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गौतम मुनि और अहल्या की साखी

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ॐ साँई राम जी



गौतम मुनि और अहल्या की साखी

प्राचीन काल से भारत में अनेक प्रकार के प्रभु भक्ति के साथ रहे हैं| उस पारब्रह्म शक्ति की आराधना करने वाले कोई न कोई साधन अख्तयार कर लेते थे जैसा कि उसका 'गुरु'शिक्षा देने वाला परमात्मा एवं सत्य मार्ग का उपदेश करता था भाव-प्रभु का यश गान करता था| ऐसे ही भक्तों में एक गौतम ऋषि जी हुए हैं| गुरुबाणी में विद्यमान है| 'गौतम रिखि जसु गाइओ ||'जिसका भावार्थ है कि गौतम ऋषि ने जिस तरह प्रभु का सिमरन एवं गुणगान किया था, वह प्रभु का प्यारा भक्त हुआ| पुराणों में जिसकी एक कथा का वर्णन है, जो महापुरुषों और जिज्ञासुओं को इस प्रकार सुनाई जाती है|

गौतम ऋषि सालगराम शिवलिंग के पुजारी थे| उन्होंने कई वर्ष परमात्मा की कठिन तपस्या की| भोले भंडारी शिव जी महाराज ने इन पर कृपालु होकर वर दिया-हे गौतम! जो मांगोगे वही मिलेगा| तेरी हर इच्छा पूर्ण होगी| हम तुम पर अति प्रसन्न हैं|

यह वर लेकर गौतम ऋषि बड़े प्रसन्न हुए और दिन-रात प्रभु के सिमरन में व्यतीत करने लगे| संयोग से गौतम ऋषि को एक दिन पता चला कि मुदगल की कन्या जिसका नाम अहल्या था, उसके विवाह हेतो स्वयंवर रचा जा रहा है| अहल्या इतनी सुन्दर थी कि हरेक उससे शादी करने का इच्छावान था| इन्द्र जैसे स्वर्ग के राजा महान शक्तियों वाले देवते भी तैयार थे| देवताओं और ऋषियों की इच्छा, उनके क्रोध को देखकर मुदगल ने ब्रह्मा जी से विनती की - हे प्रभु! मेरी कन्या के शुभ कार्य के बदले युद्ध होना ठीक नहीं| आप हस्तक्षेप करके देवताओं को समझाएं| वह युद्ध न करें तथा कोई और उपाय सोचकर कृपा करें|

ब्रह्मा जी ने विनती स्वीकार कर ली| वह स्वयं ही सालस बन बैठे और उन्होंने सारे देवताओं व ऋषियों-मुनियों, जो विवाह करवाने के चाहवान थे, को इकट्ठा करके कहा-देखो! मुदगल की पुत्री सुन्दर है लेकिन उसको वर एक चाहिए| आप सब चाहवान हैं| यह भूल है| यदि स्वयंवर मर्यादा पर चलना है तो आप में से जो चौबीस मिनटों में धरती का चक्कर लगाकर प्रथम आए, उससे अहल्या का विवाह कर दिया जाएगा|

ब्रह्मा जी से ऐसी शर्त सुनकर सारे देवता पहले तो बड़े हैरान हुए लेकिन फिर सबने अपने-अपने तपोबल पर मां करके यह शर्त परवान कर ली| देवराज इन्द्र तथा ब्रह्मा जी के पुत्रों सनक, सनन्दन, सनातन और सनत को बड़ा अभिमान था| उन्होंने मन ही मन में सोचा की वह बाजी जीत जाएंगे| त्रिलोकी की परिक्रमा करनी उनके लिए कठिन नहीं|

मुदगल की पुत्री अहल्या की सुन्दरता और शोभा सुनकर गौतम ने उससे विवाह रचाने की इच्छा रखी और अपने सालगराम से प्रार्थना की| सालगराम ने गौतम ऋषि को दर्शन दिए और कहा-हे गौतम! यदि आपकी ऐसी इच्छा है तो वह अवश्य पूर्ण होगी| आप मेरी परिक्रमा कर लें, बस त्रिलोकी की परिक्रमा हो जाएगी| आप सबसे पहले ब्रह्मा जी को दिखाई देंगे|

विवाह के लिए शर्त की दौड़ शुरू हो गई| ऋषि गौतम ने सालगराम की परिक्रमा कर ली| उधर देवराज इन्द्र तथा अन्य देवता जब परिक्रमा करने लगे तो वह बहुत तेज चले| हवा से भी अधिक रफ्तार पर दौड़ते गए लेकिन जिस पड़ाव पर जाते, वहां गौतम ऋषि होते| वे बड़े हैरान हुए तथा गुस्से में आकर मारने के लिए भागे मगर वह तो माया रूपी हो चुके थे| इसलिए कोई ताकत उनको नष्ट नहीं कर सकती थी|

भगवान सालगराम की महान शक्ति से गौतम ब्रह्मा जी के पास पहले आ गए| ब्रह्मा जी अत्यंत प्रसन्न हुए| फिर ब्रह्मा जी ने अहल्या तथा गौतम को परिणय सूत्र में बांधने का फैसला किया| यह सुनकर देवता बड़े निराश और नाराज हुए, उन्होंने बड़ी ईर्ष्या की| जबरदस्ती छीनने का प्रयास किया, पर ब्रह्मा जी की शक्ति के आगे उनकी एक न चली| वह वापिस अपने-अपने स्थानों पर चले गए| गौतम अहल्या को लेकर अपने आश्रम में आ गया| गौतम का आश्रम गंगा के किनारे था| वह तपस्या करने लगा, उसकी महिमा दूर-दूर तक फैल गई|

इन्द्र देवता नाराज हो गए, देश में अकाल पड़ गया, सारी धरती दहक उठी| साधू, संत, ब्राह्मण तथा अन्य सब लोग बहुत दुखी हुए| उनके दुःख को देख कर गौतम ऋषि का दिल भी बड़ा दुखी हुआ| उसने सालगराम की पूजा की और प्रार्थना की कि हे भगवान! मुझे शक्ति दीजिए ताकि मैं भूखे लोगों को भोजन खिलाकर उनकी भूख को मिटा सकूं| भगवान ने गौतम की प्रार्थना स्वीकार कर ली और गौतम ने लंगर लगा दिया, भगवान की ऐसी कृपा हुई कि किसी चीज़ की कोई कमी न रही| हर किसी ने पेट भर कर और अपने मनपसंद का खाना खाया| गौतम का यश तीनों लोकों में फैल गया| उसके यश को देखकर इन्द्र और भी तड़प उठा, वह पहले ही अहल्या को लेकर क्रोधित था| इन्द्र ने माया शक्ति से काम लेना चाहा| इस माया शक्ति से उसने एक गाय बनाई, गाय की रचना इस प्रकार की कि जब गौतम उसे हाथ लगाएगा तो वह मर जाएगी|

वह गाय गौतम के आश्रम में पहुंची| गौतम आश्रम से बाहर निकला तो गाय को काटने के लिए उसने जब हाथ लगाया तो वह धरती पर गिर कर मर गई|

इन्द्र की चाल के अनुसार ब्राह्मणों ने शोर मचा दिया कि ऋषि गौतम के हाथ से गाय की हत्या हो गई, उसको अब प्रायश्चित करना चाहिए| पर सालगराम भगवान की कृपा से गौतम ऋषि को पता चल गया कि यह इन्द्र का माया जाल था| गौतम ने उन सब झूठे ब्राह्मणों को श्राप दिया और कहा-"जाओ! तुम्हारी भूख कभी नहीं मिट सकती, यह भूख जन्म-जन्म ऐसे ही रहेगी|"यह श्राप लेकर ब्राह्मण बहुत दुखी हुए और गौतम ने भोजन बंद कर दिया|

