Quantcast
Channel: Shirdi Ke Sai Baba Group (Regd.)
Viewing all 4286 articles
Browse latest View live

श्री साई सच्चरित्र – अध्याय-1

$
0
0
 सांई राम





आप सभी को शिर्डी के साईं बाबा ग्रुप की ओर साईंवार की हार्दिक शुभ कामनाएं , हम प्रत्येक साईवार के दिन आप के समक्ष बाबा जी की जीवनी पर आधारित श्री साईं सच्चित्र का एक अध्याय प्रस्तुत करने के लिए श्री साईं जी से अनुमति चाहते है , हमें आशा है की हमारा यह कदम घर घर तक श्री साईं सच्चित्र का सन्देश पंहुचा कर हमें सुख और शान्ति का अनुभव करवाएगाकिसी भी प्रकार की त्रुटी के लिए हम सर्वप्रथम श्री साईं चरणों में क्षमा याचना करते है... 


श्री साई सच्चरित्र – अध्याय-1
गेहूँ पीसने वाला एक अद्भभुत सन्त वन्दना - गेहूँ पीसने की कथा तथा उसका तात्पर्य
----------------------------------
पुरातन पद्घति के अनुसार श्री हेमाडपंत श्री साई सच्चरित्र का आरम्भ वन्दना करते हैं 

1.
प्रथम श्री गणेश को साष्टांग नमन करते हैंजो कार्य को निर्विध समाप्त कर उस को यशस्वी बनाते हैं कि साई ही गणपति हैं 


2.
फिर भगवती सरस्वती कोजिन्होंने काव्य रचने की प्रेरणा दी और कहते हैं कि साई भगवती से भिन्न नहीं हैंजो कि स्वयं ही अपना जीवन संगीत बयान कर रहे हैं 


3.
फिर ब्रहाविष्णुऔर महेश कोजो क्रमशः उत्पत्तिसि्थति और संहारकर्ता हैं और कहते हैं कि श्री साई और वे अभिन्न हैं  वे स्वयं ही गुरू बनकर भवसहगर से पार उतार देंगें 


4.
फिर अपने कुलदेवता श्री नारायण आदिनाथ की वन्दना करते हैं  जो कि कोकण में प्रगट हुए  कोकण वह भूमि हैजिसे श्री परशुरामजी ने समुद् से निकालकर स्थापित किया था  तत्पश्चात् वे अपने कुल के आदिपुरूषों को नमन करते हैं 


5.
फिर श्री भारदृाज मुनि कोजिनके गोत्र में उनका जन्म हुआ  पश्चात् उन ऋषियों को जैसे-याज्ञवल्क्यभृगुपाराशरनारदवेदव्याससनक-सनंदनसनत्कुमारशुकशौनकविश्वामित्रवसिष्ठवाल्मीकिवामदेवजैमिनीवैशंपायननव योगींद्इत्यादि तथा आधुनिक सन्त जैसे-निवृतिज्ञानदेवसोपानमुक्ताबाईजनार्दनएकनाथनामदेवतुकारामकान्हानरहरि आदि को नमन करते हैं 


6.
फिर अपने पितामह सदाशिवपिता रघुनाथ और माता कोजो उनके बचपन में ही गत हो गई थीं  फिर अपनी चाची कोजिन्होंने उनका भरण-पोषण किया और अपने प्रिय ज्येष्ठ भ्राता को नमन करते हैं 


7.
फिर पाठकों को नमन करते हैंजिनसे उनकी प्रार्थना हैं कि वे एकाग्रचित होकर कथामृत का पान करें 


8.
अन्त में श्री सच्चिददानंद सद्रगुरू श्री साईनाथ महाराज कोजो कि श्री दत्तात्रेय के अवतार और उनके आश्रयदाता हैं और जो ब्रहा सत्यं जगनि्मथ्या का बोध कराकर समस्त प्राणियों में एक ही ब्रहा की व्यापि्त की अनुभूति कराते हैं 
 श्री पाराशरव्यासऔर शांडिल्य आदि के समान भक्ति के प्रकारों का संक्षेप में वर्णन कर अब ग्रंथकार महोदय निम्नलिखित कथा प्रारम्भ करते हैं 


गेहूँ पीसने की कथा
-----------------------


सन् 1910 में मैं एक दिन प्रातःकाल श्री साई बाबा के दर्शनार्थ मसजिद में गया  वहाँ का विचित्र दृश्य देख मेरे आश्चर्य का ठिकाना  रहा कि साई बाबा मुँह हाथ धोने के पश्चात चक्की पीसने की तैयारी करने लगे  उन्होंने फर्श पर एक टाट का टुकड़ा बिछाउस पर हाथ से पीसने वाली चक्की में गेहूँ डालकर उन्हें पीसना आरम्भ कर दिया  मैं सोचने लगा कि बाबा को चक्की पीसने से क्या लाभ है  उनके पास तो कोई है भी नही और अपना निर्वाह भी भिक्षावृत्ति दृारा ही करते है  इस घटना के समय वहाँ उपसि्थत अन्य व्यक्तियों की भी ऐसी ही धोरणा थी  परंतु उनसे पूछने का साहस किसे था  बाबा के चक्की पीसने का समाचार शीघ्र ही सारे गाँव में फैल गया और उनकी यह विचित्र लीला देखने के हेतु तत्काल ही नर-नारियों की भीड़ मसजिद की ओर दौड़ पडी़  उनमें से चार निडर सि्त्रयां भीड़ को चीरता हुई ऊपर आई और बाबा को बलपूर्वक वहाँ से हटाकर हाथ से चक्की का खूँटा छीनकर तथा उनकी लीलाओं का गायन करते हुये उन्होंने गेहूँ पीसना प्रारम्भ कर दिया  पहिले तो बाबा क्रोधित हुएपरन्तु फिर उनका भक्ति भाल देखकर वे षान्त होकर मुस्कराने लगे  पीसते-पीसते उन सि्त्रयों के मन में ऐसा विचार आया कि बाबा के  तो घरदृार है और  इनके कोई बाल-बच्चे है तथा  कोई देखरेख करने वाला ही है  वे स्वयं भिक्षावृत्ति दृारा ही निर्वाह करते हैंअतः उन्हें भोजनाआदि के लिये आटे की आवश्यकता ही क्या हैं  बाबा तो परम दयालु है  हो सकता है कि यह आटा वे हम सब लोगों में ही वितरण कर दें  इन्हीं विचारों में मगन रहकर गीत गाते-गाते ही उन्होंने सारा आटा पीस डाला  तब उन्होंने चक्की को हटाकर आटे को चार समान भागों में विभक्त कर लिया और अपना-अपना भाग लेकर वहाँ से जाने को उघत हुई  अभी तक शान्त मुद्रा में निमग्न बाब तत्क्षण ही क्रोधित हो उठे और उन्हें अपशब्द कहने लगेसि्त्रयों क्या तुम पागल हो गई हो  तुम किसके बाप का माल हडपकर ले जा रही हो  क्या कोई कर्जदार का माल हैजो इतनी आसानी से उठाकर लिये जा रही हो  अच्छाअब एक कार्य करो कि इस अटे को ले जाकर गाँव की मेंड़ (सीमापर बिखेर आओ  मैंने शिरडीवासियों से प्रश्न किया कि जो कुछ बाबा ने अभी किया हैउसका यथार्थ में क्या तात्पर्य है  उन्होने मुझे बतलाया कि गाँव में विषूचिका (हैजाका जोरो से प्रकोप है और उसके निवारणार्थ ही बाबा का यह उपचार है  अभी जो कुछ आपने पीसते देखा थावह गेहूँ नहींवरन विषूचिका (हैजाथीजो पीसकर नष्ट-भ्रष्ट कर दी गई है  इस घटना के पश्चात सचमुच विषूचिका की संक्रामतकता शांत हो गई और ग्रामवासी सुखी हो गये 

यह जानकर मेरी प्रसन्नता का पारावार  रहा  मेरा कौतूहल जागृत हो गया  मै स्वयं से प्रश्न करने लगा कि आटे और विषूचिका (हैजारोग का भौतिक तथा पारस्परिक क्या सम्बंध है  इसका सूत्र कैसे ज्ञात हो  घटना बुदिगम्य सी प्रतीत नहीं होती  अपने हृतय की सन्तुष्टि के हेतु इस मधुर लीला का मुझे चार शब्दों में महत्व अवश्य प्रकट करना चाहिये  लीला पर चिन्तन करते हुये मेरा हृदय प्रफुलित हो उठा और इस प्रकार बाब का जीवन-चरित्र लिखने के लिये मुझे प्रेरणा मिली  यह तो सब लोगों को विदित ही है कि यह कार्य बाबा की कृपा और शुभ आशीर्वाद से सफलतापूर्वक सम्पन्न हो गया  आटा पीसने का तात्पर्य
---------------------------





शिरडीवासियों ने इस आटा पीसने की घटना का जो अर्थ लगायावह तो प्रायः ठीक ही हैपरन्तु उसके अतिरिक्त मेरे विचार से कोई अन्य भी अर्थ है  बाब शिरड़ी में 60 वर्षों तक रहे और इस दीर्घ काल में उन्होंने आटा पीसने का कार्य प्रायः प्रतिदिन ही किया  पीसने का अभिप्राय गेहूँ से नहींवरन् अपने भक्तों के पापोदुर्भागयोंमानसिक तथा शाशीरिक तापों से था  उनकी चक्की के दो पाटों में ऊपर का पाट भक्ति तथा नीचे का कर्म था  चक्की का मुठिया जिससे कि वे पीसते थेवह था ज्ञान  बाबा का दृढ़ विश्वास था कि जब तक मनुष्य के हृदय से प्रवृत्तियाँआसक्तिघृणा तथा अहंकार नष्ट नहीं हो जातेजिनका नष्ट होना अत्यन्त दुष्कर हैतब तक ज्ञान तथा आत्मानुभूति संभव नहीं हैं  यह घटना कबीरदास जी की उसके तदनरुप घटना की स्मृति दिलाती है  कबीरदास जी एक स्त्री को अनाज पीसते देखकर अपने गुरू निपतिनिरंजन से कहने लगे कि मैं इसलिये रुदन कर रहा हूँ कि जिस प्रकार अनाज चक्की में पीसा जाता हैउसी प्रकार मैं भी भवसागर रुपी चक्की में पीसे जाने की यातना का अनुभव कर रहा हूँ  उनके गुरु ने उत्तर दिया कि घबड़ाओ नहीचक्की के केन्द्र में जो ज्ञान रुपी दंड हैउसी को दृढ़ता से पकड़ लोजिस प्रकार तुम मुझे करते देख रहे हो  उससे दूर मत जाओबसकेन्द्र की ओप ही अग्रसर होते जाओ और तब यह निशि्चत है कि तुम इस भवसागर रुपी चक्की से अवश्य ही बच जाओगे 

।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु  शुभं भवतु ।।

श्री गुरु राम दास जी – साखियाँ - सिद्धों से चर्चा

$
0
0
श्री गुरु राम दास जी – साखियाँ - सिद्धों से चर्चा



एक बार सिद्ध योगियों का समूह भ्रमण करता गुरु के चक्क दर्शन करने के लिए आया| आदेश आदेश करते गुरु जी के पास आकर बैठ गया| गुरु रामदास जी की शक्ति की परीक्षा करने ले लिए पूछा कि योग के बिना किसी का मन स्थिर नहीं हो सकता और मन स्थिर हुए बिना आत्मा का ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता और आत्मज्ञान के बिना मुक्ति नहीं मिलती परन्तु आपके सिख जो योग मार्ग को धारण नहीं करते उन्हें मुक्ति किस प्रकार मिलेगी? 

