्हें जीवनी और दृष्टान्तों को एकत्रित कर लिपिबदृ करने दो, मैं इनकी सहायता करुगाँ । मैं स्वयं ही अपनी जीवनी लिखकर भक्तों की इच्छा पूर्ण करुगाँ । परंतु इनको अपना अहं त्यागकर मेरी शरण में आना चाहिये । जो अपने जीलन में इस प्रकार आचरण करता है, उसकी मैं अत्यधिक सहायता करता हूँ । मेरी जीवन-कथाओं की बात तो हज है, मैं तो इन्हें घर बैठे अनेक प्रकार से सहायता पहुँचाता हूँ । जब इनका अहं पूर्णताः नष्ट हो जायेगा और खोजनेपर लेशमात्र भी न मिलेगा, तब मैं इनके अन्तःकरण में प्रगट होकर स्वयं ही अपनी जीवनी लिखूँगा । मेरे चरित्र और उपदेशों के श्रवण मात्र से ही भक्तों के हृदय में श्रदृा जागृत होकर सरलतापूर्वक आत्मानुभूति एवं परमानंद की प्राप्ति हो जायेगी । ग्रन्थ में अपने मत का प्रतिपादन और दूसरो का खमडन तथा अन्य किसी विषय के पक्ष या विपक्ष में व्यर्थ के वादविवाद की कुचेष्टा नहीं होनी चाहिये ।