इस प्रकार दिन-प्रतिदिन गौतम का यश बढ़ता गया और वह अहल्या के साथ जीवन व्यतीत करता रहा| उसके घर एक कन्या ने जन्म लिया| वह कन्या भी बहुत रूपवती थी| वह आश्रम में खेल कूद कर पलने बढ़ने लगी|

इन्द्र ने अपना हठ न छोड़ा| वह अहल्या के पीछे लगा रहा| वह प्रेम लीला करने के लिए व्याकुल था| वासना की ज्वाला उसे दुखी करती थी| उसकी व्याकुलता बाबत भाई गुरदास जी ने वचन किया है :-

गोतम नारि अहलिआ तिस नो देखि इंद्र लोभाणा |
पर घर जाइ सराप लै होई सहस भग पछोताणा |
सुंञा होआ इन्द्र लोक लुकिआ सरवर मन शरमाणा |
सहस भगहु लोइण सहस लैदोई इन्द्र पुरी सिधाणा |
सती सतहुं टलि सिला होइ नदी किनारे बाझ पराणा |
रघुपति चरन छुहंदिआं चली स्वर्ग पुर सणे बिबाणा |
भगत वछ्ल भलीआई अहुं पतित उधारण पाप कमाणा |
गुण नो गुण सभको करै अउगुण कीते गुण तिस जाणा |
अवगति गति किआ आखि वखाणा |१८|

भाई गुरदास जी अहल्या की कथा बताते हुए कहते हैं कि अहल्या का सौंदर्य देख कर इन्द्र लोभ में आ गया था| उसे कोई बुद्धिमानों ने समझाया-हे इन्द्र! पराई-नारी का भोग मनुष्य को नरक का भागी बनाता है| इस तरह का विचार कभी भी अपने मन में नहीं लाना चाहिए| आपकी पहले ही अनेक रानियां हैं| सारी इन्द्रपुरी नारि सुन्दरता से भरी पड़ी है, उन्हें धोखा नहीं देना चाहिए| पतिव्रता नारी एक महान शक्ति है|

पर जब इन्द्र ने हठ न छोड़ा तो उसके एक धूर्त सलाहकार ने कहा कि 'गौतम जिस समय गंगा स्नान करने जाता है, तब पूजा - पाठ का समय होता है| उस समय भोग-विलास नहीं किया जाता, प्रभु का गुणगान किया जाता है| अच्छा यह है कि आप माया शक्ति से मुर्गे और चन्द्रमा से सहायता लें|

'वह क्या सहायता करेंगे?'इन्द्र ने पूछा| मुझे इसके बारे में जरा विस्तार से बताओ|

इन्द्र की बात सुनकर उसके सलाहकार ने कहा-'मुर्गे की बांग से गौतम सुबह उठता है और चन्द्रमा निकलने पर वह गंगा स्नान करने जाता है| अगर मुर्गा पहले बांग दे दे और चन्द्रमा पहले निकल जाए तो वह गंगा स्नान करने चला जाएगा और इस प्रकार आपको एक सुनहरी अवसर मिल जाएगा|'

'यह तो बहुत अच्छी चाल है|'इन्द्र ने कहा| इन्द्र खुशी से बोला - मैं अभी मुर्गे और चन्द्रमा से सहायता मांगता हूं, उनसे अभी बात करता हूं| वह अवश्य ही मेरी सहायता करेंगे| फिर साहस करके इन्द्र मुर्गे और चन्द्रमा के पास पहुंचा| उनको सारी बात बताई और अपने पाप का भागी उन्हें भी बना लिया| वे दोनों उसकी सहायता करने को तैयार हो गए| उनकी बुद्धि भ्रष्ट हो गई थी|

रात नियत की गई तथा नियत रात को ही मुर्गे ने बांग दे दी| चन्द्रमा भी निकल आया| गौतम ने मुर्गे की बांग सुनी तो अपना तौलिया धोती उठा कर गंगा स्नान के लिए चल पड़ा| वास्तव में अभी गंगा स्नान का समय नहीं हुआ था| जब वह गंगा स्नान करने लगा तो आकाशवाणी हुई 'हे ऋषि गौतम! असमय आकार ही स्नान करने लगे हो, अभी तो स्नान का समय नहीं है| तुम्हारे साथ धोखा हुआ है| यह सब एक माया जाल है| तुम्हारे घर पर कहर टूट रहा है, जाओ जा कर अपने घर की खबर लो| यह आकाशवाणी सुनकर गौतम वापिस चल पड़ा|

उधर गौतम के जाने के पश्चात इन्द्र ने बिल्ले का रूप धारण किया| बिल्ले का रूप धारण करने का कारण यह था कि गौतम अहल्या को अकेले नहीं छोड़ता था क्योंकि देवता उसके पीछे पड़े थे| जब भी गौतम स्नान करने जाता तो अपनी पुत्री अंजनी को कुटिया के सामने द्वार पर बिठा जाता था|

इन्द्र ने जब देखा कि अंजनी द्वार के आगे बैठी है और पूछेगी कि आप कौन है? तो वह क्या उत्तर देगा, इसलिए इन्द्र ने बिल्ले का रूप धारण कर लिया और भीतर चला गया| अंजनी ने ध्यान न दिया| इन्द्र की माया शक्ति से अंजनी को नींद आ गई, वह बैठी रही| भीतर जाकर इन्द्र ने गौतम मुनि का भेस धारण कर लिया, उसके जैसी ही सूरत बना ली| अहल्या को कुछ भी पता न चला| इन्द्र अहल्या से प्रेम-क्रीड़ा करने लग गया| अभी वह अंदर ही था कि बाहर से गौतम आ गया|

'अंदर कौन है?'अंजनी को गौतम ने पूछा| उस समय गौतम की आंखें गुस्से से लाल थीं| वह बहुत व्याकुल था|

'माजार'अंजनी ने उत्तर दिया| इसके दो अर्थ हैं एक तो 'मां का यार'और दूसरा 'बिल्ला'| वह बहुत घबरा गई|

गौतम भीतर चला गया| उसने देखा कि इन्द्र उसी का रूप धारण करके नग्न अवस्था में ही अहल्या के पास बैठा था| उसकी यह घिनौनी करतूत देखकर गौतम ऋषि ने अपने भगवान सालगराम को याद किया और इन्द्र को श्राप दिया - "हे इन्द्र! तू एक भग के बदले पाप का भागी बना है| तुम्हारे शारीर पर एक भग के बदले हजारों भग होंगे| तुम दुखी होकर दुःख भोगोगे|"

गौतम ऋषि का यह श्राप सुनकर इन्द्र घबराया| लेकिन इन्द्र पर श्राप प्रगट होने लगा| उसका शरीर फूटने लगा| हजार भग नज़र आने लगीं| शर्म का मारा छिपता रहा|

इन्द्र से ध्यान हटाकर गौतम ऋषि ने चन्द्रमा को श्राप दिया| तुम तो धर्मी थे, जगत को रोशन करने वाले मगर तुमने एक अधर्मी, पापी का साथ दिया है इसलिए डूबते-चढ़ते रहोगे, बस एक दिन सम्पूर्ण कला होगी| जबकि चांद पहले सम्पूर्ण कला में रहता था परन्तु उसी समय श्राप के बाद उसकी कला भी कम हो गई|

मुर्गे को भी श्राप दिया-'कलयुग में तुम असमय बांग दिया करोगे| तुम्हारी बांग पर कोई भरोसा नहीं करेगा|

गौतम ऋषि तब तीनों को श्राप दे कर फिर अहल्या की ओर मुड़ा| उस समय वह बहुत ही सुन्दर लग रही थी जिसके समान कोई दूसरी नारी न थी| उसको भी गौतम ने श्राप दे दिया-'हे अहल्या! तुम एक पतिव्रता स्त्री थी| क्या तुम्हारी बुद्धि भ्रष्ट हो गई थी जो एक पराये पुरुष को पहचान न सकी, पत्थर की तरह लेटी रही जाओ - तुम पत्थर का रूप धारण कर लोगी| तुम्हारा कल्याण न होगा| इस के पश्चात नारी का धर्म कमज़ोर हो जाएगा| कलयुग में नारी बदनाम होगी|