यह दलीले सुनकर गुरु जी कहने लगे - हमारे मत में एक चित होकर सत्य नाम का स्मरण करना ही योग है| आपके अनुसार जो योग है वो बहुत कठिन है| इससे शरीर को रोग लग जाते हैं, शरीर नकारा हो जाता है| अगर सिद्धि प्राप्त भी हो जाये तो मन इनमे फस कर वासना में भ्रमित हो जाता है| परन्तु हमारे सिख परमात्मा के ध्यान द्वारा आत्मज्ञान प्राप्त करके उसके रंग में रंगे रहते हैं और सारे संसार को आनंद रूप समझते हैं| हे योगी! अपने मन को इस परमात्मा के रंग में रंगों जो सदा ही एक सा रहता है|


इस प्रथाए आपने यह शब्द उच्चारण किया:

आसा महला ४ घरु ६||

हथि करि तंतु वजावे जोगी थोथर बाजै बेन||
गुरमति हरि गुण बोलहु जोगी इहु मनूआ हरि रंगि भेन||१||

जोगी हरि देहु मती उपदेसु||
जुग जुग हरि हरि एको वरतै तिसु आगै हम आदेसु||१|| रहाउ||

गावहि राग भाति बहु बोलहि इहु मनूआ खेलै खेल||
जोवहि कूप सिंचन कउ बसुधा उठि बैल गए चरि बेल||२||

काइिआ नगर महि करम हरि बोवहु हरि जमै हरिआ खेतु||
मनुआ अस्थिरू बैलु मनु जोवहु हरि संचिहु गुरमति जेतु||३||

जोगी जंगल स्रिसटि सभ तुमरी जो देहु मति तितु चेल||
जन नानक के प्रभ अंतरजामी हरि लावहु मनुआ पेल||४||६||६२||

(श्री गुरु ग्रंथ साहिब पन्ना ३६८)

श्री गुरु राम दास जी – साखियाँ - पिंगले और रजनी का प्रसंग

$
0
0
श्री गुरु राम दास जी – साखियाँ - पिंगले और रजनी का प्रसंग





दुनीचंद क्षत्री जो कि पट्टी नगर में रहता था उसकी पांच बेटियां थी| सबसे छोटी प्रभु पर भरोसा करने वाली थी| एक दिन दुनीचंद ने अपनी बेटियों से पूछा कि आप किसका दिया हुआ खाती व पहनती हो| रजनी के बिना सबने यही कहा कि पिताजी हम आपका दिया ही खाती व पहनती हैं| पर रजनी ने कहा, पिताजी! मुझे भी और सबको देने वाला ही परमात्मा है| दुनीचंद ने कहा मैं देखता हूँ कि तेरा परमात्मा तुझे कैसे देता है| कुछ दिन रुक कर दुनीचंद ने रजनी का विवाह कुष्ट पिंगले के साथ कर दिया|

रजनी ने परमात्मा का हुकम मानकर और पति को परमेश्वर समझकर एक टोकरे में डालकर सिर पर उठा लिया और माँग कर अपने और पति का पेट पालने लगी| इस तरह मांगती हुई गुरु के चक आगई और दुःख भंजन बेरी के नीचे कच्चे सरोवर के पास अपने पति का टोकरा रखकर लंगर लेने चली गई| पिंगले ने देखा उस सरोवर में कौए नहाकर सफेद हो गए हैं| यह चमत्कार देखकर पिंगला भी अपने टोकरे से निकलकर रींग-रींग कर पानी में चला गया और लेट गया| अच्छी तरह लेटने के बाद उसका शरीर सुन्दर और आरोग हो गया| वह उठकर टोकरे के पास बैठ गया|

इतनी देर में उसकी पत्नी भी आ गई| उसने उस पुरुष से अपने पति के बारे में पूछा जिसे वह वहाँ छोड़ कर गई थी| उस पुरुष ने कहा कि मैं ही तुम्हारा पति हूँ जिसे तुम यहाँ छोड़ कर गई थी| उसने सारी बात अपनी पत्नी को बताई कि किस तरह कौए नहाकर सफेद हो गए और मैंने भी कौए के देखकर ऐसा ही किया और आरोग हो गया|

परन्तु रजनी को उसकी बात पर यकीन ना हुआ और वह दोनों ही गुरु रामदास जी के पास चले गए| गुरु जी ने पिंगले कि बात सुनकर कहा - येही तेरा पति है तुम भ्रम मत करो| यह तुम्हारे विश्वास, पतिव्रता और तीर्थ यात्रा की शक्ति का ही परिणाम है कि वह आरोग हो गया है| गुरु साहिब के वचनों पर यकीन करके वह दोनों पति-पत्नी सेवको के साथ मिलकर सेवा करने लगे| तभी उसे अपने पिता कि बात याद आई कि वह पिता को ठीक ही कहती थी कि परमात्मा ही सब कुछ देने और करने वाला है| इंसान के हाथ कुछ नहीं है| अपने सतगुरु की ऐसी मेहर देखकर दोनों ने अपना जीवन गुरु को अर्पण कर दिया|

श्री गुरु राम दास जी – ज्योति - ज्योत समाना

$
0
0
श्री गुरु राम दास जी – ज्योति - ज्योत समाना



श्री गुरु रामदास जी परिवार और सिख सेवको को यथा स्थान धैर्य व वाहिगुरु के हुकम में रहने की आज्ञा देकर भादव सुदी तीज संवत 1639 को आप शरीर त्यागकर परम ज्योति में विलीन हो गए| 

इस प्रथाए अपने सवैइयों में हरबंस भट्ट ने लिखा है:

देवपुरी महि गयउ आपि परमेस्वर भायउ ||
हरि सिंघासणु दीअउ सिरी गुरु तह बैठायउ ||

काटे सु पाप तिनु नरहु के गुरु रामदास जिनु पाइियउ ||
छत्रु सिंघासणु पिरथमी गुरु अरजन कउ दे आइियउ ||२||



कुल आयु और गुरु गद्दी का समय (Shri Guru Ramdas Ji Total Age and Ascension to Heaven)


श्री गुरु रामदास जी कुल 46 साल 7 दिन शरीर करके संसार में रहें|

आप जी 6 साल 11 महीने 18 दिन गुरु गद्दी पर सुशोभित रहे|

श्री गुरु अर्जन देव जी जीवन-परिचय

$
0
0

श्री गुरु अर्जन देव जी जीवन-परिचय







Parkash Ustav (Birth date): April 15, 1563, at Goindwal in Distt. Amritsar, Punjab. 
प्रकाश उत्सव (जन्म की तारीख): 15 अप्रैल 1563, जिला में गोइंदवाल में. अमृतसर, पंजाब.

Father: Guru Ramdas ji 
पिता: गुरु रामदास जी


Mother: Bibi Bhani ji 
माँ: बीबी भानी जी


Sibling: Prithi chand, Mahadev (brothers) 
सहोदर: प्रीथी चंद, महादेव (भाई)


Mahal (spouse): Mata Ganga ji D/o Krishen Chand, Meo village, Distt. Jullandhar 
महल (पति या पत्नी): माता गंगा जी पुत्री कृष्ण चंद, मेव गांव, जिला. जालंधर


Sahibzaday (offspring): Hargobind ji 
साहिबज़ादे (वंश): हरगोबिंद जी


Joti Jyot (ascension to heaven): May 30, 1606 
ज्योति ज्योत (स्वर्ग करने के उदगम): 30 मई 1606


रामदासि गुरु जगत तारन कउ गुरु जोति सु अर्जन माहि धरी||

श्री गुरु अर्जन देव जी का जन्म 18 वैशाख 7 संवत 1620 को श्री गुरु राम दास जी के घर बीबी भानी जी की पवित्र कोख से गोइंदवाल अपने ननिहाल घर में हुआ|

आप अपने ननिहाल घर में ही पोषित और जवान हुए| इतिहास में लिखा है एक दिन आप अपने नाना श्री गुरु अमर दास जी के पास खेल रहे थे तो गुरु नाना जी के पलंघ को आप पकड़कर खड़े हो गए| बीबी भानी जी आपको ऐसा देखकर पीछे हटाने लगी| गुरु जी अपनी सुपुत्री से कहने लगे बीबी! यह अब ही गद्दी लेना चाहता है मगर गद्दी इसे समय डालकर अपने पिताजी से ही मिलेगी| इसके पश्चात गुरु अमर दास जी ने अर्जन जी को पकड़कर प्यार किया और ऊपर उठाया| आपजी का भारी शरीर देखकर वचन किया जगत में यह भारी गुरु प्रकट होगा| बाणी का जहाज़ तैयार करेगा और जिसपर चढ़कर अनेक प्रेमियों का उद्धार होगा| इस प्रथाए आप जी का वरदान वचन प्रसिद्ध है-
"दोहिता बाणी का बोहिथा||"



बीबी भानी जी ने जब पिता गुरु से यह बात सुनी तो बालक अर्जन जी को उठाया और पिता के चरणों पर माथा टेक दिया| इस तरह अर्जन देव जी ननिहाल घर में अपने मामों श्री मोहन जी और श्री मोहरी जी के घर में बच्चों के साथ खेलते और शिक्षा ग्रहण की|

जब आप की उम्र 16 वर्ष की हो गई तो 23 आषाढ़ संवत 1636 को आपकी शादी श्री कृष्ण चंद जी की सुपुत्री गंगा जी तहसील फिल्लोर के मऊ नामक स्थान पर हुई| आप जी की शादी के स्थान पर एक सुन्दर गुरुद्वारा बना हुआ है| इस गाँव में पानी की कमी हो गई थी| आपने एक कुआं खुदवाया जो आज भी उपलब्ध है|

श्री गुरु अर्जन देव जी - श्री गुरु अर्जन देव जी गुरु गद्दी मिलना

$
0
0
श्री गुरु अर्जन देव जी - श्री गुरु अर्जन देव जी गुरु गद्दी मिलना





श्री गुरु अर्जन देव जी गुरु गद्दी मिलना

आप अपने ननिहाल घर में ही पोषित और जवान हुए| इतिहास में लिखा है एक दिन आप अपने नाना श्री गुरु अमर दास जी के पास खेल रहे थे तो गुरु नाना जी के पलंघ को आप पकड़कर खड़े हो गए| बीबी भानी जी आपको ऐसा देखकर पीछे हटाने लगी| गुरु जी अपनी सुपुत्री से कहने लगे बीबी! यह अब ही गद्दी लेना चाहता है मगर गद्दी इसे समय डालकर अपने पिताजी से ही मिलेगी| इसके पश्चात गुरु अमर दास जी ने अर्जन जी को पकड़कर प्यार किया और ऊपर उठाया| आपजी का भारी शरीर देखकर वचन किया जगत में यह भारी गुरु प्रकट होगा| बाणी का जहाज़ तैयार करेगा और जिसपर चढ़कर अनेक प्रेमियों का उद्धार होगा| इस प्रथाए आप जी का वरदान वचन प्रसिद्ध है-
"दोहिता बाणी का बोहिथा||"गुरु रामदास जी द्वारा श्री अर्जन देव जी को लाहौर भेजे हुए जब दो वर्ष बीत गए| पिता गुरु की तरफ से जब कोई बुलावा ना आया| तब आपने अपने ह्रदय की तडप को प्रकट करने के लिए गुरु पिता को चिट्ठी लिखी -
राग माझ || महला ५ चउपदे घरु १ ||
१. मेरा मनु लोचै गुर दरसन ताई || बिलाप करे चात्रिक की निआई || त्रिखा न उतरै संति न आवै बिनु दरसन संत पिआरे जीउ || १ || हउ घोली जीउ घोली घुमाई गुर दरसन संत पिआरे जीउ || १ || रहाउ ||

जब इस चिट्ठी का कोई उत्तर ना आया तो आपने दूसरी चिट्ठी लिखी -

२. तेरा मुखु सुहावा जीउ सहज धुनि बाणी || चिरु होआ देखे सारिंग पाणी || धंनु सु देसु जहा तूं वसिआ मेरे सजण मीत मुरारे जीउ || २ || हउ घोली हउ घोल घुमाई गुरु सजण मीत मुरारे जीउ || १ || रहाउ ||
जब इस चिट्ठी का भी उत्तर ना आया तब आपने तीसरी चिट्ठी लिखी - 

३. एक घड़ी न मिलते ता कलियुगु होता || हुणे कदि मिलीए प्रीअ तुधु भगवंता || मोहि रैणि न विहावै नीद न आवै बिनु देखे गुर दरबारे जीउ || ३ || हउ घोली जीउ घोलि घुमाई तिसु सचे गुर दरबारे जीउ || १ || रहाउ ||
गुरूजी ने जब आपकी यह सारी चिट्ठियाँ पड़ी तो गुरूजी ने बाबा बुड्डा जी को लाहौर भेजकर गुरु के चक बुला लिया| आप जी ने गुरु पिता को माथा टेका और मिलाप की खुशी में चौथा पद उच्चारण किया - 

४. भागु होआ गुरि संतु मिलाइिआ || प्रभु अबिनासी घर महि पाइिआ || सेवा करी पलु चसा न विछुड़ा जन नानक दास तुमारे जीउ || ४ || हउ घोली जीउ घोलि घुमाई जन नानक दास तुमारे जीउ || रहाउ || १ || ८ || (पन्ना ९३ - ९७)
गुरु पिता प्रथाए अति श्रधा और प्रेम प्रगट करने वाली यह मीठी बाणी सुनकर गुरु जी बहुत खुश हुए| उन्होंने आपको हर प्रकार से गद्दी के योग्य मानकर भाई बुड्डा जी और भाई गुरदास आदि सिखो से विचार करके आपने भाद्र सुदी एकम संवत् 1639 को सब संगत के सामने पांच पैसे और नारियल आपजी के आगे रखकर तीन परिक्रमा करके गुरु नानक जी की गद्दी को माथा टेक दिया| आपने सब सिख संगत को वचन किया कि आज से श्री अर्जन देव जी ही गुरुगद्दी के मालिक हैं| इनको आप हमारा ही रूप समझना और सदा इनकी आज्ञा में रहना| 

बाबा प्रिथी चंद जी का तीक्षण वोरोध और झगड़ा देखकर गुरु जी ने बाबा बुड्डा जी आदि बुद्धिमान सिखो को कहा कि हमारा अन्त समय नजदीक आ गया है और हम गोइंदवाल जाकर शांति से अपना शरीर त्यागना चाहते हैं| दूसरे दिन प्रातःकाल गुरु जी श्री अर्जन देव जी, बीबी भानी जी सहित कुछ सिख सेवको को साथ लेकर गोइंदवाल पहुँच गए| दूसरे दिन सुबह दीवान सजाकर संगत को वचन किया हमारा अन्तिम समय नजदीक आगया है और हमने गुरु गद्दी श्री अर्जन देव जी को दे दी है|

इस प्रकार गुरु राम दास जी ने 1639 विक्रमी मुताबिक 1 सितम्बर 1591 को गोइंदवाल जाकर गुरु पद का तिलक दे दिया और आप भाद्रव सुदी तीज को पांच तत्व का शरीर त्यागकर अपने आत्मिक स्वरूप में विलीन हो गए| हरबंस भट्ट अपने सवैये में लिखते हैं-
हरिबंस जगति जसु संचर्यउ सु कवणु कहैं स्री गुरु मुयउ||१|| 

देव पुरी महि गयउ आपि परमेसुर भायउ||

हरि सिंघासणु दीअउ सिरी गुरु तह बैठायउ|| 

(श्री गुरु ग्रंथ साहिब पन्ना १४०९)