अर्थपूर्ण उपाधि हेमाडपंत
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वादविवाद शब्द से हमको स्मरण हो आया कि मैंने पाठको को वचन दिया है कि हेमाडपंत उपाधि किस प्रकार प्राप्त हुई, इसका वर्णन करुँगा । अब मैं उसका वर्णन करता हूँ ।
श्री काकासाहेब दीक्षित व नानासाहेब चांदोरकर मेरे अति घनिष्ठ मित्रों में से थे । उन्होंने मुझसे शिरडी जाकर श्री साई बाबा के दर्शनें का लाभ उठाने का अनुरोध किया । मैंनें उन्हे वचन दिया, परन्तु कुछ बाधा आ जाने के कारण मेरी ळिरडी-यात्रा स्थगित हो गई । मेरे एक घनिष्ठ मित्र का पुत्र लोनावला में रोगग्रस्त हो गया था । उन्होंने सभी सम्भव आधिभौतिक और आध्यात्मिक उपचार किये, परन्तु सभी प्रत्यन निष्फल हुए और ज्वर किसी प्रकार भी कम न हुआ । अन्त में उन्होंने अपने गुरुदेव को उसके सिरहाने ज्वर बिठलाया, परंतु परिणैस पूर्ववत् ही हुआ । यह घटना देखकर मुझे विचार आया कि जब गुरु एक बालक के प्राणों की भी रक्षा करने में असमर्थ है, तब उनकी उपयोगिता ही क्या है । और जब उनमें कोई सामर्थय ही नही, तब फिर शिरडी जाने से क्या प्रयोजन । ऐसा सोचकर मैंने अपनी यात्रा स्थगित कर दी । परंतु जो होनहार है, वह तो होकर ही पहेगा और वह इस प्रकार हुआ । प्रामताधिकारी नानासाहेब चांदोरकर बसई को दौरेपर जा रहे थे । वे ठाणा से दादर पहुँचे तथा बसई जाने वाली गाड़ी की प्रतीक्षा कर रहे थे । उसी समय बांद्रा लोकल आ पहुँची, जिसमें बैठकर वे बांद्रा पहुँचे तथा शिरडीयात्रा स्थगित करने के लिये मुझे आड़े हाथों लिया । नानासाहेब का तर्क मुझे उचित तथा सुखदायी प्रतीत हुआ और इसके फलस्वरुप मैंने उसी रात्रि शिरडी जाने का निश्चय किया और सामान बाँधकर शिरडी को प्रस्थान कर दिया । मैंनें सीधे दादर जाकर वहाँ से मनमाड की गाड़ी पकड़ने का कार्यक्रम बनाया । इस निश्चय के अनुसार मैंने दादर जाने वाली गाड़ी के डिब्बे में प्रवेश किया । गाड़ी छूटने ही वाली थी कि इतने में एक यवन मेरे डिब्बे में आया और मेरा सामान देखकर मुझसे मेरा गन्तव्य स्थान पूछने लगा । मैंनें अपना कार्यक्रम उसे बतला दिया । उसने मुझसे कहा कि मनमाड की गाड़ी दादर पर खड़ी नहीं होता, इसलिये सीधे बोरीबन्दर से होकर जाओ । यदि यह एक साधारण सी घटना घटित न हुई होती तो मैं अपने कार्यक्रम के अनुसार दूसरे दिन शिरडी न पहुँच सकने के कारण अनेक प्रकार की शंका-कुशंकाओ से घिर जाता । परंतु ऐसा घटना न था । भाग्य ने साथ दिया और दूसरे दिन 9-10 बजे के पूर्वही मैं शिरडी पहुँच गया । यह सन् 1910 की बात है, जब प्रवासी भक्तों के ठहरने के लिये साठेवाड़ा ही एकमात्र स्थान था । ताँगे से उतरने पर मैं साईबाबा के दर्शनों के लिये बड़ा लालायित था । उसी समय भक्तप्रवर श्री तात्यासाहेब नूलकर मसजिद से लौटे ही थे । उन्होंने बतलाया कि इस समय श्री साईबाबा मसजिद की मोंडपर ही हैं । अभी केवल उनका प्रारम्भिक दर्शन ही कर लो और फिर स्नानादि से निवृत होने के पश्चात, सुविधा से भेंट करने जाना । यह सुनते ही मैं दौड़कर गया और बाबा की चरणवन्दना की । मेरी प्रसन्नता का पारावार न रहा । मुझे क्या नहीं मिल गया था । मेरा शरीर उल्लसित सा हो गया । क्षुधा और तृषा की सुधि जाती रही । जिस क्षण से उनके भवविनरशक चरणों का स्पर्श प्रार्त हुआ, मेरे जीवन के दर्शनार्थ पर्ेरणग, प्रोत्साहन और सहायता पहुँचाई, उनके प्रति मेरा हृदय बारम्बार कृतज्ञता अनुभव करने लगा । मैं उनका सदैव के लिये ऋणी हो गया । उनका यह उपकार मैं कभी भूल न सकूँगा । यथार्थ में वे ही मेरे कुटुम्बी हैं और उनके ऋण से मैं कभी भी मुक्त न हो सकूँगा । मैं सदा उनका स्मरण कर उन्हें मानसिक प्रणाम किया करता हूँ । जैसा कि मेरे अनुभव में आया कि साई के दर्शन में ही यह विशेषता है कि वितार परिवर्तन तथा पिछले कर्मों का प्रभाव शीघ्र मंद पड़ने लगता है और शनैः शनैः अनासक्ति और सांसारिक भोगों से वैराग्य बढ़ता जाता है । केवल गत जन्मों के अनेक शुभ संस्कार एकत्रित होनेपर ही ऐसा दर्शन प्राप्त होना सुलभ हो सकता है । पाठको, मैं आपसे शपथपूर्वक कहता हूँ कि यदि आप श्री साईबाबा को एक दृष्टि भरकर देख लेंगे तो आपको सम्पूर्ण विश्व ही साईमय दिखलाई पड़ेगा ।