जब यह श्राप अहल्या ने सुना तो वह हाथ जोड़ कर प्रार्थना करने लगी-हे प्रभु! मेरा कोई दोष नहीं है, मैंने तो बस आपका रूप देखा| मुझे क्षमा करो, मेरे साथ धोखा हुआ है| मैं तो आपकी दासी हूं| मेरा धर्म है....|'

अहल्या का विलाप एवं पुकार सुनकर गौतम को दया आई और उसने दूसरा वचन किया - 'शिला के रूप में तुम्हें कुछ काल तक रहना पड़ेगा| जब श्री राम चन्द्र जी अवतार लेंगे तो उनके पवित्र चरण स्पर्श से तुम फिर से नारी रूप धारण करोगी और तुम्हारा कल्याण होगा|

आश्रम में से निकल कर अहल्या गंगा किनारे पहुंची तो उसका शरीर पत्थर हो गया| वह श्राप में सोई रही| अहल्या बहुत देर तक पत्थर बनी रही| श्री राम चन्द्र जी ने अयोध्या नगरी में जन्म लिया| श्री रामचन्द्र जी लक्ष्मण तथा विश्वामित्र के साथ जब उस तपोवन में आए तो उनके चरणों के स्पर्श से अहल्या फिर नारी रूप में आ गई|

उधर बृहस्पति के कहने पर इन्द्र फिर गौतम के पास गया और अपनी भूल की माफी मांगी हाथ जोड़े, पैर पकड़े, कहा-फिर कभी पर-नारी कोई नहीं देखूंगा| तब इन्द्र का रोगी शरीर भी ठीक हो गया| वह अपने इन्द्र लोक चला गया|



भक्त अम्ब्रीक जी

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ॐ साँई राम जी



भक्त अम्ब्रीक जी


अंबरीक मुहि वरत है राति पई दुरबासा आइआ|
भीड़ा ओस उपारना उह उठ नहावण नदी सिधाइआ|
चरणोदक लै पोखिआ ओह सराप देण नो धाइआ|
चक्र सुदरशन काल रूप होई भिहांवल गरब गवाइआ|
ब्राहमण भंना जीउ लै रख न हंघन देव सबाइआ|
इन्द्र लोक शिव लोक तज ब्रहम लोक बैकुंठ तजाइआ|
देवतिआं भगवान सण सिख देई सभना समझाइआ|
आई पइआ सरणागती मरीदा अंबरीक छुडाइआ|
भगत वछलु जग बिरद सदाइआ|४|

हे भगत जनो! भाई गुरदास जी के कथन अनुसार अम्ब्रीक भी एक महान भक्त हुआ है| इनकी महिमा भी भक्तों में बेअंत है| आप को दुरबाशा ऋषि श्राप देने लगे थे लेकिन स्वयं ही दुरबाशा ऋषि राजा अम्ब्रीक के चरणों में गिर गए| ऐसा था वह भक्त|

भक्त अम्ब्रीक पहले दक्षिण भारत का राजा था और वासुदेव अथवा श्री कृष्ण भक्त था| यह माया में उदासी भक्त था| इनके पिता का नाम भाग था| वह भी राजा था| जब यह युवा हुआ तो राजसिंघासन पर आसीन हुआ| राजा साधू-संतों की अत्यंत सेवा किया करता था और आए गए जरूरत मंदों की सहायता करता था|

राजा अम्ब्रीक में बहुत सारे गुण विद्यमान थे| वह अपनी सारी इन्द्रियों को वश में रखता था| वह प्रत्येक व्यक्ति को एक आंख से ही देखता और हर निर्धन, धनी, सन्त और भिक्षुक का ध्यान रखता| बुद्धि से सोच-विचार कर जरूरत मंदों की सेवा करता जितनी उनको आवश्यकता होती| वह भंडारा करके अपने हाथों से प्रसाद श्रद्धालुओं में बांटता| वह प्रतिदिन राम का सिमरन करता तथा नंगे पांव चलकर तीर्थ यात्रा के लिए जाता और कानों से सत्संग का उपदेश सुनता|

राजा अम्ब्रीक ऐसा त्यागी हो गया कि वह राज भवन, कोष, रानियां, घोड़े-हाथी किसी वस्तु पर अपना अधिकार नहीं समझता था| वह सब वस्तुएं प्रजा एवं परमात्मा की मानता था| एकादशी के व्रत रखता एवं पाठ-पूजा में सदा मग्न रहता| इस तरह राजा अम्ब्रीक को जीवन व्यतीत करते हुए कई वर्ष बीत गए|

एक वर्ष श्री कृष्ण जी की भक्ति की प्रेम मस्ती तथा श्रद्धा भावना में लीन होकर उसने प्रतिज्ञा की कि वह हर वर्ष एकादशियां रखेगा| तीन दिन निर्जला व्रत और मथुरा-वृंदावन में जाकर यज्ञ करके दान पुण्य भी देगा| उसने ऐसी प्रतिज्ञा कर ली| अम्ब्रीक एक आशावादी राजा था| उसने भरोसे में सभी बातें पूरी कर लीं और मंत्रियों सहित मथुरा-वृंदावन में पहुंच गया| मथुरा और वृंदावन में उसने यमुना स्नान करके यज्ञ लगाया| ब्राह्मणों को उपहार एवं दान दिया| वस्त्र तथा अन्न के अलावा सोने के सींगों वाली गऊएं भेंट में दान कीं| कई स्थानों पर पुराणों में लिखा है कि राजा अम्ब्रीक ने करोड़ों गाएं दान कीं| अर्थात् ढ़ेर सारा दान पुण्य किया|

ऐसा समय आ गया कि ब्राहमण छत्तीस प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजन खा कर तथा दान-दक्षिणा लेकर कृतार्थ होकर घर को विदा हो गए तो राजा को आज्ञा मिली कि वह अपना व्रत खोल ले| जब राजा ने अपना व्रत खोला तो वह खुशी-खुशी इच्छा पूर्ण होने पर स्वयं ही राजभवन को चल पड़ा|

राजा राज भवन में अभी पहुंचा भी नहीं था कि उसे मार्ग में दुरबाशा ऋषि आ मिले| राजा ने उन्हें झुककर प्रणाम किया और हाथ जोड़कर विनती की|

'हे शिरोमणि मुनिवर! क्या आप राजभवन में भोजन करेंगे| यज्ञ का भोजन लेकर तृप्त होकर निर्धन राजा अम्ब्रीक को कृतार्थ करें|'

'जैसी राजन की इच्छा! भोजन का निमंत्रण स्वीकार करता हूं लेकिन यमुना में स्नान करने के बाद|'

ऋषि दुरबाशा ने उत्तर दिया|

यह कहकर ऋषि चल पड़ा| उसने मन में अनित्य धारण किया था| वह दरअसल राजा अम्ब्रीक को मोह-माया के जाल में फंसाने हेतु आया था| वैसे भी दुरबाशा ऋषि मन का क्रोधी एवं छोटी-छोटी बातों पर श्राप दे दिया करता था| इसके श्राप देने से कितनों को ही नुक्सान पहुंचा, वह बड़े प्रसिद्ध थे|

निमंत्रण देकर प्रसन्नचित राजा अम्ब्रीक अपने राजमहल में चला आया और ऋषि दुरबाशा का इंतजार करने लग गया| द्वाद्वशी का समय भी बीतने के निकट था लेकिन ऋषि दुरबाशा न आया| पंडितों ने आग्रह किया कि राजन! आप व्रत खोल ले लेकिन अम्ब्रीक यही उत्तर देता रहा-'नहीं'! एक अतिथि के भूखे रहने से पहले मेरा व्रत खोलना ठीक नहीं|