श्री गुरु अर्जन देव जी - साखियाँ - गुरमुख और मनमुख

$
0
0
श्री गुरु अर्जन देव जी - साखियाँ




गुरमुख और मनमुख



एक दिन कुला, भुला और भागीरथ तीनों ही मिलकर गुरु अर्जन देव जी के पास आए| उन्होंने आकर प्रार्थना की कि हमें मौत से बहुत डर लगता है| आप हमें जन्म मरण के दुख से बचाए| 

गुरु जी कहने लगे, आप गुरमुख बनकर मनमुखो वाले कर्म करने छोड़ दें| उन्होंने कहा महाराज! हमें यह समझाए कि गुरमुख और मनमुख में क्या अन्तर होता है| हमें इनके लक्षणों से अवगत कराए|

गुरमुख के लक्षण- 

· गुरु के वचनों को याद रखना 

· अपने उपर नेकी करने वालो की नेकी को याद रखना 

· सबकी भलाई सोचना और चाहना 

· किसी के काम में विघन नहीं डालना 

· खोटे कर्मों का त्याग करना 

· नेक कर्मों को ग्रहण करना 

· गुरु के उपदेश को ग्रहण करके अपने आत्म स्वरुप को जानने वाला और अनेक में एक को देखने वाला गुरमुख होता है| 


मनमुख के लक्षण- 

· सबसे ईर्ष्या करनी 

· किसी का भला होता देख दुखी होना 

· अपनी इच्छा से काम करने 

· कभी किसी का भला न सोचना 

· जो नेकी करे उसकी बुराई करनी 

· सबके बुरे में अपना भला समझना 

· कथा कीर्तन ध्यान न लेना 

· गुरु उपदेश को ध्यान से न सुनना 

· पुण्य और स्नान से परहेज करना 

· उपजीविका के लिए झूठ बोलना| 

गुरु जी के यह वचन सुनकर तीनों को संतुष्टि हुई| उन्होंने गुरमुखता के मार्ग पर प्रण कर लिया| फिर वह गुरु जी को माथा टेक कर अपने काम काज में लग गए|

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 2

$
0
0
ॐ सांई राम


आप सभी को शिर्डी के साईं बाबा ग्रुप की ओर से साईं-वार की हार्दिक शुभ कामनाएं |

हम प्रत्येक साईं-वार के दिन आप के समक्ष बाबा जी की जीवनी पर आधारित श्री साईं सच्चित्र का एक अध्याय प्रस्तुत करने के लिए श्री साईं जी से अनुमति चाहते है |

हमें आशा है की हमारा यह कदम घर घर तक श्री साईं सच्चित्र का सन्देश पंहुचा कर हमें सुख और शान्ति का अनुभव करवाएगा| किसी भी प्रकार की  त्रुटी के लिए हम सर्वप्रथम श्री साईं चरणों में क्षमा याचना करते है|

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 2

ग्रन्थ लेखन का ध्येय, कार्यारम्भ में असमर्थता और साहस, गरमागरम बहस, अर्थपूर्ण उपाधि हेमाडपन्त, गुरु की आवश्यकता । 
---------------------------
गत अध्याय में ग्रन्थकार ने अपने मौलिक ग्रन्थ श्री साई सच्चरित्र (मराठी भाषा) में उन कारणों पर प्रकाश डाला था, जिननके दृारा उन्हें ग्रन्थरतना के कार्य को आरन्भ करने की प्रेरणा मिली । अब वे ग्रन्थ पठन के योग्य अधिकारियों तथा अन्य विषयों का इस अध्याय में विवेचन करते हैं ।



ग्रन्थ लेखन का हेतु
------------------------
किस प्रकार विषूचिका (हैजा) के रोग के प्रकोप को आटा पिसवाकर तथा उसको ग्राम के बाहर फेमककर रोका तथा उसका उन्मूलन किया, बाबा की इस लीला का प्रथम अध्याय में वर्णन किया जा चुका है । मैंने और भी लीलाएँ सुनी, जिनसे मेरे हृदत को अति आनंद हुआ और यही आनंद का स्त्रोत काव्य (कविता) रुप में प्रकट हुआ । मैंने यह भी सोचा कि इन महान् आश्चर्ययुक्त लीलाओं का वर्णन बाबा के भक्तों के लिये मनोरंजक इवं शिक्षाप्रद सिदृ होगा तथा उनके पाप समूल नष्ट हो जायेंगे । इसलिये मैंने बाबा की पवित्र गाथा और मधुर उपदेशों का लेखन प्रारम्भ कर दिया । श्री साईं की जीवनी न तो उलझनपूर्ण और न संकीर्ण ही है, वरन् सत्य और आध्यात्मिक मार्ग का वास्तविक दिग्दर्शन कराती है ।

कार्य आरम्भ करने में असमर्थता और साहस
---------------------------------------------------
श्री हेमाडपन्त को यह विचार आया कि मैं इस कार्य के लिये उपयुक्त पात्र नहीं हूँ । मैं तो अपने परम मित्र की जीनी से भी भली भाँति परिचित नहीं हूँ और न ही अपनी प्रकृति से । तब फिर मुझ सरीखा मूढ़मति भला एक महान् संतपुरुष की जीवनी लिखने का दुस्साहस कैसे कर सकता है । अवतारों की प्रकृति के वर्णन में वेद भी अपनी असमर्थता प्रगट करते हैं । किसी सन्त का चरित्र समझने के लिये स्वयं को पहले सन्त होना नितांत आवश्यक है । फिर मैं तो उनका गुणगान करने के सर्वथा अयोगमय ही हूँ । संत की जीवनी लिखना एक महान् कठिन कार्य है, जिसकी तुलना में सातों समुद्र की गहराई नापना और आकाश को वस्त्र से ढकना भी सहज है । यह मुझे भली भरणति ज्ञात था कि इस कार्य का आरम्भ करनेके लिये महान् साहस की आवश्यकता है और कहीं ऐसा न हो कि चार लोगों के समक्ष हास्य का पात्र बनना पड़े, इसीलिये श्री साईं बाबा की कृपा प्राप्त करने के लिये मैं ईश्वर से प्रार्थना करने लगा ।
महाराष्ट्र के संतश्रेष्ठ श्री ज्ञानेश्वर महाराज के कथन है कि संतचरित्र के रचयिता से परमात्मा अति प्रसन्न होता है । तुलसीदास जी ने भी कहा है कि-साधुचरित शुभ सरिस कपासू । निरस विषद गुणमय फल जासू ।। जो सहि दुःख पर छिद्र दुरावा । वंदनीय जेहि जग जस पावा ।। भक्तों को भी संतों की सेवा करने की इच्छा बनी रहती है । संतों की कार्य पूर्ण करा लेने की प्रणाली भी विचित्र ही है । यथार्थ प्रेरणा तो संत ही किया करते हैं, भक्त तो निमित्त मात्र, या कहिये कि कार्य पूर्ति के लिये एक यंत्र मात्र है । उदाहरणार्थ शक सं. 1700 में कवि महीपति को संत थरित्र लेखन की प्रेरणा हुई । संतों ने अंतःप्रेरणा की और कार्य पूर्ण हो गया । इसी प्रकार शक सं. 1800 में श्री दासगणू की सेवा स्वीकार हुई । महीपति ने चार काव्य रचे – भक्तविजय, संतविजय, भक्तलीलामृत और संतलीलामृत और दासगणू ने केवल दो – भक्तलीलामृत और संतकथामृत – जिसमें आधुनिक संतों के चरित्रों कावर्णन है । भक्तलीलामृत के अध्याय 31, 32, और 33 तथा संत कथामृत के 57 वें अध्याय में श्री साई बाबा की मधुर जीवनी तथा अमूल्य उपदेशों का वर्णन सुन्दर एवं रोचक ढ़ंग से किया गया है । पाठकों से इनके पठन का अनुरोध है । इसी प्रकार श्री साई बाबा की अद्भभुत लीलाओं का वर्णन एक बहुत सुन्दर छोटी सी पुस्तिका - श्री साई बाबा भजनमाला में किया गया है । इसकी रचना बान्द्रा की श्रीमती सावित्रीबाई रघुनाथ तेंडुलकर ने की है ।
श्री दासगणू महाराज ने भी श्री साई बाबा पर कई मधुर कविताओं की रचना की है । एक और भक्त अमीदास भवानी मेहता ने भी बाबा की कुथ कथाओ को गुजराती में प्रकाशित किया है । साई प्रभा नामक पत्रिका में भी कुछ लीलाएँ शिरडी के दक्षिणा भिक्षा संस्थान दृारा प्रकाशित की गई है । अब प्रश्न यह उठता हैं कि जब श्री साईनाथ महाराज के जीवन पर प्रकाश डालने वाला इतना साहित्य उपलब्ध है, फिर ौर एक ग्रन्थ साई सच्चरित्र रचने की आवश्यकता ही कहाँ पैदा होती है । इसका उत्तर केवल यही है कि श्री साई बाबा की जीवनी सागर के सदृश अगाध, विस्तृत और अथाह है । यति ुसमें गहरे गोता लगाया जाय तो ज्ञान एवं भक्ति रुपी अमूल्य रत्नों की सहज ही प्राप्ति हो सकती है, जिनसे मुमुक्षुओं को बहुत लाभ होगा । श्री साई बाबा की जीवनी, उनके दृष्टान्त एवं उपदेश महान् आश्चर्य से परिपूर्ण है । दुःख और दुर्भाग्यग्रस्त मानवों को इनसे शान्ति और सुख प्राप्त होगा तथा लोक व परलोक मे निःश्रेयस् की प्राप्ति होगी । यदि श्री साई बाबा के उपदेशो का, जो वैदिक शिक्षा के समान ही मनोरंजक और शिक्षाप्रद है, ध्यानपूर्वक श्रवण एवं मनन किया जाये तो भक्तों को अपने मनोवांछित फल की प्राप्ति हो जायेगी , अर्थात् ब्रहम से अभिन्नता, अष्टांग योग की सिदिृ और समाधि आनन्द आदि की प्राप्ति सरलता से हो जायगी । यह सोचकर ही मैंने चरित्र की कथाओं को संकलित करना प्रारम्भ कर दिया । साथ ही यह विचार भी आया कि मेरे लिये सबसे उत्तम साधना भी केवल यही है । जो भोले-भाले प्राणी श्री साई बाबा के दर्शनों सो अपने नेत्र सफल करने के सौभाग्य से वंचित रहे है, उन्हें यह चरित्र अति आनन्ददायक प्रतीत होगा । अतः मैंने श्री साई बाबा के उपदेश और दृषटान्तों की खोज प्रारम्भ कर दी, जो कि उनकी असीम सहज प्राप्त आत्मानिभूतियों का निचोड़ था । मुझे बाबा ने प्रेरणा दी और मैंने भी अपना अहंकार उनके श्री चरणों पर न्योछावर कर दिया । मैने सोचा कि अब मेरा पथ अति सुगम हो गया है और बाबा मुझे इहलोक और परलोक में सुखी बना देंगे ।
मैं स्वंय बाब की आज्ञा प्राप्त करने का साहस नहीं कर सकता था । अतः मैंने श्री माधवराव उपनाम शामा से, जो कि बाब के अंतरंग भक्तों में से थे, इस हेतु प्रार्थना की । उन्होंने इस कार्य के निमित्त श्री साई बाबा से विनम्र शब्दों में इस प्रकार प्रार्थना की कि ये अण्णासाहेब आपकी जीवनी लिखने के लिये अति उत्सुक है । परन्तु आप कृपया ऐसा न कहना कि मैं तो एक फकीर हूँ तथा मेरी जीवनी लिखने की आवश्यकता ही क्या है । आपकी केवल कृपा और अनुमति से ही ये लिख सकेंगें, अथवा आपके श्री चरणों का पुण्यप्रताप ही इस कार्य को सफल बना देगा । आपकी अनुमति तथा आशीर्वाद के अभाव में कोई भी करर्य यशस्वी नहीं हो सकता । यह प्रार्थना सुनकर बाबा को दया आ गई । उन्होंने आश्वासन और उदी देकर अपना वरद-हस्त मेरे मस्तक पर रखा और कहने लगे कि इन्हें जीवनी और दृष्टान्तों को एकत्रित कर लिपिबदृ करने दो, मैं इनकी सहायता करुगाँ । मैं स्वयं ही अपनी जीवनी लिखकर भक्तों की इच्छा पूर्ण करुगाँ । परंतु इनको अपना अहं त्यागकर मेरी शरण में आना चाहिये । जो अपने जीलन में इस प्रकार आचरण करता है, उसकी मैं अत्यधिक सहायता करता हूँ । मेरी जीवन-कथाओं की बात तो हज है, मैं तो इन्हें घर बैठे अनेक प्रकार से सहायता पहुँचाता हूँ । जब इनका अहं पूर्णताः नष्ट हो जायेगा और खोजनेपर लेशमात्र भी न मिलेगा, तब मैं इनके अन्तःकरण में प्रगट होकर स्वयं ही अपनी जीवनी लिखूँगा । मेरे चरित्र और उपदेशों के श्रवण मात्र से ही भक्तों के हृदय में श्रदृा जागृत होकर सरलतापूर्वक आत्मानुभूति एवं परमानंद की प्राप्ति हो जायेगी । ग्रन्थ में अपने मत का प्रतिपादन और दूसरो का खमडन तथा अन्य किसी विषय के पक्ष या विपक्ष में व्यर्थ के वादविवाद की कुचेष्टा नहीं होनी चाहिये ।