गरमागरम बहस
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शिरडी पहुंतने के प्रथम दिन ही बालासाहेब तथा मेरे बीच गुरु की आवश्यकता पर वादविवाद छिड़ गया । मेरा मत था कि स्वतंत्रता त्यागकर पराधीन क्यों होना चाहिये तथा जब कर्म करना ही पड़ता है, तब गुरु की आवश्यकता ही कहां रही । प्रत्येक को पूर्ण प्रयत्न कर स्वयं को आगे बढ़ाना चाहिये । गुरु शिष्य के लिये करता ही क्या है । वह तो सुख से निद्रा का आनंद लेता है । इस प्रकार मैंने स्वतंत्रता का पक्ष लिया और बालासाहेब ने प्रारब्ध का । उन्होंने कहा कि जो विधि-लिखित है, वह घटित होकर रहेगा, इसमें उच्च कोटि के महापुरुष भी असफल हो गये हैं । कहावत है – मेरे मन कछु और है, धाता के कछु और । फिर परामर्शयुक्त शब्दों मे बोले भाई साहब, यह निरी विदृता छोड़ दो । यह अहंकार तुम्हारी कुछ भी सहायता न कर सकेगा । इस प्रकार दोनों पक्षों के खंडन-मंडन में लगभग एक घंटा व्यतीत हो गया और सदैव की भाँति कोई निष्कर्ष न निकल सका । इसीलिये तंग और विवष होकर विवाद स्थगित करनग पड़ा । इसका परिणाम यह हुआ कि मेरी मानसिक शांति भंग हो गई तथा मुझे अनुभव हुआ कि जब तक घोर दैहिक बुदृि और अहंकार न हो, तब तक विवाद संभव नहींं । वस्तुतः यह अहंकार ही विवाद की जड़ है ।
जब अन्य लोगों के साथ मैं मसजिद गया, तब बाबा ने काकासाहेब को संबोधित कर प्रश्न किया कि साठेबाड़ा में क्या चल रहा हैं । किस विषय में विवाद था । फिर मेरी ओर दृष्टिपात कर बोले कि इन हेमाडपंत ले क्या कहा । ये शब्द सुनकर मुझे अधिक अचम्भा हुआ । साठेबाड़ा और मसजिद में पर्याप्त अन्तर था । सर्वज्ञ या अंतर्यामि हुए बिना बाबा को विवाद का ज्ञान कैसे हो सकता था ।
मैं सोचने लगा कि बाबा हेमाडपंत के नाम से मुझे क्यों सम्बोधित करते हैं । यह शब्द तो हेमाद्रिपंत का अपभ्रंश है । हेमाद्रिपंत देवगिरि के यादव राजवंशी महाराजा महादेव और रामदेव के विख्यात मंत्री थे । वे उच्च कोटि के विदृान्, उत्तम प्रकृति और चतुवर्ग चिंतामणि (जिसमें आध्यात्मिक विषयों का विवेचन है ।) और राजप्रशस्ति जैसे उत्तम काव्यों के रचयिता थे । उन्होंने ही हिसाब-किताब रखने की नवीन प्रणाली को जन्म दिया था और कहाँ मैं इसके विपरीत एक अज्ञानी, मूर्ख और मंदमति हूँ । अतः मेरी समझ में यह न आ सका कि मुझे इस विशेष उपाधि से विभूषित करने का क्या तात्पर्य हैं । गहन विचार करने पर मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि कही मेरे अहंकार को चूर्ण करने के लिये ही तो बाबा ने इस अस्त्र का प्रयोग नहीं किया  है, ताकि मैं भविष्य में सदैव के लिए निरभिमानी एवं विनम्र हो जाऊँ, अथवा कहीं यह मेरे वाक्रचातुर्य के उपलक्ष में मेरी प्रशंसा तो नहीं है ।
भविष्य पर दृष्टिपात करने से प्रतीत होता है कि बाबा के दृारा हेमाडपंत की उपाधि से विभूषित करना कितना अर्थपूर्ण और भविष्यगोचर था । सर्वविदित है कि कालान्तर में दाभोलकर ने श्री साईंबाबा संस्थान का प्रबन्ध कितने सुचारु एवं विदृतापूर्ण ढ़ग से किया था । हिसाब-किताब आदि कितने उत्तम प्रकार से रखे तथा साथ ही साथ महाकाव्य साई सच्चरित्र की रचना भी की । इस ग्रन्थ में महत्त्वपूर्ण और आध्यात्मिक विषयों जैसे ज्ञान, भक्ति वैराग्य, शरणागति व आत्मनिवेदन आदि का समावेश है ।

गुरु की आवश्यकता
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इस विषय में बाबा ने क्या उद्गगार प्रकट किये, इस पर हेमाडपंत दृारा लिखित कोई लेख या स्मृतिपत्र प्राप्त नहीं है । परंतु काकासाहेब दीक्षित ने इस विषय पर उनके लेख प्रकाशित किये हैं ।
बाबा से भेंट करने के दूसरे दिन हेमाडपंत और काकासाहेब ने मसजिद में जाकर गृह लौटने की अनुमति माँगी । बाबा ने स्वीकृति दे दी ।


किसी ने प्रश्न किया – बाबा, कहाँ जायें ।

उत्तर मिला – ऊपर जाओ ।

प्रश्न – मार्ग कैसा है ।

बाबा – अनेक पंथ है । यहाँ से भी एक मार्ग है । परंतु यह मार्ग दुर्गम है तथा सिंह और भेड़िये भी मिलते है । 
काकासाहेब – यदि पथ प्रदर्शक भी साथ हो तो ।