ऋषि दुरबाशा पूजा-पाठ में लीन हो गया| वह जान-बूझकर ही देर तक न पहुंचा| जब ऋषि न आया तो ब्राह्मणों ने चरणामृत पीला कर व्रत खुलवा दिया और कहा कि चरणामृत अन्न नहीं|

ऋषि दुरबाशा समय पाकर राजा अम्ब्रीक के राज भवन में उपस्थित हुआ| उसने योग विद्या से अनुभव कर लिया कि राजा अम्ब्रीक ने व्रत खोल लिया है| उसे गुस्से करने का बहाना मिला गया| ऋषि दुरबाशा ने अम्ब्रीक को अपशब्द बोलने शुरू कर दिए| उसने कहा कि एक अतिथि को भोजन पान करवाए बिना आपने व्रत खोल कर शास्त्र मर्यादा का उल्लंघन किया है| आपको क्षमा नहीं किया जाएगा|

ऋषि दुरबाशा ने आग बबूला होकर कहा-चण्डाल! अधर्मी! मैं तुम्हें श्राप देकर भस्म कर दूंगा| महांमुनि क्रोध में आकर बुरा-भला कहता गया|

राजा अम्ब्रीक उनकी चुपचाप सुनता रहा| उसने उनकी किसी बात का बुरा नहीं मनाया और खामोश खड़ा रहा| राजा का हौंसला देखकर ऋषि का मन डोल गया लेकिन क्रोध वश होकर उसने कोई बात न की| जब दुरबाशा ऋषि अपशब्द कहकर शांत हुए तो राजा अम्ब्रीक ने हाथ जोड़कर विनती की-हे महामुनि जी! जैसे पूजनीय ब्राह्मणों ने आज्ञा की, वैसे ही मैंने व्रत खोला| आपकी हम राह देखते रहे| उधर से तिथि बीत रही थी| अगर भूल गई है तो भक्त को क्षमा करें| जीव भूल कर बैठता है| आप तो महा कृपालु धैर्यवान मुनि हैं| दया करें! कृपा करें! कुछ जीवन को रोशनी प्रदान करें| मैं श्राप लेने जीवन में नहीं आया| जीव कल्याण की इच्छा पूर्ण करने के लिए पूजा की है|

लेकिन इन बातों से ऋषि दुरबाशा का क्रोध शांत न हुआ| वह और तेज हो गया जैसे वह धर्मी राजा को तबाह करने के इरादा से ही आया हो| उसने अपने क्रोध को और चमकाया तथा क्रोध में आकर दुरबाशा ने अपने बालों की एक लट उखाड़ी| उस लट को जोर से हाथों में मलकर योग बल द्वारा एक भयानक चुड़ैल पैदा की और उसके हाथ में एक तलवार थमा दी जो बिजली की तरह चमक रही थी|

उस चुड़ैल को देखकर ब्राह्मण, माननीय लोग और राजभवन के सारे व्यक्ति डर गए| अधिकतर ने अपनी आंखें बंद कर लीं लेकिन धर्मनिष्ठ और भक्ति भाव वाला राजा अम्ब्रीक न डगमगाया और न ही डरा, वह शांत ही खड़ा रहा|

जैसे ही चुड़ैल धर्मनिष्ठ राजा अम्ब्रीक पर हमला करने लगी तो राजा के द्वार के आगे जो भगवान का सुदर्शन चक्र था, वह घूमने लगा| उसने पहले चुड़ैल का बाजू काट दिया और उसके बाद उसका सिर काट कर उसका वध कर दिया| वह चक्र फिर दुरभाशा ऋषि की तरफ हो गया| आगे-आगे दुरभाशा ऋषि तथा पीछे-पीछे सुदर्शन चक्र, दोनों देव लोक में जा पहुंचे लेकिन फिर भी शांति न आई| देवराज इन्द्र भी ऋषि की रक्षा न कर सका|

दुरबाशा बहुत अहंकारी ऋषि था| वह सदा साधू-संतों, भक्त जनों और अबला देवियों को क्रोध में आकर श्राप देता रहता था| उसने शकुंतला जैसी देवी को भी श्राप देकर अत्यंत दुखी किया था| इसलिए ईश्वर ने उसके अहंकार को तोड़ने के लिए ऐसी लीला रची|

भयभीत दुरबाशा ऋषि को देवताओं ने समझाया कि राजा अम्ब्रीक के अलावा आपका किसी ने कल्याण नहीं करना और आप मारे जाएंगे| परमात्मा उसके अहंकार को शांत करने के लिए ही यह यत्न कर रहा था| उसने तप किया, पर तप करने से वह अहंकारी हो गया|

दुरबाशा परलोक और देवलोक से फिर दौड़ पड़ा| वह पुन: राजा अम्ब्रीक की नगरी में आया और अम्ब्रीक के पांव पकड़ लिए| उसने मिन्नतें की कि हे भगवान रूप राजा अम्ब्रीक! मुझे बचाएं! मैं आगे से किसी साधू-संत को परेशान नहीं करुंगा| दया करें! मेरी भूल माफ करें!

जब दुरबाशा ऋषि ने ऐसी मिन्नतें की तो राजा अम्ब्रीक को उस पर दया आ गई| उसने दुरबाशा की दयनीय दशा देखी तो वह आंसू बह रहा था| राजा को उसकी दशा पर तरस आ गया| राजा अम्ब्रीक ने हाथ जोड़कर ईश्वर का सिमरन किया| प्रभु! दया करें, प्रत्येक प्राणी भूल करता रहता है| उसकी भूलों को माफ करना आपका ही धर्म है| हे दाता! आप कृपा करें! मेहर करें! राजा अम्ब्रीक ने ऐसी विनती करके जब सुदर्शन चक्र की तरफ संकेत किया तो वह अपने स्थान पर स्थिर हो गया| दुरबाशा के प्राणों में प्राण आए| सात सागरों का जल पीने वाला दुरबाशा ऋषि धैर्यवान राजा अम्ब्रीक से पराजित हो गया| उससे क्षमा मांगकर वह अपने राह चल दिया| इस प्रकार राजा अम्ब्रीक जो बड़ा प्रतापी था, संसार में यश कमा कर गया तथा भवजल से पार होकर प्रभु चरणों में लिवलीन होकर उनका स्वरूप हो गया| कोई भेदभाव नहीं रहा| भाई गुरदास जी के वचनों के अनुसार भक्त के ऊपर परमात्मा ने कृपा की जिससे भक्त अम्ब्रीक ने संसार से मोक्ष प्राप्त किया|


भक्त अंगरा जी

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ॐ साँई राम जी



भक्त अंगरा जी 

गुरु ग्रंथ साहिब में एक तुक आती है: 

'दुरबा परूरउ अंगरै गुर नानक जसु गाईओ ||'

जिसने ईश्वर कर नाम सिमरन किया है, यदि कोई पुण्य किया है, वह प्रभु भक्त बना ओर ऐसे भक्तों ने सतिगुरु नानक देव जी का यश गान किया है| अंगरा वेद काल के समय भक्त हुआ है| इसने सिमरन करके अथर्ववेद को प्रगट किया| कलयुग ओर अन्य युगों के लिए अंगरा भक्त ने ज्ञान का भंडार दुनिया के आगे प्रस्तुत किया| इस भक्त का सभी यश करते हैं| इस भक्त विद्वान के पिता का नाम उरु तथा माता का नाम आग्नेय था|

भक्त अंगरा एक राज्य का राजा था| इसके मन में इस बात ने घर कर लिया कि सभी प्रभु के जीव हैं ओर यदि किसी जीव को दुःख मिला तो इसके लिए राजा ही जिम्मेवार होगा| राजा को अपनी प्रजा का सदैव ध्यान रखना चाहिए| इन विचारों के कारण अंगरा बच-बच कर सावधानी से राज करता रहा| राज करते हुए उसे कुछ साल बीत गए|