अर्थपूर्ण उपाधि हेमाडपंत
---------------------------
वादविवाद शब्द से हमको स्मरण हो आया कि मैंने पाठको को वचन दिया है कि हेमाडपंत उपाधि किस प्रकार प्राप्त हुई, इसका वर्णन करुँगा । अब मैं उसका वर्णन करता हूँ ।
श्री काकासाहेब दीक्षित व नानासाहेब चांदोरकर मेरे अति घनिष्ठ मित्रों में से थे । उन्होंने मुझसे शिरडी जाकर श्री साई बाबा के दर्शनें का लाभ उठाने का अनुरोध किया । मैंनें उन्हे वचन दिया, परन्तु कुछ बाधा आ जाने के कारण मेरी ळिरडी-यात्रा स्थगित हो गई । मेरे एक घनिष्ठ मित्र का पुत्र लोनावला में रोगग्रस्त हो गया था । उन्होंने सभी सम्भव आधिभौतिक और आध्यात्मिक उपचार किये, परन्तु सभी प्रत्यन निष्फल हुए और ज्वर किसी प्रकार भी कम न हुआ । अन्त में उन्होंने अपने गुरुदेव को उसके सिरहाने ज्वर बिठलाया, परंतु परिणैस पूर्ववत् ही हुआ । यह घटना देखकर मुझे विचार आया कि जब गुरु एक बालक के प्राणों की भी रक्षा करने में असमर्थ है, तब उनकी उपयोगिता ही क्या है । और जब उनमें कोई सामर्थय ही नही, तब फिर शिरडी जाने से क्या प्रयोजन । ऐसा सोचकर मैंने अपनी यात्रा स्थगित कर दी । परंतु जो होनहार है, वह तो होकर ही पहेगा और वह इस प्रकार हुआ । प्रामताधिकारी नानासाहेब चांदोरकर बसई को दौरेपर जा रहे थे । वे ठाणा से दादर पहुँचे तथा बसई जाने वाली गाड़ी की प्रतीक्षा कर रहे थे । उसी समय बांद्रा लोकल आ पहुँची, जिसमें बैठकर वे बांद्रा पहुँचे तथा शिरडीयात्रा स्थगित करने के लिये मुझे आड़े हाथों लिया । नानासाहेब का तर्क मुझे उचित तथा सुखदायी प्रतीत हुआ और इसके फलस्वरुप मैंने उसी रात्रि शिरडी जाने का निश्चय किया और सामान बाँधकर शिरडी को प्रस्थान कर दिया । मैंनें सीधे दादर जाकर वहाँ से मनमाड की गाड़ी पकड़ने का कार्यक्रम बनाया । इस निश्चय के अनुसार मैंने दादर जाने वाली गाड़ी के डिब्बे में प्रवेश किया । गाड़ी छूटने ही वाली थी कि इतने में एक यवन मेरे डिब्बे में आया और मेरा सामान देखकर मुझसे मेरा गन्तव्य स्थान पूछने लगा । मैंनें अपना कार्यक्रम उसे बतला दिया । उसने मुझसे कहा कि मनमाड की गाड़ी दादर पर खड़ी नहीं होता, इसलिये सीधे बोरीबन्दर से होकर जाओ । यदि यह एक साधारण सी घटना घटित न हुई होती तो मैं अपने कार्यक्रम के अनुसार दूसरे दिन शिरडी न पहुँच सकने के कारण अनेक प्रकार की शंका-कुशंकाओ से घिर जाता । परंतु ऐसा घटना न था । भाग्य ने साथ दिया और दूसरे दिन 9-10 बजे के पूर्वही मैं शिरडी पहुँच गया । यह सन् 1910 की बात है, जब प्रवासी भक्तों के ठहरने के लिये साठेवाड़ा ही एकमात्र स्थान था । ताँगे से उतरने पर मैं साईबाबा के दर्शनों के लिये बड़ा लालायित था । उसी समय भक्तप्रवर श्री तात्यासाहेब नूलकर मसजिद से लौटे ही थे । उन्होंने बतलाया कि इस समय श्री साईबाबा मसजिद की मोंडपर ही हैं । अभी केवल उनका प्रारम्भिक दर्शन ही कर लो और फिर स्नानादि से निवृत होने के पश्चात, सुविधा से भेंट करने जाना । यह सुनते ही मैं दौड़कर गया और बाबा की चरणवन्दना की । मेरी प्रसन्नता का पारावार न रहा । मुझे क्या नहीं मिल गया था । मेरा शरीर उल्लसित सा हो गया । क्षुधा और तृषा की सुधि जाती रही । जिस क्षण से उनके भवविनरशक चरणों का स्पर्श प्रार्त हुआ, मेरे जीवन के दर्शनार्थ पर्ेरणग, प्रोत्साहन और सहायता पहुँचाई, उनके प्रति मेरा हृदय बारम्बार कृतज्ञता अनुभव करने लगा । मैं उनका सदैव के लिये ऋणी हो गया । उनका यह उपकार मैं कभी भूल न सकूँगा । यथार्थ में वे ही मेरे कुटुम्बी हैं और उनके ऋण से मैं कभी भी मुक्त न हो सकूँगा । मैं सदा उनका स्मरण कर उन्हें मानसिक प्रणाम किया करता हूँ । जैसा कि मेरे अनुभव में आया कि साई के दर्शन में ही यह विशेषता है कि वितार परिवर्तन तथा पिछले कर्मों का प्रभाव शीघ्र मंद पड़ने लगता है और शनैः शनैः अनासक्ति और सांसारिक भोगों से वैराग्य बढ़ता जाता है । केवल गत जन्मों के अनेक शुभ संस्कार एकत्रित होनेपर ही ऐसा दर्शन प्राप्त होना सुलभ हो सकता है । पाठको, मैं आपसे शपथपूर्वक कहता हूँ कि यदि आप श्री साईबाबा को एक दृष्टि भरकर देख लेंगे तो आपको सम्पूर्ण विश्व ही साईमय दिखलाई पड़ेगा ।



गरमागरम बहस
-------------------
शिरडी पहुंतने के प्रथम दिन ही बालासाहेब तथा मेरे बीच गुरु की आवश्यकता पर वादविवाद छिड़ गया । मेरा मत था कि स्वतंत्रता त्यागकर पराधीन क्यों होना चाहिये तथा जब कर्म करना ही पड़ता है, तब गुरु की आवश्यकता ही कहां रही । प्रत्येक को पूर्ण प्रयत्न कर स्वयं को आगे बढ़ाना चाहिये । गुरु शिष्य के लिये करता ही क्या है । वह तो सुख से निद्रा का आनंद लेता है । इस प्रकार मैंने स्वतंत्रता का पक्ष लिया और बालासाहेब ने प्रारब्ध का । उन्होंने कहा कि जो विधि-लिखित है, वह घटित होकर रहेगा, इसमें उच्च कोटि के महापुरुष भी असफल हो गये हैं । कहावत है – मेरे मन कछु और है, धाता के कछु और । फिर परामर्शयुक्त शब्दों मे बोले भाई साहब, यह निरी विदृता छोड़ दो । यह अहंकार तुम्हारी कुछ भी सहायता न कर सकेगा । इस प्रकार दोनों पक्षों के खंडन-मंडन में लगभग एक घंटा व्यतीत हो गया और सदैव की भाँति कोई निष्कर्ष न निकल सका । इसीलिये तंग और विवष होकर विवाद स्थगित करनग पड़ा । इसका परिणाम यह हुआ कि मेरी मानसिक शांति भंग हो गई तथा मुझे अनुभव हुआ कि जब तक घोर दैहिक बुदृि और अहंकार न हो, तब तक विवाद संभव नहींं । वस्तुतः यह अहंकार ही विवाद की जड़ है ।
जब अन्य लोगों के साथ मैं मसजिद गया, तब बाबा ने काकासाहेब को संबोधित कर प्रश्न किया कि साठेबाड़ा में क्या चल रहा हैं । किस विषय में विवाद था । फिर मेरी ओर दृष्टिपात कर बोले कि इन हेमाडपंत ले क्या कहा । ये शब्द सुनकर मुझे अधिक अचम्भा हुआ । साठेबाड़ा और मसजिद में पर्याप्त अन्तर था । सर्वज्ञ या अंतर्यामि हुए बिना बाबा को विवाद का ज्ञान कैसे हो सकता था ।
मैं सोचने लगा कि बाबा हेमाडपंत के नाम से मुझे क्यों सम्बोधित करते हैं । यह शब्द तो हेमाद्रिपंत का अपभ्रंश है । हेमाद्रिपंत देवगिरि के यादव राजवंशी महाराजा महादेव और रामदेव के विख्यात मंत्री थे । वे उच्च कोटि के विदृान्, उत्तम प्रकृति और चतुवर्ग चिंतामणि (जिसमें आध्यात्मिक विषयों का विवेचन है ।) और राजप्रशस्ति जैसे उत्तम काव्यों के रचयिता थे । उन्होंने ही हिसाब-किताब रखने की नवीन प्रणाली को जन्म दिया था और कहाँ मैं इसके विपरीत एक अज्ञानी, मूर्ख और मंदमति हूँ । अतः मेरी समझ में यह न आ सका कि मुझे इस विशेष उपाधि से विभूषित करने का क्या तात्पर्य हैं । गहन विचार करने पर मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि कही मेरे अहंकार को चूर्ण करने के लिये ही तो बाबा ने इस अस्त्र का प्रयोग नहीं किया  है, ताकि मैं भविष्य में सदैव के लिए निरभिमानी एवं विनम्र हो जाऊँ, अथवा कहीं यह मेरे वाक्रचातुर्य के उपलक्ष में मेरी प्रशंसा तो नहीं है ।
भविष्य पर दृष्टिपात करने से प्रतीत होता है कि बाबा के दृारा हेमाडपंत की उपाधि से विभूषित करना कितना अर्थपूर्ण और भविष्यगोचर था । सर्वविदित है कि कालान्तर में दाभोलकर ने श्री साईंबाबा संस्थान का प्रबन्ध कितने सुचारु एवं विदृतापूर्ण ढ़ग से किया था । हिसाब-किताब आदि कितने उत्तम प्रकार से रखे तथा साथ ही साथ महाकाव्य साई सच्चरित्र की रचना भी की । इस ग्रन्थ में महत्त्वपूर्ण और आध्यात्मिक विषयों जैसे ज्ञान, भक्ति वैराग्य, शरणागति व आत्मनिवेदन आदि का समावेश है ।

गुरु की आवश्यकता
----------------------
इस विषय में बाबा ने क्या उद्गगार प्रकट किये, इस पर हेमाडपंत दृारा लिखित कोई लेख या स्मृतिपत्र प्राप्त नहीं है । परंतु काकासाहेब दीक्षित ने इस विषय पर उनके लेख प्रकाशित किये हैं ।
बाबा से भेंट करने के दूसरे दिन हेमाडपंत और काकासाहेब ने मसजिद में जाकर गृह लौटने की अनुमति माँगी । बाबा ने स्वीकृति दे दी ।



किसी ने प्रश्न किया – बाबा, कहाँ जायें ।

उत्तर मिला – ऊपर जाओ ।

प्रश्न – मार्ग कैसा है ।

बाबा – अनेक पंथ है । यहाँ से भी एक मार्ग है । परंतु यह मार्ग दुर्गम है तथा सिंह और भेड़िये भी मिलते है । 
काकासाहेब – यदि पथ प्रदर्शक भी साथ हो तो ।

बाबा – तब कोई कष्ट न होगा । मार्ग-प्रदर्शक तुम्हारी सिंह और भेड़िये और खन्दकों से रक्षा कर तुम्हें सीधे निर्दिष्ट स्थान पर पहुँचा देगा । परंतु उसके अभाव में जंगल में मार्ग भूलने या गड्रढे में गिर जाने की सम्भावना है । दाभोलकर भी उपर्युक्त प्रसंग के अवसर पर वहाँ उपस्थित थे । उन्होंने सोचा कि जो कुछ बाबा कह रहे है, वह गुरु की आवश्यकता क्यों है । इस प्रश्न का उत्तर है (साईलीला भाग 1, संख्या 5 व पृष्ठ 47 के अनुसार) । उन्होंने सदा के लिये मन में यह गाँठ बाँध ली कि अब कभी इस विषय पर वादविवाद नहीं करेंगे कि स्वतंत्र या परतंत्र व्यकति आध्यात्मिक विषयों के लिये कैसा सिदृ होगा । प्रत्युत इसके विपरीत यथार्थ में परमार्थ-लाभ केवल गुरु के उरदेश में किया गया है, जिसमें लिखा है कि राम और कृष्ण महान् अवतारी होते हुए भी आत्मानुभूति के लिये राम को अपने गुरु वसिष्ठ और कृष्ण को अपने गुरु सांदीपनि की शरण में जाना पड़ा था । इस मार्ग में उन्नति प्राप्त करने के लिये केवल श्रदृा और धैर्य-ये ही दो गुण सहायक हैं ।

।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

श्री गुरु अर्जन देव जी - साखियाँ - मन की शांति का साधन

$
0
0
श्री गुरु अर्जन देव जी - साखियाँ




मन की शांति का साधन


एक दिन सुल्तान्पुत के निवासी कालू, चाऊ, गोइंद, घीऊ, मूला, धारो, हेमा, छजू, निहाला, रामू, तुलसा, साईं, आकुल, दामोदर, भागमल, भाना, बुधू छीम्बा, बिखा और टोडा भाग मिलकर गुरु अर्जन देव जी के पास आए| उन्होंने आकर प्रार्थना की कि महाराज! हम रोज सवेरे उठकर स्नान करके गुरबानी का पाठ करने के बाद ही अपनी कृत करते हैं| मन को संयम में रखते हैं| संयम में रखने के बाद भी मन में कलहे ही रहती है| गुरु जी कृपा करके ऐसा उपदेश दो जिससे कलह समाप्त हो और मन को शांति मिले| 