बाबा – तब कोई कष्ट न होगा । मार्ग-प्रदर्शक तुम्हारी सिंह और भेड़िये और खन्दकों से रक्षा कर तुम्हें सीधे निर्दिष्ट स्थान पर पहुँचा देगा । परंतु उसके अभाव में जंगल में मार्ग भूलने या गड्रढे में गिर जाने की सम्भावना है । दाभोलकर भी उपर्युक्त प्रसंग के अवसर पर वहाँ उपस्थित थे । उन्होंने सोचा कि जो कुछ बाबा कह रहे है, वह गुरु की आवश्यकता क्यों है । इस प्रश्न का उत्तर है (साईलीला भाग 1, संख्या 5 व पृष्ठ 47 के अनुसार) । उन्होंने सदा के लिये मन में यह गाँठ बाँध ली कि अब कभी इस विषय पर वादविवाद नहीं करेंगे कि स्वतंत्र या परतंत्र व्यकति आध्यात्मिक विषयों के लिये कैसा सिदृ होगा । प्रत्युत इसके विपरीत यथार्थ में परमार्थ-लाभ केवल गुरु के उरदेश में किया गया है, जिसमें लिखा है कि राम और कृष्ण महान् अवतारी होते हुए भी आत्मानुभूति के लिये राम को अपने गुरु वसिष्ठ और कृष्ण को अपने गुरु सांदीपनि की शरण में जाना पड़ा था । इस मार्ग में उन्नति प्राप्त करने के लिये केवल श्रदृा और धैर्य-ये ही दो गुण सहायक हैं ।

।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

श्री गुरु गोबिंद सिंह जी - ज्योति ज्योत समाना

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ॐ साँई राम जी 




श्री गुरु गोबिंद सिंह जी - ज्योति ज्योत समाना

श्री गुरु गोबिंद सिंह जी दोनों समय दीवान लगाकर संगत को उपदेश देकर निहाल करते थे| इस समय दो युवक पठान भी दीवान में उपस्थित होकर श्रद्धा भाव से गुरु जी के वचन सुनते|

एक दिन शाम के समय जब गुरु जी अपने तम्बू में विश्राम कर रहे थे तो इनमें से एक पठान गुलखां ने समय ताड़ कर आप जी के पेट में कटार के दो वार कर दिए| गुरु जी ने शीघ्र ही अपने आप को सँभालते हुए उसका सिर एक वार से धड़ से अलग कर दिया| गुलखां का साथी रुस्तमखां जो तम्बू से बाहर खड़ा था उसे पहरेदारों ने मार दिया| इसके पश्चात सिंघो ने नादेड़ नगर से जराह को बुलाकर आपके जख्मों की मरहम पट्टी कराई| तथा रोज ही आप की आरोग्यता के लिए बाणी का पाठ व अरदास करने लगे| 

जब गुरु जी के जख्म गहरे होने के कारण ठीक होने की आशा न रही तो सिहों ने बेबस होकर प्रार्थना की कि सच्चे पातशाह! हमें आप किसके पास छोड़ कर सच्च खंड की तैयारी कर रहे हो? आपके पीछे हमारी रखवाली कौन करेगा|

सिहों की प्रार्थना सुनकर गुरु जी ने श्री गुरु ग्रंथ साहिब का प्रकाश करवाया तथा पांच तैयार सिंह हजूरी में खड़े करके आपने तीन परिक्रमा करके पांच पैसे व नारियल श्री गुरु ग्रंथ साहिब के आगे रखकर माथा टेक कर वचन किया कि आज से देहधारी गुरु का सिलसिला समाप्त करके इस वाणी को आत्म प्रकाश करने वाली बड़े गुरु साहिब तथा प्रभु के भक्तों ने उच्चारण की हुई है, गुरु नानक साहिब जी की गुरु गद्दी पर स्थापित कर दिया| हमारे बाद यह गुरु युगों-युग अटल रहेगा| जिसने हमारे आत्मिक दर्शन करने हों, वह इस शब्द गुरु के दर्शन करे और जिसने हमारे पांच भूतक शरीर के दर्शन करने हों, तो वह हमारे तैयार बर तैयार खालसे के दर्शन करे| 