एक दिन नारद मुनि जी घूमते हुए अंगरा की राजधानी में आए| राजा ने नारद मुनि का अपने राजभवन में बड़ा आदर-सत्कार किया| राजा अंगरा ने विनती की कि मुनिवर! राजभवन छोड़कर वन में जाकर तपस्या क्यों न की जाए? राज की जिम्मेदारी में अनेक बातें ऐसी होती हैं कि कुछ भी अनिष्ट होने से राजा उनके फल का भागीदार होता है| उसने कहा कि मैं ताप करके देव लोक का यश करने का इच्छुक हूं|

राजा अंगरा के मन की बात सुनकर नारद मुनि ने उपदेश किया - राजन! आपके ये वचन ठीक हैं| आपका मन राज करने से खुश नहीं है| मन समाधि-ध्यान लगाता है| मनुष्य का मन जैसा चाहे वही करना चाहिए| मन के विपरीत जाकर किए कार्य उत्तम नहीं होते| यह दुःख का कारण बन जाते हैं| जाएं! ईश्वर की भक्ति करें| 

देवर्षि नारद के उपदेश को सुनकर अंगरा का मन ओर भी उदास हो गया| उसने राज-पाठ त्याग कर अपने भाई को राज सिंघासन पर बैठा दिया तथा प्रजा की आज्ञा लेकर वह वनों में चला गया| अंगरा ने वन में जाकर कठोर तपस्या की| भक्ति करने से ऐसा ज्ञान हुआ कि उसके मन में संस्कृत की कविता रचने की उमंग जागी| उसने वेद पर स्मृति की रचना की| 17वीं स्मृति आपकी रची गई है|

अन्त काल आया| कहते हैं कि जब प्राण त्यागे तो ईश्वर ने देवताओं को आपके स्वागत के लिए भेजा| आप भक्ति वाले वरिष्ठ भक्त हुए| जिनका नाम आज भी सम्मानपूर्वक लिया जाता है| परमात्मा की भक्ति करने वाले सदा अमर हैं|
बोलो! सतिनाम श्री वाहिगुरू|

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 22

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ॐ सांई राम




आप सभी को शिर्डी के साँई बाबा ग्रुप की ओर से साईं-वार की हार्दिक शुभ कामनाएं, हम प्रत्येक साईं-वार के दिन आप के समक्ष बाबा जी की जीवनी पर आधारित श्री साईं सच्चित्र का एक अध्याय प्रस्तुत करने के लिए श्री साईं जी से अनुमति चाहते है |

हमें आशा है की हमारा यह कदम घर घर तक श्री साईं सच्चित्र का सन्देश पंहुचा कर हमें सुख और शान्ति का अनुभव करवाएगा
किसी भी प्रकार की त्रुटी के लिए हम सर्वप्रथम श्री साईं चरणों में क्षमा याचना करते है