गुरु जी ने उनकी बात सुनी और कहने लगे कि जब तक मन से रजो गुण और तमो गुण का त्याग ना किया जाए तब तक मन को शांति नहीं मिल सकती| इसलिए इनका त्याग जरूरी है| आगे से सिख पूछने लगे महाराज! इस गुणों की परीक्षा किस प्रकार की जा सकती है| 

गुरु जी फरमाने लगे हिंसा (जीव हत्या) और क्रोध तमो गुण में आते हैं| लोभ और अभिमान यह रजो गुण में आते हैं| इसलिए इनका त्याग जरूरी है| 

तमो गुण के लक्षण- 

· रात का बासी, खट्टा और चटपटा भोजन खाना

· बहुत अधिक सोना

· झूठ बोलना

· गन्दा रहना

· परायी निन्दा करनी

· बुरी संगत करनी


रजो गुण के लक्षण-

· भड़कीले वस्त्र पहनना

· मांस का सेवन करना

· अपना बडप्पन चाहाना


शांति गुण के लक्षण-

· उज्जवल सफ़ेद वस्त्र पहनने 

· स्नान आदि में नियमित होना

· चावल दाल आदि स्वच्छ भोजन करना

· थोड़ा सोना व थोड़ा खाना

· एक मन होकर कथा कीर्तन सुनना


राजसी गुण के लक्षण-

· जिसका कभी मन टिके और कभी न टिके व राजसी गुण की निशानियाँ हैं|


तामसिक गुण के लक्षण-

· जिसका मन कभी टिके ही न, शब्द वाणी की समझ भी कोई न आए उसे तामसिक गुण वाला समझे|


अन्त में गुरु जी कहने लगे जब आप इन शांति वाले गुणों को अपनाओगे तो आपको शांति अपने आप ही प्राप्त हो जायेगी|

श्री गुरु अमर दास जी – साखियाँ - काबुल की एक पति-व्रता माई

$
0
0
श्री गुरु अमर दास जी – साखियाँ - काबुल की एक पति-व्रता माई




बाउली की कार सेवा में भाग लेने के लिए सिख बड़े जोश के साथ दूर दूर से आने लगे| इस तरह काबुल में एक प्रेमी सिख की पति व्रता स्त्री को पता लगा|

वह प्रातः काबुल से चलकर कार सेवा करती और सायंकाल काबुल पहुँच जाती| कुछ सिखो ने माई को सेवा करते हुए हाथ से संकेत करते देखा| कुछ दिन इसी तरह ही बीत गये तो एक दिन सिखो ने गुरु जी को कहा महाराज! एक माई रोज सुबह संगतो के साथ सेवा करती है और रात के समय देखते ही देखते लुप्त हो जाती है| एक और बात भी यह माई करती है कि कार सेवा करती करती अपना हाथ पलकर पीछे कर लेती है ऐसा लगता है कि जैसे किसी चीज़ को हिला रही हो| हमें समझ नहीं आता कि यह माई कौन है|

गुरु अमरदास जी ने माई को अपने पास बुलाया और पूछा कि तुम कहाँ से आती हो? और काम करते करते हाथ से किस चीज़ को हिलती हो? माई ने बताया में सुबह काबुल से आती हूँ और कर सेवा करके शाम को घर चली जाती हूँ| गुरु जी ने कहा यह शक्ति तुम कहाँ से लाईहो माई ने कहा महाराज! यह शक्ति मैंने अपने पति व्रता धर्म से पाई है| इसी के बल से में काबुल से आती हूँ और वापिस चली जाती हूँ| सुबह आते समय में अपने छोटे बच्चे को पंघूढ़े में सुला आती हूँ और यहाँ हाथ मारकर पंघूढ़े को हिलती रहती हूँ| जिससे यह सोया रहता है और खेलता ही रहता है|

माई से यह सुनकर सिखो ने उसे धन्ये माना और गुरु जी ने कुश होकर पति - पत्नी के लोक परलोक सुहेला कर दिया|

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 50

$
0
0
ॐ सांई राम



आप सभी को शिर्डी के साँई बाबा ग्रुप की ओर साईं-वार की हार्दिक शुभ कामनाएं , हम प्रत्येक साईं-वार के दिन आप के समक्ष बाबा जी की जीवनी पर आधारित श्री साईं सच्चित्र का एक अध्याय प्रस्तुत करने के लिए श्री साईं जी से अनुमति चाहते है , हमें आशा है की हमारा यह कदम  घर घर तक श्री साईं सच्चित्र का सन्देश पंहुचा कर हमें सुख और शान्ति का अनुभव करवाएगा, किसी भी प्रकार की त्रुटी के लिए हम सर्वप्रथम श्री साईं चरणों में क्षमा याचना करते है...

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 50

काकासाहेब दीक्षित, श्री. टेंबे स्वामी और बालाराम धुरन्धर की कथाएँ ।
-------------------------




मूल सच्चिरत्र के अध्याय 39 और 40 को हमने एक साथ सम्मिलित कर लिखा है, क्योंकि इन दोनों अध्यायों का विषय प्रायः एक-सा ही है ।



प्रस्तावना
...........
उन श्री साई महाराज की जय हो, जो बक्तों के जीवनाधार एवं सदगुरु है । वे गीताधर्म का उपदेश देकर हमें शक्ति प्रदान कर रहे है । हे साई, कृपादृष्टि से देखकर हमें आशीष दो । जैसे मलयगिरि में होनेवाला चन्दनवृक्ष समस्त तापों का हरण कर लेता है अथवा जिस प्रकार बादल जलवृष्टि कर लोगों को शीतलता और आनन्द पहुँचाते है या जैसे वसन्त में खिले फूल ईश्वरपूजन के काम आते है, इसी प्रकार श्री साईबाबा की कथाएँ पाठकों तथा श्रोताओं को धैर्य एवं सान्त्वना देती है । जो कथा कहते या श्रवण करते है, वे दोनों ही धन्य है, क्योंकि उनके कहने से मुख तथा श्रवण से कान पवित्र हो जाते है ।
यह तो सर्वमान्य है कि चाहे हम सैकड़ों प्रकार की साधनाएँ क्यों न करे, जब तक सदगुरु की कृपा नहीं होती, तब तक हमेंअपने आध्यात्मिक ध्येय की प्राप्ति नहीं हो सकती । इसी विषय में यह निम्नलिखित कथा सुनिये :-


काकासाहेब दीक्षित (1864-1926)
..............................
श्री हरि सीताराम उपनाम काकासाहेब दीक्षित सन् 1864 में वड़नगर के नागर ब्राहमण कुल में खणडवा में पैदा हुए थे । उनकी प्राथमिक शिक्षा खण्डवा और हिंगणघाट में हुई । माध्यमिक सिक्षा नागुर में उच्च श्रेणी में प्राप्त कने के बाद उन्होंने पहले विल्सन तथा बाद में एलफिन्स्टन काँलेज में अध्ययन किया । सन् 1883 में उन्होंने ग्रेज्युएट की डिग्री लेकर कानूनी (L. L. B.) और कानूनी सलाहकार (Solicitor) की परीक्षाएँ पास की और फिर वे सरकारी सालिसिटर फर्म-मेसर्स लिटिल एण्ड कम्पनी में कार्य करने लगे । इसके पश्चात उन्होंने स्वतः की एक साँलिसिटर फर्म चालू कर दी ।

सन् 1909 के पहले तो बाबा की कीर्ति उनके कानों तक नहीं पहुँची थी, परन्तु इसके पश्चात् वे शीघ्र ही बाबा के परम भक्त बन गये । जब वे लोनावला में निवास कर रहे थे तो उनकी अचानक भेंट अपने पुराने मित्र नानासाहेब चाँदोरकर से हुई । दोनों ही इधर-उधर की चर्चाओं में समय बिताते थे । काकासाहेब ने उन्हें बताया कि जब वे लन्दन में थे तो रेलगाड़ी पर चढ़ते समय कैसे उनका पैर फिसला तथा कैसे उसमें चोट आई, इसका पूर्ण विवरण सुनाया । काकासाहेब ने आगे कहा कि मैंने सैकड़ो उपचार किये, परन्तु कोई लाभ न हुआ । नानासाहेब ने उनसे कहा कि यदि तुम इस लँगड़ेपन तथा कष्ट से मुक्त होना चाहते हो तो मेरे सदगुरु श्री साईबाबा की शरण में जाओ । उन्होंने बाबा का पूरा पता बताकर उनके कथन को दोहराया कि मैं अपने भक्त को सात समुद्रों के पास से भी उसी प्रकार खींच लूँगा, जिस प्रकार कि एक चिड़िया को जिसका पैर रस्सी से बँधा हो, खींच कर अपने पास लाया जाता है । उन्होंने यह भी स्पष्ट कर दिया कि यदि तुम बाबा के निजी जन न होगे तो तुम्हें उनके प्रति आकर्षण भी न होगा और न ही उनके दर्शन प्राप्त होंगे । काकासाहेब को ये बातें सुनकर बड़ी प्रसन्नता हुई और उन्होंने कहा, वे शिरडी जाकर बाबा से प्रार्थना करेंगे कि शारीरिक लँगड़ेपन के बदले उनके चंचल मन को अपंग बनाकर परमानन्द की प्राप्त करा दे ।

कुछ दिनों के पश्चात् ही बम्बई विधान सभा (Legislative Assembly) के चुनाव में मत प्राप्त करने के सम्बन्ध में काकासाहेब दीक्षित अहमदनगर गये और सरदार काकासाहेब मिरीकर के यहां ठहरे । श्री. बालासाहेब मिरीकर जो कि कोपरगाँव के मामलतदार तथा काकासाहेब मिरीकर के सुपत्र थे, वे भी इसी समय अश्वप्रदर्शनी देखने के हेतु अहमदनगर पधारे थे । चुनाव का कार्य समाप्त होने के पश्चात काकासाहेब दीक्षित शिरडी जाना चाहते थे । यहाँ पिता और पुत्र दोनों ही घर में विचार कर रहे थे कि काकासाहेब के साथ भेजने के लिये कौन सा व्यक्ति उपयुक्त होगा और दूसरी ओर बाबा अलग ही ढंग से उन्हें अपने पास बुलाने का प्रबन्ध कर रहे थे । शामा के पास एक तार आया कि उनकी सास की हालत अधिक शोचनीय है और उन्हें देखने को वे शीघ्र ही अहमदनगर को आये । बाबा से अनुमति प्राप्त कर शामा ने वहां जाकर अपनी सास को देखा, जिनकी स्थिति में अब पर्याप्त सुधार हो चुका था । प्रदर्शनी को जाते समय नानासाहेब पानसे तथा अप्पासाहेब दीक्षित से भेंट करने तथा उन्हें अपने साथ शिरडी ले जाने को कहा । उन्होंने शामा के आगमन की सूचना काकासाहेब दीक्षित और मिरीकर को भी दे दी । सन्ध्या समय शामा मिरीकर के घर आये । मिरीकर ने शामा का काकासाहेब दीक्षित से परिचय कर दिया और फिर ऐसा निश्चित हुआ कि काकासाहेब दीक्षित उनके साथ रात 10 बजे वाली गाड़ी से कोपरगाँव को रवाना हो जाये । इस निश्चय के बाद ही एक विचित्र घटना घटी । बालासाहेब मिरीकर ने बाबा के एक बड़े चित्र पर से परदा हटाकर काकासाहेब दीक्षित को उनके दर्शन कराये तो उन्हें यह देखकर आश्चर्य हुआ कि जिनके दर्शनार्थ मैं शिरडी जाने वाला हूँ, वे ही इस चित्र के रुप में मेरे स्वागत हेतु यहाँ विराजमान है । तब अत्यन्त द्रवित होकर वे बाबा की वन्दना करने लगे । यह चित्र मेघा का था और काँच लगाने के लिये मिरीकर के पास आया था । दूसरा काँच लगवा कर उसे काकासाहेब दीक्षित तथा शामा के हाथ वापस शिरडी भेजने का प्रबन्ध किया गया । 10 बजे से पहले ही स्टेशन पर पहुँचकर उन्होंने द्घितीय श्रेणी का टिकट ले लिया । जब गाड़ी स्टेशन पर आई तो द्घितीय श्रेणी का डिब्बा खचाखच भरा हुआ था । उसमें बैठने को तिलमात्र भी स्थान न था । भाग्यवश गार्डसाहेब काकासाहेब दीक्षित की पहिचान के निकल आये और उन्होंने इन दोनों को प्रथम श्रेणी के डिब्बे में बैठा दिया । इस प्रकार सुविधापू4वक यात्रा करते हुए वे कोपरगाँव स्टेशन पर उतरे । स्टेशन पर ही शिरडी को जाने वाले नानासाहेब चाँदोरकर को देखकर उनके हर्ष का पारावार न रहा । शिरडी पहुँचकर उन्होंने मसजिद में जाकर बाबा के दर्शन किये । तब बाबा कहने लगे कि मैं बड़ी देर से तुम्हारी ही प्रतीक्षा कर राह था । शामा को मैंने ही तुम्हें लाने के लिये भेज दिया था । इसके पश्चात् काकासाहेब ने अनेक वर्ष बाबा की संगति में व्यतीत किये । उन्होंने शिरडी में एक वाड़ा (दीक्षित वाडा) बनवाया, जो उनका प्रायः स्थायी घर हो गया । उन्हें बाबा से जो अनुभव प्राप्त हुए, वे सब स्थानाभाव के कारण यहाँ नहीं दिये जा रहे है । पाठकों से प्रार्थना है कि वे श्री साईलीला पत्रिका के विशेषांक (काकासाहेब दीक्षित) भाग 12 के अंक 6-9 तक देखे । उनके केवल एक दो अनुभव लिखकर हम यह कथा समाप्त करेंगे । बाबा ने उन्हें आश्वासन दिया था कि अनत समय आने पर बाबा उन्हें विमान में ले जायेंगे, जो सत्य निकला । तारीख 5 जुलाई, 1926 को वे हेमाडपंत के साथ रेल से यात्रा कर रहे थे । दोनों में साईबाबा के विषय में बाते हो रही थी । वे श्री साईबाबा के ध्यान में अधिक तल्लीन हो गये, तभी अचानक उनकी गर्दन हेमाडपंत के कन्धे से जा लगी । और उन्होंने बिना किसी कष्ट तथा घबराहट के अपनी अंतिम श्वास छो़ड़ दी ।