संवत 1765 वाले दिन कार्तिक सुदी को आप जी ने खालसा पंथ को श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी के सम्मुख करके यह वचन किया| 

दोहरा || 

गुरु ग्रंथ जी मानिओ प्रगट गुरां की देह ||
जो प्रभ को मिलबो चहै खोज शबद में लेह ||

गुरु स्थापना की मर्यादा करके गुरु जी ने सिहों को हुक्म दिया कि हमारा अंगीठा तैयार करो तथा उसके चारों तरफ कनात लगा दो| सिक्खों ने वैसा ही किया|

गुरु जी ने सिहों को बड़ा उदास देखा और प्रेम से वचन किया हे प्यारे सिहों! अकाल पुरख के नियम के अनुसार यह अस्थूल शरीर मिलते और बिछड़ते रहते हैं| इनका प्यार कभी नहीं निभता| श्री गुरु ग्रंथ साहिब की बाणी हमारा ह्रदय है| रात दिन इनके मिलने से प्रभु के गुणों को अपने मन में जोड़ना| इनकी उपस्थिति में पांच सिंह जो हुक्म करेगें, उसे गुरु का हुक्म मानकर स्वीकार करना|

गुरबाणी का पाठ और शास्त्रों का अभ्यास करना| गुरु साहिब का इतिहास सुनना| पांच रहितवान सिहों को मेरा रूप समझना| जो श्रद्धा से पांच सिहों से अरदास कराएगा, उसके सभी मनोरथ पूरे होंगे| 

सिहों को धैर्य उपदेश देकर जब आदी रात बीत गई तो आप जी ने पहले "जपुजी साहिब"फिर - 

"हरि हरि जन दुइि ऐक हैं || 
बिब बिचार किछु नाहि || 
जल ते उपज तरंगि||
ज्यों जल ही बिखै समाहि ||"


आदि पांच दोहरे पढ़कर अरदास की और इसके पश्चात मखमल का कमर कस्सा करके किरपान, धनुष, तीर तथा हाथ में बंदूक पकड़कर सिख वीरो को हाथ जोड़कर "वाहिगुरू जी का खालसा || वाहिगुरू जी की फतहि ||"बुलाई| इस समय सिक्ख संगत सेजल नेत्रों से आपको नमस्कार करने लगी, तो उनको आपके शरीर की कोई छुह प्राप्त न हुई| मगर शरीर करके आपके दर्शन सबको हो रहे थे| इस कौतक को अनुभव करके सब संगत ने हाथ जोड़कर धरती पर शीश रखकर आप जी को नमस्कार किया|

अन्तिम समय आप जी ने अपने सिहों को कहा कि अब तुम सब अपने-अपने घर चले जाना और जथेदार संतोख सिंह को आज्ञा की कि तुम यहाँ रहकर हमारे स्थान की सेवा करनी| जो धन आ जाए उससे लंगर चलाना|

यह वचन करके आप जी कनात अन्दर चले गए और चिखा ऊपर चौकड़ा मारकर बैठ गए| इसके पश्चात चिखा को अग्नि प्रचंड करा कर ज्योति में ज्योत मिलाकर अनंत में लीन हो गए|

भक्त मीरा बाई जी जीवन परिचय

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ॐ साँई राम जी




भक्त मीरा बाई जी

राजस्थान की भूमि साहस व शौर्य के लिए प्रसिद्ध है| भारत में हुए साठ प्रतिशत युद्ध इसी राज्य की जमीन पर हुए| युद्धों की इस भूमि पर प्रेम की मूर्ति भी अवतरित हुई जिसका नाम था मीरा

परिचय:

मीरा का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं| वह श्री कृष्ण जी की अनन्य भक्त थी| मीरा का जन्म 1498 में हुआ| इनके पिता मेड़ता के राजा थे| जब मीरा बाई बहुत छोटी थी तो उनकी माता ने श्री कृष्ण जी को यू ही उनका दूल्हा बता दिया| इस बात को मीरा जी सच मान गई| उन पर इस बात का इतना प्रभाव पड़ा कि वह श्री कृष्ण जी को ही अपना सब कुछ मान बैठी| 

जवानी की अवस्था में पहुँचने पर भी उनके प्रेम में कमी नहीं आई| ओर युवतियों की तरह वह भी अपने पति को लेकर विभिन्न कल्पनाएँ करती| परन्तु उनकी कल्पनाएँ, उनके सपने श्री कृष्ण जी से आरम्भ होकर उन्ही पर ही समाप्त हो जाते|