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श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 22
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सर्प-विष से रक्षा - श्री. बालासाहेब मिरीकर, श्री. बापूसाहेब बूटी, श्री. अमीर शक्कर, श्री. हेमाडपंत,बाबा की सर्प मारने पर सलाह
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प्रस्तावना
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श्री साईबाबा का ध्यान कैसे किया जाय । उस सर्वशक्तिमान् की प्रकृति अगाध है, जिसका वर्णन करने में वेद और सहस्त्रमुखी शेषनाग भी अपने को असमर्थ पाते है । भक्तों की स्वरुप वर्णन से रुचि नहीं । उनकी तो दृढ़ धारणा है कि आनन्द की प्राप्ति केवल उनके श्रीचरणों से ही संभव है । उनके चरणकमलों के ध्यान के अतिरिक्त उन्हें अपने जीवन के सर्वोच्च लक्ष्य की प्राप्ति का अन्य मार्ग विदित ही नहीं । हेमाडपंत भक्ति और ध्यान का जो एक अति सरल मार्ग सुझाते है, वह यह है –
कृष्ण पक्ष के आरम्भ होने पर चन्द्र-कलाएँ दिन प्रतिदिन घटती चलती है तथा उनका प्रकाण भी क्रमशः क्षीण होता जाता है और अन्त में अमावस्या के दिन चन्द्रमा के पूर्ण विलीन रहने पर चारों ओर निशा का भयंकर अँधेरा छा जाता है, परन्तु जब शुक्ल पक्ष का प्रारंभ होता है तो लोग चन्द्र-दर्शन के लिए अति उत्सुक हो जाते है । इसके बाद द्घितीया को जब चन्द्र अधिक स्पष्ट गोचर नहीं होता, तब लोगों को वृक्ष की दो शाखाओं के बीच से चन्द्रदर्शन के लिये कहा जाता है और जब इन शाखाओं के बीच उत्सुकता और ध्यानपूर्वक देखने का प्रयत्न किया जाता है तो दूर क्षितिज पर छोटी-सी चन्द्र रेखा के दृष्टिगोचर होते ही मन अति प्रफुल्लि हो जाता है । इसी सिद्घांत का अनुमोदन करते हुए हमें बाबा के श्री दर्शन का भी प्रयत्न करना चाहिये । बाबा के चित्र की ओर देखो । अहा, कितना सुन्दर है । वे पैर मोड़ कर बैठे है और दाहिना पैर बायें घुटने पर रखा गया है । बांये हाथ की अँगुलियाँ दाहिने चरण पर फैली हुई है । दाहिने पैर के अँगूठे पर तर्जनी और मध्यमा अँगुलियाँ फैली हुई है । इस आकृति से बाबा समझा रहे है कि यदि तुम्हें मेरे आध्यात्मिक दर्शन करने की इच्छा हो तो अभिमानशून्य और विनम्र होकर उक्त दो अँगुलियों के बीच से मेरे चरण के अँगूठे का ध्यान करो । तब कहीं तुम उस सत्य स्वरुप का दर्शन करने में सफल हो सकोगे । भक्ति प्राप्त करने का यह सब से सुगम पंथ है ।
अब एक क्षण श्री साईबाबा की जीवनी का भी अवलोकन करें । साईबाबा के निवास से ही शिरडी तीर्थस्थल बन गया है । चारों ओर के लोगोंकी वहाँ भीड़ प्रतिदिन बढ़ने लगी है तथा धनी और निर्धन सभी को किसी न किसी रुप में लाभ पहुँच रहा है । बाबा के असीम प्रेम, उनके अदभुत ज्ञानभंडार और सर्वव्यापकता का वर्णन करने की सामर्थ्य किसे है । धन्य तो वही है, जिसे कुछ अनुभव हो चुका है । कभी-कभी वे ब्रहा में निमग्नरहने के कारण दीर्घ मौन धारण कर लिया करते थे । कभी-कभी वे चैतन्यघन और आनन्द मूर्ति बन भक्तों से घरे हुए रहते थे । कभी दृष्टान्त देते तो कभी हास्य-विनोद किया करते थे । कभी सरल चित्त रहते तो कभी कुदृ भी हो जाया करते थे । कभी संझिप्त और कभी घंटो प्रवचन किया करते थे । लोगों की आवश्यकतानुसार ही भिन्न-भिन्न प्रकारा के उपदेश देते थे । उनका जीवनी और अगाध ज्ञान वाचा से परे थे । उनके मुखमंडल के अवलोकन, वार्तालाप करने और लीलाएँ सुनने की इच्छाएँ सदा अतृप्त ही बनी रही । फिर भी हम फूले न समाते थे । जलवृष्टि के कणों की गणना की जा सकती है, वायु को भी चर्मकी थैल में संचित किया जा सकता है, परन्तु बाबा की लीलाओं का कोई भी अंत न पा सका । अब उन लीलाओं में से एक लीला का यहाँ भी दर्शन करें । भक्तों के संकटों के घटित होने के पूर्व ही बाबा उपयुक्त अवसर पर किस प्रकार उनकी रक्षा किया करते थे । श्री. बालासाहेब मिरीकर, जो सरदार काकासाहेब के सुपुत्र तथा कोपरगाँव के मामलतदार थे, एक बार दौरे पर चितली जा रहे थे । तभी मार्ग में, वे साईबाबा के दर्शनार्थ शिरडी पधारे । उन्होंने मसजिद में जाकर बाबा की चरण-वन्दना की और सदैव की भाँति स्वास्थ्य तथा अन्य विषयों पर चर्चा की । बाबा ने उन्हें चेतावनी देकर कहा कि क्या तुम अपनी द्घारकामाई को जानते हो । श्री. बालासाहेब इसका कुछ अर्थ न समझ सके, इसीलिए वे चुप ही रहे । बाबा ने उनसे पुनः कहा कि जहाँ तुम बैठे हो, वही द्घारकामाई है । जो उसकी गोद में बैठता है, वह अपने बच्चों के समस्त दुःखों और कठिनाइयों को दूर कर देती है । यह मसजिद माई परम दयालु है । सरल हृदय भक्तों की तो वह माँ है और संकटों में उनकी रक्षा अवश्य करेगी । जो उसकी गोद में एक बार बैठता है, उसके समस्त कष्ट दूर हो जाते है । जो उसकी छत्रछाया में विश्राम करता है, उसे आनन्द और सुख की प्राप्ति होती है । तदुपरांत बाबा ने उन्हें उदी देकर अपना वरद हस्त उनके मस्तक पर रख आर्शीवाद दिया । जब श्री. बालासाहेब जाने के लिये उठ खड़े हुए तो बाबा बोले कि क्या तुम ल्मबे बाबा (अर्थात् सर्प) से परिचित हो । और अपनी बाई मुट्ठी बन्द कर उसे दाहिने हाथ की कुहनी के पास ले जाकर दाहिने हाथ को साँप के सदृश हिलाकर बोले कि वह अति भयंकर है, परन्तु द्घारकामाई के लालों का वह कर ही क्या सकता है । जब स्वंय ही द्घारकामाई उनकी रक्षा करने वाली है तो सर्प की सामर्थ्य ही क्या है । वहाँ उपस्थित लोग इसका अर्थ तथा मिरीकर को इस प्रकार चोतावनी देने का कारण जानना चाहते थे, परन्तु पूछने का साहस किसी में भी न होता था । बाबा ने शामा को बुलाया और बालासाहेब के साथ जाकर चितली यात्रा का आनन्द लेने की आज्ञा दी । तब शामा ने जाकर बाबा का आदेश बालासाहेब को सुनाया । वे बोले कि मार्ग में असुविधायें बहुत है, अतः आपको व्यर्थ ही कष्ट उठाना उचित नहीं है । बालासाहेब ने जो कुछ कहा, वह शामा ने बाबा को बताया । बाबा बोले कि अच्छा ठीक है, न जाओ । सदैव उचित अर्थ ग्रहणकर श्रेष्ठ कार्य ही करना चाहिये । जो कुछ होने वाला है, सो तो होकर ही रहेगा । बालासाहेब ने पुनः विचार कर शामा को अपने साथ चलने के लिये कहा । तब शामा पुनः बाबाकी आज्ञा प्राप्त कर बालासाहेब के साथ ताँगे में रवाना हो गये । वे नौ बजे चितली पहुँचे और मारुति मंदिर में जाकर ठहरे । आफिस के कर्मचारीगण अभी नहीं आये थे, इस कारण वे यहाँ-वहाँ की चर्चायें करने लगे । बालासाहेब दैनिक पत्र पढ़ते हुए चटाई पर शांतिपूर्वक बैठे थे । उनकी धोती का ऊपरी सिरा कमर पर पड़ा हुआ था और उसी के एक भाग पर एक सर्प बैठा हुआ था । किसी का भी ध्यान उधर न था । वह सी-सी करता हुआ आगे रेंगने लगा । यह आवाज सुनकर चपरासी दौड़ा और लालटेन ले आया । सर्प को देखकर वह साँप साँप कहकर उच्च स्वर में चिल्लाने लगा । तब बालासाहेब अति भयभीत होकर काँपने लगे । शामा को भी आश्चर्य हुआ । तब वे तथा अन्य व्यक्ति वहाँ से धीरे से हटे और अपने हाथ में लाठियाँ ले ली । सर्प धीरे-धीरे कमर से नीचे उतर आया । तब लोगों ने उसका तत्काल ही प्राणांत कर दिया । जिस संकट की बाबा ने भविष्यवाणी की थी, वह टल गया और साई-चरणों में बालासाहेब का प्रेम दृढ़ हो गया ।