श्री. टेंबे स्वामी
......................
अब हम द्घितीय कथा पर आते है, जिससे स्पष्ट होता है कि सन्त परस्पर एक दूसरे को किस प्रकार भ्रतृवत् प्रेम किया करते है । एक बार श्री वासुदेवानन्द सरस्वती, जो श्री. टेंबे स्वामी के नाम से प्रसिदृ है, ने गोदावरी के तीर पर रामहेन्द्री में आकर डेरा डाला । वे भगवान दत्तात्रेय के कर्मकांडी, ज्ञानी तात योगी भक्त थे । नाँदेड़ (निजाम स्टेट) के एक वकील अपने मित्रों के सहित उनसे भेंट करने आये और वार्तालाप करते-करते श्री साईबाबा की चर्चा भी निकल पड़ी । बाबा का नाम सुनकर स्वामी जी ने उन्हें करबदृ प्रणाम किया और पुंडलीकराव (वकील) को एक श्रीफल देकर उन्होंने कहा कि तुम जाकर मेरे भ्राता श्री साई को प्रणाम कर कहना कि मुझे न बिसरे तथा सदैव मुझ पर कृपा दृष्टि रखें । उन्होंने यह भी बतलाया कि सामान्यतः एक स्वामी दूसरे को प्रणाम नहीं करता, परन्तु यहाँ विशेष रुप से ऐसा किया गया है । श्री. पुंडलीकराव ने श्रीफल लेकर कहा कि मैं इसे बाबा को दे दूँगा तथा आपका सन्देश भी उचित था । स्वामी ने बाबा को जो भाई शब्द से सम्बोधित किया था, वह बिकुल ही उचित था । उधर स्वामी जी अपनी कर्मकांडी पदृति के अनुसार दिनरात अग्नहोत्र प्रज्वलित रखते थे और इधर बाबा की धूनी दिन रात मसजिद में जलती रहती थी

एक मास के पश्चात ही पुंडलीकराव अन्य मित्रों सहित श्रीफल लेकर शिरडी को रवाना हुये । जब वे मनमाड पहुँचे तो प्यास लगने के कारम एक नाले पर पानी पीने गये । खाली पेट पानी न पीना चाहिये, यह सोचकर उन्होंने कुछ चिवड़ा खाने को निकाल, जो खाने में कुछ अधिक तीखा-सा प्रतीत हुआ । उसका तीखापन कम करने के लिये किसी ने नारियल फोड़ कर उसमें खोपरा मिला दिया और इस तरह उन लोगों ने चिवड़ा स्वादिष्ट बनाकर खाया । अभाग्यवश जो नारियल उनके हाथ से फूटा, वह वही था, जो स्वामीजी ने पुंजलीकराव को भेंट में देने को दिया था । शिरडी के समीप पहुँचने पर उन्हें नारियल की स्मृति हो आई । उन्हें यह जानकर बड़ा ही दुख हुआ कि भेंट स्वरुप दिये जाने वाला नारियल ही फोड़ दया गया है । डरते-डरते और काँपते हुए वे शिरडी पहुँचे और वहाँ जाकर उन्होंने बाबा के दर्शन किये । बाबा को तो यहाँ नारियल के सम्बन्ध में स्वामी से बेतार का तार प्राप्त हो चुका था । इसीलिये उन्होंने पहले से ही पुंडलीकराव से प्रश्न किया कि मेरे भाई की भेजी हुई वस्तु लाओ । उन्होंने बाबा के चरण पकड़ कर अपना अपराध स्वीकार करते हुये अपनी चूक के लिये उनसे क्षमा याचना की । वे उसके बदले में दूसरा नारियल देने को तैयार थे, परन्तु बाबा ने यह कहते हुए उसे अस्वीकार कर दिया कि उस नारियल का मूल्य इस नारियल से कई गुना अधिक था और उसकी पूर्ति इस साधारण नारियल से नहीं हो सकती । फिर वे बोले कि अब तुम कुछ चिन्ता न करो । मेरी ही इच्छा से वह नारियल तुम्हें दिया गया तथा मार्ग में फोड़ा गया है । तुम स्वयं में कर्तापन की भावना क्यों लाते हो । कोई भी श्रेष्ठ या कनिष्ठ कर्म करते समय अपने को कर्ता न जानकर अभिमान तता अहंकार से परे होकर ही कार्य करो, तभी तुम्हारी द्रुत गति से प्रगति होगी । कितना सुन्दर उनका यह आध्यात्मिक उपदेश था ।

बालाराम धुरन्धर
....................
सान्ताक्रूज, बम्बई के श्री. बालाराम धुरन्धर प्रभु जाति के एक सज्जन थे । वे बम्बई के उच्च न्यायालय में एडवोकेट थे तथा किसी समय शासकीय विधि विघालय (Govt. Law School) और बम्बई के प्राचार्य (Principal) भी थे । उनका सम्पूर्ण कुटुम्ब सात्विक तथा धार्मिक था । श्री बालाराम ने अपनी जाति की योग्य सेवा की और इस सम्बन्ध में एक पुस्तक भी प्रकाशित कराई । इसके पश्चात् उनका ध्यान आध्यात्मिक और धार्मिक विषयों पर गया । उन्होंने ध्यानपूर्वक गीता, उसकी टीका ज्ञानेश्वरी तथा अन्य दार्शनिक ग्रन्थों पर अध्ययन किया । वे पंढरपुर के भगवान विठोबा के परम भक्त ते । सन् 1912 में उन्हें श्री साईबाबा के दर्शनों का लाभ हुआ । छः मास पूर्व उनके भाई बाबुलजी और वामनराव ने शिरडी आकर बाबा के दर्शन किये थे और उन्होंने घर लौटकर अपने मधुर अनुभव भी श्री. बालाराम व परिवार के अन्य लोगों को सुनाये । तब सब लोगों ने शिरडी जाकर बाबा के दर्शन करने का निश्चय किया । यहाँ शिरडी में उनके पहुँचने के पूर्व ही बाबा ने स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि आज मेरे बहुत से दरबारीगण आ रहे है । अन्य लोगों द्घारा बाबा के उपरोक्त वचन सुनकर धुरन्धर परिवार को महान् आश्चर्य हुआ । उन्होंने अपनी यात्रा के सम्बन्ध में किसी को भी इसकी पहले से सूचना न दी थी । सभी ने आकर उन्हें प्रणाम किया और बैठकर वार्तालाप करने लगे । बाबा ने अन्य लोगों को बतलाया कि ये मेरे दरबारीगण है, जिनके सम्बन्ध में मैंने तुमसे पहले कहा था । फिर धुरन्धर भ्राताओं से बोले कि मेरा और तुम्हारा परिचय 60 जन्म पुराना है । सभी नम्र और सभ्य थे, इसलिये वे सब हाथ जोड़े हुए बैठे-बैठे बाबा की ओर निहारते रहे । उनमें सब प्रकार के सात्विक भाव जैसे अश्रुपात, रोमांच तथा कण्ठावरोध आदि जागृत होने लगे और सबको बड़ी प्रसननता हुई । इसके पश्चात वे सब अपने निवासस्थान पर भोजन को गये और भोजन तथा थोड़ा विश्राम लेकर पुनः मसजिद में आकर बाबा के पांव दबाने लगे । इस समय बाबा चिलम पी रहे थे । उन्होंने बालाराम को भी चिलम देकर एक फूँक लगाने का आग्रह किया । यघपि अभी तक उन्होंने कभी धूम्रपान नहीं किया था, फिर भी चिलम हाथ में लेकर बड़ी कठिनाई से उन्होंने एक फूँक लगाई और आदरपूर्वक बाबा को लौटा दी । बालाराम के लिये तो यह अनमोल घडी थी । वे 6 वर्षों से श्वास-रोग से पीड़ित थे, पर चिलम पीते ही वे रोगमुक्त हो गये । उन्हें फिर कभी यह कष्ट न हुआ । 6 वर्षों के पश्चात उन्हें एक दिन पुनः श्वास रोग का दौरा पड़ा । यह वही महापुण्यशाली दिन था, जब कि बाबा ने महासमाधि ली । वे गुरुवार के दिन शिरडी आये थे । भाग्यवश उसी रात्रि को उन्हें चावड़ी उत्सव देखने का अवसर मिल गया । आरती के समय बालाराम को चावड़ी में बाबा का मुखमंडल भगवान पंडुरंग सरीखा दिखाई पड़ा । दूसरे दिन कांकड़ आरती के समय उन्हें बाबा के मुखमंडल की प्रभा अपने परम इष्ट भगवान पांडुरंग के सदृश ही पुनः दिखाई दी ।
श्री बालाराम धुरन्धर ने मराठी में महाराष्ट्र के महान सन्त तुकाराम का जीवन चरित्र लिखा है, परन्तु खेद है कि पुस्तक प्रकाशित होने तक वे जीवित न रह सके । उनके बन्धुओं ने इस पुस्तक को सन् 1928 में प्रकाशित कराया । इस पुस्तक के प्रारम्भ में पृष्ठ 6 पर उनकी जीवनी से सम्बन्धित एक परिक्षेपक में उनकी शिरडी यात्रा का पूरा वर्णन है ।

।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

********************************************************************************

श्री गुरु अमर दास जी – साखियाँ - भक्ति के प्रकार

$
0
0
श्री गुरु अमर दास जी – साखियाँ - भक्ति के प्रकार




भाई खानू, मईया और गोबिंद गुरु अमरदास जी के पास आए| इन्होने प्रार्थना की हमें भक्ति का उपदेश दो ताकि हमारा कल्याण हो जाये| गुरु जी ने कहा भक्ति तीन प्रकार की होतो है-नवधा,प्रेमा और परा|

नवधा भक्ति :-
१. गुरु जी के वचनों को श्रद्धा सहित सुनकर दिल में बसाना|
२. कथा कीर्तन के द्वारा परमात्मा के गुन गायन करना|
३. सत्यनाम का सुमिरन श्वास-२ करना|
४. परमत्मा व गुरु चरणों का धयान करना व सन्तो का चरण धोकर चरणामृत लेना|
५. पवित्र भोजन करना और गुरु निमित देना|
६. गुरु स्थल पर जा कर नमस्कार करनी और परिकर्मा करनी|
७. धूप,दीप व फूल माला चडाना|
८. परमेश्वर को मालिक व खुद को सेवक जानना|
९. अपने मन को स्थिर रखना| प्रभु के हुकम को अच्छा संयम कर मानना|
१०. पदार्थो की माया छोड़कर सब कुछ प्रभु को जानना|

इस नवधा भक्ति का एक गुण भी धारण हो जाये तो बंदे का उद्धार हो सकता है| मगर सभी गुण धारण करके बंदे का कल्याण हो सकता है|


प्रेमा भक्ति :-
जिस प्रकार वृक्ष का फल पहले हरा होता है, उसका स्वाद भी कड़वा होता है फिर यह खट्टा हो जाता है और फिर वृक्ष से रस लेकर रसीला हो जाता है मीठा बन जाता है| इसी तरह ही प्रेमा भक्ति वाले पुरुष का पहले रोने का जी करता है उसको अपने प्रियतम के दर्शनों की लालसा बढती है| वह यह समझकर कि मित्र से बिछडकर दुःख पा रहा है और गद् गद् हो जाता है| कभी परमेश्वर के गुण गाता है और कभी चुप धारण कर लेता है| इस अवस्था में वह सांवला हो जाता है| जैसे जैसे प्रेम बढता है खाना थोड़ा होता जाता है, रात दिन प्रेम में मस्त रहता है| मुँह का रंग पीला हो जाता है| जब सत्य संग ज्यादा हो जाता है तो पूरण प्रभु को सब जगह देखता है| इस देशा में मुख का रंग लाल हो जाता है, मन ज्ञानमय हो जाता है|


परा भक्ति :-
उच्च अवस्था में पहुँच कर परा भक्ति शुरू होती है| तब पुरुष ब्रहम स्वरुप हो जाता है, यही कल्याण का स्वरुप है| इस प्रकार तीनों ही आनंद अवस्था भक्ति को प्राप्त हुए|

श्री गुरु अमर दास जी – साखियाँ - भाई जग्गे को निहाल करना

$
0
0
श्री गुरु अमर दास जी – साखियाँ - भाई जग्गे को निहाल करना




एक दिन भाई जग्गा जुरू जी के दर्शन करने आया| उसने प्राथना कि सच्चे पादशाह जी मुझे एक दिन जोगी ने बताया कि कल्याण तभी हो सकता है अगर घर - बाहर, स्त्री - पुत्र आदि का त्याग किया जाये जो कि बन्धन हैं|