समय बीतता गया| मीरा जी का प्यार कृष्ण के प्रति और बढता गया| 1516 ई० में मीरा का विवाह मेवाड़ के राजकुमार भोजराज से कर दिया गया| वे मीरा के प्रति स्नेह का भाव रखते थे परन्तु मीरा का ह्रदय माखन चोर ने चुरा लिया था| वह अपने विवाह के बाद भी श्री कृष्ण की आराधना न छोड़ सकी| वह कृष्ण को ही अपना पति समझती और वैरागिनो की तरह उनके भजन गाती| मेवाड़ के राजवंश को यह कैसे स्वीकार हो सकता था कि उनकी रानी वैरागिनी की तरह जीवन व्यतीत करे| उन्हें मरने की साजिशे रची जाने लगी| मीरा की भक्ति, प्रेम निश्छल था इसलिए विष भी अमृत हो गया| उन्होंने अपना पूरा जीवन कृष्ण को ही समर्पित कर दिया| उनका कहना था -


मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरों न कोई| 
जाके सिर मोर मुकट मेरो पति सोई|| 

तात मात भ्रात बंधु आपनो न कोई| 
छाड़ि दई कुलकि कानि कहा करिहै कोई|| 


मीरा ने गुरु के विषय में कहा है कि बिना गुरु धारण किए भक्ति नहीं की जा सकती| भक्तिपूर्ण व्यक्ति ही प्रभु प्राप्ति का भेद बता सकता है वही सच्चा गुरु है| स्वयं मीरा के पद से पता चलता है कि उनके गुरु रविदास थे|


नहिं मैं पीहर सासरे, नहिं पियाजी री साथ| 
मीरा ने गोबिन्द मिल्या जी, गुरु मिलिया रैदास|| 


उन्होंने धार्मिक मान्यताओं के विरुद्ध शूद्र गुरु रविदास की भक्ति की|साधु - संतो की संगत की| 

मीरा की मृत्यु के बारे में अलग-अलग मत हैं| 

· लूनवा के भूरदान ने मीरा की मौत 1546 में बताई| 

· रानीमंगा के भाट ने मीरा की मौत 1548 में बताई|

· डा० शेखावत अपने लेख और खोज के अधार पर मीरा की मौत 1547 में बताते हैं|
हरमेन गोएटस ने मीरा के द्वारका से गायब होने की कड़ियों को जोड़ने का प्रयास किया परन्तु वह मौलिक नहीं| उनके अनुसार वह द्वारका के बाद उत्तर भारत में भ्रमण करती रही| उसने भक्ति व प्रेम का संदेश सब जगह पहुँचाया| चित्तौड़ के शासक कर्मकांड व राजसी वैभव में डूबकर उसे भूल चुके थे| किसी ने उसे ढूँढने का प्रयास नहीं किया| 

अपने पांच वर्ष की अवस्था में मीरा ने गिरधर का वरण किया और उसी दिव्यमूर्ति में विलीन हो गई| धन्य है वह प्रेम की मूर्ति! जिसने दैविक प्रेम का ऐसा उदाहरण दिया कि बड़े-बड़े संत, भक्त की चमक भी धीमी पड़ गई|
साहितिक देन:

मीरा जी ने विभिन्न पदों व गीतों की रचना की| मीरा के पदों मे ऊँचे अध्यात्मिक अनुभव हैं| उनमे समाहित संदेश और अन्य संतो की शिक्षा मे समानता नजर आती हैं| उनके प्रप्त पद उनकी अध्यात्मिक उन्नति के अनुभवों का दर्पण हैं| मीरा ने अन्य संतो की तरह कई भाषाओं का प्रयोग किया है जैसे - 
हिन्दी, गुजरती, ब्रज, अवधी, भोजपुरी, अरबी, फारसी, मारवाड़ी, संस्कृत, मैथली और पंजाबी|

भावावेग, भावनाओं की मार्मिक अभिव्यक्ति, प्रेम की ओजस्वी प्रवाहधारा, प्रीतम वियोग की पीड़ा की मर्मभेदी प्रखता से अपने पदों को अलंकृत करने वाली प्रेम की साक्षात् मूर्ति मीरा के समान शायद ही कोई कवि हो|

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