बापूसाहेब बूटी
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एक दिन महान् ज्योतिषी श्री. नानासाहेब डेंगलें ने बापूसाहेब बूटी से (जो उस समय शिरडी में ही थे) कहा आज का दिन तुम्हारे लिये अत्यन्त अशुभ है और तुम्हारे जीवन को भयप्रद है । यह सुनकर बापूसाहेब बडे अधीर हो गये । जब सदैव की भाँति वे बाबा के दर्शन करने गये तो वे बोले कि ये नाना क्या कहते है । वे तुम्हारी मृत्यु की भविष्यवाणी कर रहे है, परन्तु तुम्हें भयभीत होने की किंचित् मात्र भी आवश्यकता नहीं है । इनसे दृढ़तापूर्वक कह दो कि अच्छा देखे, काल मेरा किस भाँति अपहरण करता है । जब संध्यासमय बापू अपने शौच-गृह में गये तो वहाँ उन्हें एक सर्पत दिखाई दिया । उनके नौकर ने भी सर्प को देख लिया और उसे मारने को एक पत्थर उठाया । बापूसाहेब ने एक लम्बी लकड़ी मँगवाई, परन्तु लकड़ी आने से पूर्व ही वह साँप दूरी पर रेंगता हुआ दिखाई दिया । और तुरन्त ही दृष्टि से ओझल हो गया । बापूसाहेब को बाबा के अभयपूर्ण वचनों का स्मरण हुआ और बड़ा ही हर्ष हुआ ।
अमीर शक्कर
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अमीर शक्कर कोरले गाँव का निवासी था, जो कोपरगाँव तालुके में है । वह जाति का कसाई था और बान्द्रा में दलाली का धंधा किया करता था । वह प्रसिदृ व्यक्तियों में से एक था । एक बार वह गठिया रोग से अधिक कष्ट पा रहा था । जब उसे खुदा की स्मृति आई, तब काम-धंधा छोड़कर वह शिरडी आया और बाबा से रोग-निवृत्ति की प्रार्थना करने लगा । तब बाबा ने उसे चावड़ी में रहने की आज्ञा दे दी । चावड़ी उस समय एक अस्वास्थ्यकारक स्थान होने के कारण इस प्रकार के रोगियों के लिये सर्वथा ही अयोग्य था । गाँव का अन्य कोई भी स्थान उसके लिये उत्तम होता, परन्तु बाबा के शब्द तो निर्णयात्मक तथा मुख्य औषधिस्वरुप थे । बाबा ने उसे मसजिद में न आने दिया और चावड़ी में ही रहने की आज्ञा दी । वहाँ उसे बहुत लाभ हुआ । बाबा प्रातः और सायंकाल चावड़ी पर से निकलते थे तथा एक दिन के अंतर से जुलूस के साथ वहाँ आते और वहीं विश्राम किया करते थे । इसलिये अमीर को बाबा का सानिध्य सरलतापूर्वक प्राप्त हो जाया करता था । अमीर वहाँ पूरे नौ मास रहा । जब किसी अन्य कारणवश उसका मन उस स्थान से ऊब गया, तब एक रात्रि में वह चोरीसे उस स्थान को छोड़कर कोपरगाँव की धर्मशाला में जा ठहरा । वहाँ पहुँचकर उसने वहाँ एक फकीर को मरते हुए देखा, जो पानी माँग रहा था । अमीर ने उसे पानी दिया, जिसे पीते ही उसका देहांत हो गया । अब अमीर किंक्रतव्य-विमूढ़ हो गया । उसे विचार आया कि अधिकारियों को इसकी सूचना दे दूँ तो मैं ही मृत्यु के लिये उत्तरदायी ठहराया जाऊँगा और प्रथम सूचना पहुँचाने के नाते कि मुझे अवश्य इस विषय की अधिक जानकारी होगी, सबसे प्रथम मैं ही पकड़ा जाऊँगा । तब विना आज्ञा शिरडी छोड़ने की उतावली पर उसे बड़ा पश्चाताप हुआ । उसने बाबा से मन ही मन प्रार्थना की और शिरडी लौटने का निश्चय कर उसी रात्रि बाबा का नाम लेते हुए पौ फटने से पूर्व ही शिरडी वापस पहुँचकर चिंतामुक्त हो गया । फिर वह चावड़ी में बाबा की इच्छा और आज्ञानुसार ही रहने लगा और शीघ्र ही रोगमुक्त हो गया ।
एक समय ऐसा हुआ कि अर्दृ रात्रि को बाबा ने जोर से पुकारा कि ओ अब्दुल कोई दुष्ट प्राणीमेरे बिस्तर पर चढ़ रहा है । अब्दुल ने लालटेन लेक बाबा का बिस्तर देखा, परन्तु वहाँ कुछ भी न दिखा । बाबा ने ध्यानपूर्वक सारे स्थान का निरीक्षण करने को कहा और वे अपना सटका भी जमीन पर पटकने लगे । बाबा की यह लीला देखकर अमीर ने सोचा कि हो सकता है कि बाबा को किसी साँप के आने की शंका हुई हो । दीर्घ काल तक बाबा की संगति में रहने के कारण अमीर को उनके शब्दों और कार्यों का अर्थ समझ में आ गया था । बाबा ने अपने बिस्तर के पास कुछ रेंगता हुआ देखा, तब उन्होंने अब्दुल से बत्ती मँगवाई और एक साँप को कुंडली मारे हुये वहाँ बैठे देखा, जो अपना फन हिला रहा था । फिर वह साँप तुरन्त ही मार डाला गया । इस प्रकार बाबा ने सामयिक सूचना देकर अमीर के प्राणों की रक्षा की ।
हेमाडपंत (बिच्छू और साँप)
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1. बाबा की आज्ञानुसार काकासाहेब दीक्षित श्रीएकनाथ महाराज के दो ग्रन्थों भागवत और भावार्थरामायण का नित्य पारायण किया करते थे । एक समय जब रामायण का पाठ हो रहा था, तब श्री हेमाडपंत भी श्रोताओं में सम्मिलित थे । अपनी माँ के आदेशानुसार किस प्रकार हनुमान ने श्री राम की महानताकी परीक्षा ली – यह प्रसंग चल रहा था, सब श्रोता-जन मंत्रमुग्ध हो रहे थे तथा हेमाडपंत की भी वही स्थिति थी । पता नहीं कहाँ से एक बड़ा बिच्छू उनके ऊपर आ गिरा और उनके दाहिने कंधे पर बैठ गया, जिसका उन्हें कोई भान तक न हुआ । ईश्वर को श्रोताओं की रक्षा स्वयं करनी पड़ती है । अचानक ही उनकी दृष्टि कंधे पर पड़ गई । उन्होंने उस बिच्छू को देख लिया । वह मृतप्राय.-सा प्रतीत हो रहा था, मानो वह भी कथा के आनन्द में तल्लीन हो । हरि-इच्छा जान कर उन्होंने श्रोताओं में बिना विघ्न डाले उसे अपनी धोती के दोनों सिरे मिलाकर उसमें लपेट लिया और दूर ले जाकर बगीचे में छोड़ दिया ।
2. एक अन्य अवसर पर संध्या समय काकासाहेब वाड़े के ऊपरी खंड में बैठे हुये थे, तभी एक साँप खिड़की की चौखट के एक छिद्र में से भीतर घुस आया और कुंडली मारकर बैठ गया । बत्ती लाने पर पहले तो वह थोड़ा चमका, फिर वहीं चुपचार बैठा रहा और अपना फन हिलाने लगा । बहुत-से लोग छड़ी और डंडा लेकर वहाँ दौड़े । परन्तु वह एक ऐसे सुरक्षित स्थान पर बैठा था, जहाँ उस पर किसी के प्रहार का कोई भी असर न पड़ता था । लोगों का शोर सुनकर वह शीघ्र ही उसी छिद्र में से अदृश्य हो गया, तब कहीं सब लोगों की जान में जान आई ।
बाबा के विचार
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एक भक्त मुक्ताराम कहने लगा कि चलो, अच्छा ही हुआ, जो एक जीव बेचारा बच गया । श्री. हेमाडपंत ने उसकी अवहेलना कर कहा कि साँप को मारना ही उचित है । इस कारण इस विषय पर वादविवाद होने लगा । एक का मत था कि साँप तथा उसके सदृश जन्तुओं को मार डालना ही उचित है, किन्तु दूसरे का इसके विपरीत मत था । रात्रि अधिक हो जाने के कारण किसी निष्कर्ष पर पहुँचे बिना ही ही उन्हें विवाद स्थगित करना पड़ा । दूसरे दिन यह प्रश्न बाबा के समक्ष लाया गया । तब बाबा निर्णयात्मक वचन बोले कि सब जीवों में और सम्स्त प्राणियों में ईश्वर का निवास है, चाहे वह साँप हो या बिच्छू । वे ही इस विश्व के नियंत्रणकर्ता है और सब प्राणी साँप, बिच्छू इत्यादि उनकी आज्ञा का ही पालन किया करते है । उनकी इच्छा के बिना कोई भी दूसरों को नहीं पहुँचा सकता । समस्त विश्व उनके अधीन है तथा स्वतंत्र कोई भी नहीं है । इसलिये हमें सब प्राणियों से दया और स्नेह करना चाहिए । संघर्ष एवं बैमनस्य या संहार करना छोड़कर शान्त चित्त से जरीवन व्यतीत करना चाहिए । ईश्वर सबका ही रक्षक है ।