इसके बाद ही मेरे से उपदेश लेना, मगर मैं किसी भी वास्तु का त्याग नहीं कर पाया| अब आप ही मुझ पर कृपा करे और बताये कि मुक्ति किस तरह मिल सकती है? गुरु जी ने उसका श्रधा व प्रेम भाव देखा और कहा यदि घर - बाहर, स्त्री - पुत्र छोड़ने से ही मुक्ति मिलती तो फिर शहरो और नगरों में आकर क्यों मांगते? गुरुसिख गृहस्थ में ही रह कर मुक्ति प्राप्त कर लेता है| गृहस्थ धर्म ही सबसे अच्छा है क्योंकि इसमें वह खुद कमाई करके खाता है और दान करता है और जो साधु ग्रहस्थियो से मांगकर खाता है वह अपने जप तप की कमाई में कमी डाल देता है, ग्रहस्थी जो कि अन्न वस्त्र कि सेवा करता है उसकी कमाई से भी हिस्सा ले लेता है|

हे भाई जग्गा! शरीर के साथ सन्तों की सेवा और मन से हरि की भक्ति करो| इस तरह शीघ्र ही कल्याण हो जायेगा| इस प्रकार गुरु जी ने मुक्ति का मार्ग सभी बंधनों को तोड़ कर नहीं अपितु ग्रहस्थ आश्रम में रहते हुए ही मुक्ति को प्राप्त करना बताया|

श्री गुरु अमर दास जी – साखियाँ - रानी का पागलपन दूर करना

$
0
0
श्री गुरु अमर दास जी – साखियाँ - रानी का पागलपन दूर करना




सावण मल की प्रेरणा से हरीपुर के राजा व रानी गुरु अमरदास जी के दर्शन करने के लिए गोइंदवाल आए| सावण मल ने माथा टेककर गुरु जी से कहा कि महाराज! हरीपुर के राजा व रानी आपके दर्शन करने के लिए आए हैं|

गुरु जी ने आगे से कहा राजा पहले लंगर से प्रसाद खाकर हमारे पास आए, अगर उसकी रानियाँ भी आना चाहे तो पहले व सफेद वस्त्र पहनकर आए| याद रहे ना ही कोई रंगदार वस्त्र पहने और ना ही कोई मूँह ढ़के| राजा व रानी ने गुरु जी का आज्ञा का पूरी तरह से पालन किया| परन्तु एक रानी ने गुरु जी के पास बैठे हुए एक सिख को देखकर घूँघट निकाल लिया| गुरु जी उसको देखकर कहने लगे ये पागल किसलिए आई है क्या इसको हमारे दर्शन करने अच्छे नहीं लगते? आप जी के ऐसे वचन सुनकर रानी ने अपनी सुध - बुध खो ली व चीखें मारती हुई बाहर को भाग गई| यह देखकर राजा बड़ा चिंतित हुआ|

गुरु जी ने सावण मल को वह वर शक्ति फिर प्रदान कर दी और कहा कि हरीपुर जाकर गुरु सिखी का प्रचार करो| फिर कभी इस शक्ति का अहंकार ना करना| उसी पागल रानी की शादी गुरु जी ने अपने एक सिख सचन के साथ कर दी जो कि लंगर के लिए लकडियां लाता था| गुरु जी ने अपनी कृपा दृष्टि से पागल रानी को भी ठीक कर दिया|

श्री गुरु अमर दास जी – साखियाँ - एक माई का पुत्र जीवित करना

$
0
0
श्री गुरु अमर दास जी – साखियाँ - एक माई का पुत्र जीवित करना




एक विधवा माई जो की गोइंदवाल में रहती थी उसका पुत्र बुखार से मर गया| वह रात्रि से समय ऊँची ऊँची रोने लगी| उसका ऐसा विर्लाप सुनकर गुरु अमरदास जी माई के घर गये और अपने चरण बच्चे के माथे पर धरे| गुरु जी के चरण माथे पर लगते ही बेटा जीवित हो गया| गुरु जी ने अपने सेवक बल्लू को कहा कि मरे हुए को जिन्दा करना इश्वर के हुकम के विरुद्ध है इस करण आगे से जब तक हमारा शरीर रहेगा तब तक कोई बच्चा माता - पिता के सामने नहीं मरेगा|

ऐसा वचन करके गुरु जी अपने आसन पर सुशोभित हो गये|

श्री गुरु अमर दास जी–साखियाँ - सावण मल के अहंकार को तोड़ना

$
0
0
श्री गुरु अमर दास जी–साखियाँ सावण मल के अहंकार को तोड़ना




गुरु अमरदास जी ने सावण मल को लकड़ी की जरूरत पूरी होने के पश्चात गोइंदवाल वापिस बुलाया| परन्तु सावण मल मन ही मन सोचने लगा अगर मैं चला गया तो गुरु जी मुझसे वह रुमाल ले लेंगे जिससे मृत राजकुमार जीवित हुआ था| इससे मेरी कोई मान्यता नहीं रहेगी| सारी शक्ति वापिस चली जायेगी| अच्छा तो यही रहेगा कि मैं गोइंदवाल ही ना जाऊँ| ऐसा विचार मन में आते ही सावण मल ने गुरु की आज्ञा का उलंघन कर दिया| गुरु जी ने उसकी सारी शक्ति वापिस खींच ली| शक्ति चले जाने से सावण मल बहुत पछताया और अपनी भूल की क्षमा माँगने के लिए गोइंदवाल जाने को तैयार हो गया| इस प्रकार गुरु घर का निरादर करके सावण मल शक्तियों से भी हाथ धो बैठा|

जिस शक्ति के जाने के भय से वह रियासत को नहीं छोड़ रहा था गुरु जी ने उसके उसी रियासत में बैठे ही वह शक्ति उससे छीन ली और उसके अहंकार को भी तोड़ दिया|

श्री गुरु अमर दास जी–साखियाँ - मृत राजकुमार को जीवित करना

$
0
0
श्री गुरु अमर दास जी–साखियाँ मृत राजकुमार को जीवित करना




एक दिन बल्लू आदि सिखो ने गुरु जी से बिनती की महाराज! अनेक जातियों के लोग यहाँ दर्शन करने आतें हैं पर उनके रहने के लिए कोई खुला स्थान नहीं है, इसलिए कोई खुला माकन बनाना चाहिए| यह विनती सुनकर गुरु जी ने बाबा बुड्डा जी व अपने भतीजे सावण मल के साथ पांच सिखों को रियासत हरीपुर के राजा के पास भेजा और कहा वहाँ से मकानों के लिए लकड़ी के गठे बांधकर ब्यास नदी के रास्ते से भेजने का प्रबंध करो| सावण मल ने कहा महाराज! पहाड़ी लोग गुरु की पूजा करने वाले नहीं हैं वे मूर्ति पूजक हैं| लकड़ी खरीदने के लिए बहुत सा धन चाहिए| गुरु जी ने कहा कि सब शक्तियाँ ही आपके अधीन होंगी तुम जिस तरह भी चाहोगे उनका प्रयोग करके राजा को गुरु घर का प्रेमी बना लेना फिर वह अपने आप ही आपकी जरूरत को पूरा कर देगा| यह बात कहकर गुरु जी ने अपने हाथ का रुमाल सावण मल को देते हुए कहा कि इसको हाथ में पकड़कर तुम जी कुछ भी चाहोगे वो हो जायेगा| आपकी इच्छा यह रूमाल पूरी करेगा| रूमाल लेकर सावण मल अपने साथ पांच सिखो को हरीपुर ले गया| उस दिन एकादशी का व्रत था जिसमे राजे की तरफ से आज्ञा थी कि कोई अन्न को हाथ ना लगाये| परन्तु सावण मल और उसके साथियों ने प्रसाद तैयार करके खाया और आने वाले को भी दिया| राजे को खबर हुई तो उसने अन्न खाने व व्रत ना रखने का कारण पूछा| सावण मल ने कहा गुरु जी का लंगर सदैव ही चलता रहता है| वह किसी भी तरह के भ्रमों में विश्वाश नहीं रखते| यह उत्तर सुनकर राजा के गुरु एक बैरागी साधु ने कहा इनको कैद कर लो| अपने गुरु के कहने पर राजे ने सावण मल को कैद कर लिया|

दूसरे ही दिन राजे के पुत्र को हैजा हो गया और वह मृत्यु को प्राप्त हो गया| मंत्री ने कहा आपने गुरु के निर्दोष सिख को कैद किया है, यह उन्ही के निरादर का फल है जिससे राजकुमार को मौत हासिल हुई है| शीघ्र ही कैद से निकालकर क्षमा मांगो| राजे ने ऐसा ही किया तब सावण मल ने कहा अगर राजा गुरु का सिख बन जाये तो मैं उसके पुत्र को जीवित कर दूँगा| जब राजे को इस बात का पता लगा तो उसने कहा अगर मेरा पुत्र जीवित हो गया तो मैं और मेरा परिवार गुरु जी के सिख बन जायेगें| जब सावण मल को महल में बुलाया गया तब सावण मल ने राजे को कहा आप चुपचाप बैठकर सत्य नाम का स्मरण करो और रोना - धोना बंद कर दो| इसके पश्चात सावण मल ने जपुजी साहिब का पाठ मृत लड़के के पास जाकर करना शुरू कर दिया और गुरु जी के रूमाल का कोना धोकर लड़के के मुँह में डाला और फिर रूमाल पकड़कर उसके सिर पर सत्य नाम कहते हुए घुमाया तो राजकुमार उठ कर बैठ गया| गुरु जी के ऐसे कौतक को देखकर राजा व रानी सावण मल के चरणों में गिर पड़े| उसने सावण मल को बहुत सा धन और वस्त्र भी भेंट किये| इसके पश्चात सारे रियासत के लोग ही गुरु के सिख बन गये|

दो चार दिन तो खुशी में ही बीत गये| तो एक दिन राजे ने सावण मल को यहाँ आने का करण पूछा| सावण मल ने कहा, महाराज! ब्यास नदी के किनारे गोइंदवाल नगर में गुरु अमरदास जी रहतें हैं उनके दर्शन करने के लिए दूर दूर से सिख सेवक आते हैं, उनके लिए मकान बनवाने के लिए बहुत सी लकड़ी की जरूरत है| राजे ने उसी समय अपने आदमियों को हुकुम दिया कि मकानों में काम आने वाली दियार आदि लकड़ी काटकर उनके बेड़े पर बांधकर ब्यास में तैरा दो| इस प्रकार बहुत सी लकड़ी गोइंदवाल पहुँच गई| उसी समय सावण मल को गुरु जी की बात याद आ गई और ऐसे कौतक को देखकर वह मन ही मन गुरु की उपमा करने लगे|

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 51 - उपसंहार

$
0
0
ॐ सांई राम

आप सभी श्री साँई भक्तों को दिपावली की हार्दिक शुभ कामनायेँ, बाबा जी से हमारी अरदास है की बाबा जी आज फिर एक बार अपने बच्चों के जीवन से अंधियारां दूर करने के लिये पानी से दिये जला कर सभी श्री साँई भक्तों के जीवन में एक नई रोशनी का उजाला करने की कृपा करें।




आप सभी को शिर्डी के साँई बाबा ग्रुप की ओर से श्री साईं-वार की हार्दिक शुभ कामनाएं , हम प्रत्येक साईं-वार के दिन आप के समक्ष बाबा जी की जीवनी पर आधारित श्री  साईं सच्चित्र का एक अध्याय प्रस्तुत करने के लिए श्री साईं जी से अनुमति चाहते है , हमें आशा है की हमारा यह कदम  घर घर तक श्री साईं सच्चित्र का सन्देश पंहुचा कर हमें सुख और शान्ति का अनुभव करवाएगा, किसी भी प्रकार की त्रुटी के लिए हम सर्वप्रथम श्री साईं चरणों में क्षमा याचना करते है...


श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 51 - उपसंहार ------------------------------------

अध्याय – 51 पूर्ण हो चुका है और अब अन्तिम अध्याय (मूल ग्रन्थ का 52 वां अध्याय) लिखा जा रहा है और उसी प्रकार सूची लिखने का वचन दिया है, जिस प्रकार की अन्य मराठी धार्मिक काव्यग्रन्थों में विषय की सूची अन्त में लिखी जाती है । अभाग्यवश हेमाडपंत के कागजपत्रों की छानबीन करने पर भी वह सूची प्राप्त न हो सकी । तब बाब के एक योग्य तथा धार्मि भक्त ठाणे के अवकाशप्राप्त मामलतदार श्री. बी. व्ही. देव ने उसे रचकर प्रस्तुत किया । पुस्तक के प्रारम्भ में ही विषयसूची देने तथा प्रत्येक अध्याय में विषय का संकेत शीर्षक स्वरुप लिखना ही आधुनिक प्रथा है, इसलिये यहाँ अनुक्रमाणिका नहीं दी जा रही है । अतः इस अध्याय को उपसंहार समझना ही उपयुक्त होगा । अभाग्यवश हेमा़डपंत उस समय तक जीवित न रहे कि वे अपने लिखे हुए इस अध्याय की प्रति में संशोधन करके उसे छपने योग्य बनाते ।

श्री सदगुरु साई की महानता
............................

हे साई, मैं आपकी चरण वन्दना कर आपसे शरण की याचना करता हूँ, क्योकि आप ही इस अखिल विश्व के एकमात्र आधार है । यदि ऐसी ही धारणा लेकर हम उनका भजन-पूजन करें तो यह निश्चित है कि हमारी समस्त इच्छाएं शीघ्र ही पूर्ण होंगी और हमें अपने परम लक्ष्य की प्राप्ति हो जायेगी । आज निन्दित विचारों के तट पर माया-मोह के झंझावात से धैर्य रुपी वृक्ष की जड़ें उखड़ गई है । अहंकार रुपी वायु की प्रबलता से हृदय रुपी समुद्र में तूफान उठ खड़ा हुआ है, जिसमें क्रोध और घृणा रुपी घड़ियाल तैरते है और अहंभाव एवं सन्देह रुपी नाना संकल्प-विकल्पों की संतत भँवरों में निन्दा, घृणा और ईर्ष्या रुपी अगणित मछलियाँ विहार कर रही है । यघपि यह समुद्र इतना भयानक है तो भी हमारे सदगुरु साई महाराज उसमें अगस्त्य स्वरुप ही है । इसलिये भक्तों को किंचितमात्र भी भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है । हमारे सदगुरु तो जहाज है और वे हमें कुशलतापूर्वक इस भयानक भव-समुद्र से पार उतार देंगे ।

प्रार्थना
........


श्री सच्चिदानंद साई महाराज को साष्टांग नमस्कार करके उनके चरण पकड़ कर हम सब भक्तों के कल्याणार्थ उनसे प्रार्थना करते है कि हे साई । हमारे मन की चंचलता और वासनाओं को दूर करो । हे प्रभु । तुम्हारे श्रीचरणों के अतिरिक्त हममें किसी अन्य वस्तु की लालसा न रहे । तुम्हारा यह चरित्र घर-घर पहुँचे और इसका नित्य पठन-पाठन हो और जो भक्त इसका प्रेमपूर्वक अध्ययन करें, उनके समस्त संकट दूर हो ।


फलश्रुति (अध्ययन का पुरस्कार)
....................................


अब इस पुस्तक के अध्ययन से प्राप्त होने वाले फल के सम्बन्ध में कुछ शब्द लिखूँगा । इस ग्रन्थ के पठन-पठन से मनोवांछित फल की प्राप्ति होगी । पवित्र गोदावरी नदी में स्नान कर, शिरडी के समाधि मन्दिर में श्री साईबाबा की समाधि के दर्शन कर लेने के पश्चात इस ग्रन्थ का पठन-पाठन या श्रवण प्रारम्भ करोगे तो तुम्हारी तिगुनी आपत्तियाँ भी दूर हो जायेंगी । समय-समय पर श्री साईबाबा की कथा-वार्ता करते रहने से तुम्हें आध्यात्मिक जगत् के प्रति अज्ञात रुप से अभिरुचि हो जायेगी और यदि तुम इस प्रकार नियम तथा प्रेमपूर्वक अभ्यास करते रहे तो तुम्हारे समस्त पाप अवश्य नष्ट हो जायेंगें । यदि सचमुच ही तुम आवागमन से मुक्ति चाहते हो तो तुम्हें साई कथाओं का नित्य पठन-पाठन, स्मरण और उनके चरणों में प्रगाढ़ प्रीति रखनी चाहिये । साई कथारुपी समुद्र का मंथन कर ुसमें से प्राप्त रत्नों का दूसरों को वितरण करो, जिससे तुम्हें नित्य नूतन आनन्द का अनुभव होगा और श्रोतागण अधःपतन से बच जायेंगे । यदि भक्तगण अनन्य भाव से उनकी शरण आयें तो उनका ममत्व नष्ट होकर बाबा से अभिन्नता प्राप्त हो जायेगी, जैसे कि नदी समुद्र में मिल जाती है । यदि तुम तीन अवस्थाओं (अर्थात्- जागृति, स्वप्न और निद्रा) में से किसी एक में भी साई-चिन्तन में लीन हो जाओ तो तुम्हारा सांसारिक चक्र से छुटकारा हो जायेगा । स्नान कर प्रेम और श्रद्घयुक्त होकर जो इस ग्रन्थ का एक सप्ताह में पठन समाप्त करेंगे, उनके सारे कष्ट दूर हो जायेंगे या जो इसका नित्य पठन या श्रवण करेंगे, उन्हें सब भयों से तुरन्त छुटकारा मिल जायेगा । इसके अध्ययन से हर एक को अपनी श्रद्घा और भक्ति के अनुसार फल मिलेगा । परन्तु इन दोनों के अभाव में किसी भी फल की प्राप्ति होना संभव नहीं है । यदि तुम इस ग्रन्थ का आदरपूर्वक पठन करोगे तो श्री साई प्रसन्न होकर तुम्हें अज्ञान और दरिद्रता के पाश से मुक्त कर, ज्ञान, धन और समृद्घि प्रदान करेंगे । यदि एकाग्रचित होकर नित्य एक अध्याय ही पढ़ोगे तो तुम्हें अपरिमित सुख की प्राप्ति होगी । इस ग्रन्थ को अपने घर पर गुरु-पूर्णिमा, गोकुल अष्टमी, रामनवमी, विजयादशमी और दीपावली के दिन अवश्य पढ़ना चाहिये । यदि ध्यानपूर्वक तुम केवल इसी ग्रन्थ का अध्ययन करते रहोगे तो तुम्हें सुख और सन्तोष प्राप्त होगा और सदैव श्री साई चरणारविंदो का स्मरण बना रहेगा और इस प्रकार तुम भवसागर से सहज ही पार हो जाओगे । इसके अध्ययन से रोगियों को स्वास्थ्य, निर्धनों को धन, दुःखित और पीड़ितों को सम्पन्नता मिलेगी तथा मन के समस्त विकार दूर होकर मानसिक शान्ति प्राप्त होगी ।
मेरे प्रिय भक्त और श्रोतागण । आपको प्रणाम करते हुए मेरा आपसे एक विशेष निवेदन है कि जिनकी कथा आपने इतने दिनों और महीनों से सुनी है, उनके कलिमलहारी और मनोहर चरणों को कभी विस्मृत न होने दें । जिस उत्साह, श्रद्गा और लगन के साथ आप इन कथाओं का पठन या श्रवण करेंगे, श्री साईबाबा वैसे ही सेवा करने की बुद्घि हमें प्रदान करेंगे । लेखक और पाठक इस कार्य में परस्पर सहयोग देकर सुखी होवें ।

प्रसाद - याचना
..................


अन्त में हम इ
स पुस्तक को समाप्त करते हुए सर्वशक्तिमान परमात्मा से निम्नलिखित कृपा या प्रसादयाचना करते है –

हे ईश्वर । पाठकों और भक्तों को श्री साई-चरणों में पूर्ण और अनन्य भक्ति दो । श्री साई का मनोहर स्वरुप ही उनकी आँखों में सदा बसा रहे और वे समस्त प्राणियों में देवाधिदेव साई भगवान् का ही दर्शन करें । एवमस्तु ।





।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

।। ऊँ श्री साई यशःकाय शिरडीवासिने नमः ।।

आप सभी को शिर्डी के साँई बाबा ग्रुप की ओर से हार्दिक धन्यवाद, हम प्रत्येक साईं-वार के दिन आप के समक्ष बाबा जी की जीवनी पर आधारित श्री साईं सच्चित्र का एक अध्याय प्रस्तुत करने के लिए श्री साईं जी के श्री चरणों में अनुग्रह करते है की वह हमें इसे पुन: आरम्भ (दिनांक 30 अक्टूबर 2014 से ) करने हेतु आज्ञा प्रदान करें एवं हम अपने सभी पाठको से इस बात की भी क्षमा चाहते है की यदि अनजाने में हम से कोई भूल हो गयी हो तो बाबा श्री साईं जी हमें क्षमा प्रदान करने की कृपा करें, हम आपका इस सहयोग के लिए हृदय से आभार व्यक्त करते है एवं आपको आश्वासन देते है की अगले साईं-वार से श्री साईं सचरित्र का पुन: प्रसारण किया जायेगा, हमें आशा है की हमारा यह कदम घर घर तक श्री साईं सच्चित्र का सन्देश पंहुचा कर सभी को सुख और शान्ति का अनुभव करवाएगा, किसी भी प्रकार की त्रुटी के लिए हम सर्वप्रथम श्री साईं चरणों में क्षमा याचना करते है... एवं सभी पाठको का एक बार फिर से आभार व्यक्त करते है ...!!


ॐ सांई राम जी  

श्री गुरु अमर दास जी ज्योति - ज्योत समाना

$
0
0
श्री गुरु अमर दास जी ज्योति - ज्योत समाना



अपने अंतिम समय को नजदीक अनुभव करके श्री गुरु अमरदास जी ने गुरुगद्दी का तिलक श्री रामदास जी को देकर सब संगत को आप जी ने उनके चरणी लगाया|इसके पश्चात् परिवार व सिखों को हुक्म मानने का उपदेश दिया जो बाबा सुन्दर जी, बाबा नन्द के पोत्र ने इसका वर्णन करके श्री गुरु अर्जुन देव जी को सुनाया-
रामकली सदु 

१ ओंकार सतिगुरु परसादि||
जगि दाता सोइि भगति वछ्लु तिहु लोइि जीउ||
गुर सबदि समावए अवरु न जाणै कोइि जीउ||
अवरो न जाणहि सबदि गुर के एकु नामु धिआवहे||
परसादि नानक गुरु अंगद परम पदवी पावहे||
आइिआ ह्कारा चलणवारा हरि राम नामि समाइिआ||
जगि अमरू अटलु अतोलु ठाकरू भगति ते हरि पाइिआ||१|| 



इस प्रकार सबको धैर्य और हुक्म मानने का वचन करके गुरु जी ने भादरव सुदी पूर्णिमा संवत १६६१ को अपने परलोक गमन कि तयारी कर ली| संगत को वाहिगुरू का सुमिरन व शब्द कितन करने कि आज्ञा करके आप कुश के आसन पर सफ़ेद चादर तान कर लेट गये| शरीर त्याग कर अकाल पुरख के चरणों में जा पहुँचे| 


कुल आयु व गुरुगद्दी का समय (Shri Amar Das Ji Total Age and Ascension to Heaven)


श्री गुरु अमरदास जी २२ साल ५ महीने और ११ दिन गुरुगद्दी पर आसीन रहे|

आप ६५ साल ३ महीने और २३ दिन इस जगत में शरीर करके सुशोभित रहे|

श्री गुरु रामदास जी जीवन-परिचय

$
0
0
श्री गुरु रामदास जी जीवन-परिचय





प्रकाश उत्सव (जन्म की तारीख): 24 सितम्बर 1534
Parkash Ustav (Birth date):  September 24, 1534 

पिता: बाबा हरि दास
Father: Baba Hari Das 
माँ: माता दया कौर
Mother: Mata Daya Kaur 
महल (पति या पत्नी): बीबी भानी
Mahal (spouse): Bibi Bhani 
साहिबज़ादे (वंश): प्रिथी चंद, महादेव और अर्जुन देव
Sahibzaday (offspring): Prithi Chand, Mahadev and Arjun Dev 
ज्योति ज्योत (स्वर्ग करने के उदगम): गोइंदवाल में 1 सितम्बर 1581
Joti Jyot (ascension to heaven): September 1, 1581 at Goindwal 



श्री गुरु रामदास जी  का जन्म श्री हरिदास मल जी सोढी व माता दया कौर जी की पवित्र कोख से कार्तिक वदी 2 संवत 1561 को बाज़ार चूना मंडी लाहौर में हुआ| इनके बचपन का नाम जेठा जी था| बालपन में ही इनकी माता दया कौर जी का देहांत हो गया| जब आप सात वर्ष के हुए तो आप के पिता श्री हरिदास जी भी परलोक सिधार गए| इस अवस्था में आपको आपकी नानी अपने साथ बासरके गाँव में ले गई| बासरके आपके ननिहाल थे| यहाँ आकर आप भी अन्य क्षत्री बालकों की तरह घुंगणियाँ (उबले हुए चने) बेचते थे| जब श्री गुरु अमरदास जी चेत्र सुदी 4 संवत 1608 में गुरुगद्दी पर आसीन हुए तो आप जेठा जी का और भी ख्याल रखते थे| आपकी सहनशीलता, नम्रता व आज्ञाकारिता के भाव देखकर गुरु अमरदास जी ने अपनी छोटी बेटी की शादी 22 फागुन संवत 1610 को जेठा जी (श्री गुरु रामदास जी) से कर दी| श्री रामदास जी के घर तीन पुत्र पैदा हुए: 

· श्री बाबा प्रिथी चँद जी संवत 1614 में 

· श्री बाबा महादेव जी संवत 1617 में 

· श्री (गुरु) अर्जन देव जी वैशाख 1620 में 


विवाह के बाद भी श्री (गुरु) रामदास जी पहले की तरह ही गुरु घर के लंगर और संगत की सेवा में लगे रहते|

बीबी भानी अपने गुरु जी की बहुत सेवा करती| प्रातःकाल उठकर अपने गुरु पिता को गरम पानी के साथ स्नान कराती और फिर गुरुबाणी का पाठ करके लंगर में सेवा करती| एक दीन बीबी ने देखा कि चौकी का पावा टूट गया है जिसपर बैठकर गुरु जी स्नान करते हैं| उस पावे के नीचे बीबी ने अपना हाथ रख दिया ताकि गुरु जी के वृद्ध शरीर को चोट ना लगे| बीबी के हाथ में पावे का कील लग गया और खून बहने लगा| जब गुरु जी स्नान करके उठे तो बीबी से बहते खून का कारण पूछा| बीबी ने सारी बात गुरु जी को बताई| बीबी की बात सुनकर गुरु जी प्रसन्न हो गए और आशीर्वाद देने लगे कि संसार में आपका वंश बहुत बढ़ेगा जिसकी सारा संसार पूजा करेगा|
Viewing all 4286 articles
Browse latest View live