।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

महर्षि वाल्मीकि जी

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ॐ साँई राम जी






महर्षि वाल्मीकि जी

महर्षि वाल्मीकि का जन्म त्रैता युग में अस्सू पूर्णमाशी को एक श्रेष्ठ घराने में हुआ| आप अपने आरम्भिक जीवन में बड़ी तपस्वी एवं भजनीक थे| लेकिन एक राजघराने में पैदा होने के कारण आप शस्त्र विद्या में भी काफी निपुण थे|

आप जी के नाम के बारे ग्रंथों में लिखा है कि आप जंगल में जाकर कई साल तपस्या करते रहे| इस तरह तप करते हुए कई वर्ष बीत गए| आपके शरीर पर मिट्टी दीमक के घर की तरह उमड़ आई थी| संस्कृत भाषा में दीमक के घरों को 'वाल्मीकि'कहा जाता है| जब आप तपस्या करते हुए मिट्टी के ढेर में से उठे तो सारे लोग आपको वाल्मीकि कहने लगे| आपका बचपन का नाम कुछ और था, जिस बारे कोई जानकारी पता नहीं लगी|

भारत में संस्कृत के आप पहले उच्चकोटि के विद्वान हुए हैं| आप जी को ब्रह्मा का पहला अवतार माना जाता है| प्रभु की भक्ति एवं यशगान से आपको दिव्यदृष्टि प्राप्त हुई थी और आप वर्तमान, भूतकाल तथा भविष्यकाल बारे साब कुछ जानते थे| श्री राम चन्द्र जी के जीवन के बारे आप जी को पहले ही ज्ञान हो गया था| इसलिए आप जी ने श्री राम चन्द्र जी के जीवन के बारे पहले 'रामायण'नामक एक महा ग्रंथ संस्कृत में लिख दिया था| बाद में जितनी भी रामायण अन्य कवियों तथा ऋषियों द्वारा लिखी गई है, वह सब इसी'रामायण'को आधार मानकर लिखी गई हैं|

जब महर्षि वालिमिकी को 'रामायण'की कहानी का पूर्ण ज्ञान हो गया तो आप जी ने एक दिन अपने एक शिष्य को बुलाया तथा तमसा नदी के किनारे पर पहुंच गए| इस सुन्दर नदी पर वह पहली बार आए थे| वह नदी के तट पर चलते-चलते बहुत दूर निकल गए| अंत में वह नदी के एक तट पर जाकर रुक गए|

नदी का वह किनारा बड़ा सुन्दर तथा हरा-भरा था| नदी का सुन्दर किनारा और निर्मल जल देखकर वालिमिकी जी बहुत प्रसन्न हुए| निर्मल जल को देखकर वह नदी पर स्नान करने गए| स्नान करते-करते वह उस जंगल में पहुंच गए जहां एक पेड़ पर बैठे चकवा चकवी प्रेम रस में डूबे हुए थे|

चकवा चकवी प्रेम करते बड़े प्रसन्न दिखाई दे रहे थे| वाल्मीकि जी अभी उनकी तरफ देख ही रही थी कि एक शिकारी उधर आ निकला|

उसने चकवे की हत्या कर दी| अपने प्यारे पति को तड़पता देखकर चकवी बहुत दुखी हुई तथा विलाप करने लग गई| शिकारी के निंदनीय कार्य को देखकर महर्षि वाल्मीकि बहुत क्रोधित हो गए| उन्होंने एक श्लोक संस्कृत में उच्चारण किया जिसका भाव था, 'हे शिकारी तूने जो प्रेम लीला कर रहे चकवे के प्राण लिए हैं इस कारण तेरी शीघ्र ही मृत्यु हो जाएगी तथा तेरी पत्नी भी इसी तरह दुखी होगी|'

वाल्मीकि जी के मुख से यह वचन स्वाभाविक ही निकल गए| फिर वह सोचने लगे कि मैं पक्षियों का दुःख देखकर यह सारा श्राप युक्त वचन क्यों कर बैठा| लेकिन जब अपने कहे हुए उत्तम तथा अलंकारक श्लोक की तरफ देखा तो बड़े प्रसन्न हुए| वह उस श्लोक को दोबारा गाने लगे| फिर उन्होंने अपने शिष्य भारद्वाज को कथन किया कि वह इस श्लोक को कंठस्थ कर ले ताकि इसे भूल न जाए| शिष्य भारद्वाज ने उस समय यह श्लोक कंठस्थ कर लिया|

इस तरह मासूम पक्षी की मृत्यु ने महर्षि वाल्मीकि के मन पर वेरागमयी प्रभाव डाला| पक्षी के तड़पने, मरने तथा मरने से पहले प्रेम लीला की झांकी महर्षि की आंखों से ओझल नहीं हो रही थी| इस विचार में डूबे हुए वाल्मीकि अपने आश्रम में आ पहुंचे|

लेकिन आश्रम में आकर भी आप उस श्लोक को मुंह में गुणगुनाने लगे| आप जी को दिव्यदृष्टि द्वारा जो श्री रामचन्द्र जी का जीवन चरित्र ज्ञात हुआ था, आप जी ने मन बनाया कि क्यों न उस श्लोक की धारणा में श्री रामचन्द्र जी का जीवन चरित्र लिख दिया जाए|

यह विचार बनाकर महर्षि वाल्मीकि जी सुन्दर ज्ञानवर्धक श्लोकों वाली 'रामायण'लिखने लगे| ऊंचे ख्यालों वाले शब्द, पिंगल तथा व्याकरण एवं नियम-उपनियम अपने आप उनके पास इकट्ठे होने लगे| फिर महर्षि वाल्मीकि जी जब अन्तर-ध्यान हुए तो श्री रामचन्द्र, लक्ष्मण, सीता, दशरथ, कैकेयी, माता कौशल्या तथा हनुमान आदि मुख्य पात्रों के बारे सारे छोटे से छोटे हाल का भी सूक्ष्म ज्ञान हो गया| यहां तक कि श्री रामचन्द्र जी का हंसना, बोलना, मुस्कराना, तथा खेलना भी कानों में सुनाई देने लगा| आंखें उनके वास्तविक स्वरूप को देखने लगीं| सीता तथा श्री रामचन्द्र जी के जो संवाद वन में होते रहे महर्षि जी को उनका भी ज्ञान होता गया| जो भी घटनाएं घटित हुई थीं, वे याद आ गईं|

फिर महर्षि वाल्मीकि जी ने अपने शिष्यों के पास से बेअंत भोज पत्र मंगवाए तथा उनके ऊपर लिखना शुरू कर दिया जो बहुत मनोहर हैं तथा सम्पूर्ण रचना को सात कांडों सात सौ पैंतालीस सरगों तथा चौबीस हजार श्लोकों में विभक्त किया गया है|

जब महर्षि वाल्मीकि रामायण का मुख्य भाग लिख चुके थे तो सीता माता श्री रामचन्द्र की ओर से वनवास दिए जाने के कारण उनके आश्रम में आई| आप जी ने अपने सेवकों को सीता माता को पूरे आदर-सत्कार से रखने के लिए कहा| कुछ समय के बाद सीता माता के गर्भ से दो पुत्रों ने जन्म लिया| उन पुत्रों के नाम लव तथा कुश रखे गए| महर्षि ने उन बच्चों के पालन-पोषण का विशेष ध्यान रखा| अल्प आयु में ही उनकी शिक्षा शुरू कर दी| महर्षि वाल्मीकि स्वयं लव एवं कुश को पढ़ाते थे| बच्चों को संस्कृत विद्या के साथ-साथ संगीत तथा शस्त्र विद्या भी दी जाती थी| वाल्मीकि लव एवं कुश को रामायण भी पढ़ाने लगे|

वह दोनों बालक शीघ्र ही संस्कृत के विद्वान, संगीत के सम्राट बन गए| वे शस्त्र विद्या में भी काफी निपुण हो गए| महर्षि ने सोचा कि इन बालकों के द्वारा राम कथा को जगत में प्रचारित किया जाए| उन बालकों को वाल्मीकि ने राम कथा मौखिक याद करने के लिए कहा| बालकों लव कुश ने कुछ समय में ही चौबीस हजार श्लोक कंठस्थ कर लिए| वह अपने मीठे गले तथा सुरीली सुर में रामायण गाने लगे| उन्होंने दो सात सुरों वाली वीणाएं लीं तथा राम कथा का गुणगान करने लगे|

जब वह गायन कला में परिपूर्ण हो गए तो वाल्मीकि जी ने उनको आज्ञा दी की वह दूर-दूर जाकर उस उच्च तथा कल्याणकारी काव्य का प्रचार करें| दोनों राजकुमार जो श्रीराम चन्द्र जी के समान सुन्दर, विद्वान तथा बलशाली थे, ऋषियों, साधुओं तथा जनसमूह में जाकर रामकथा का गायन किया करते थे| उनके सुरीले गान ने काव्य को ओर ऊंचा कर दिया| जब वह गाते तो श्रोता बहुत प्रसन्न एवं वैरागमयी हो जाते| सब के नेत्रों में श्रद्धा, हमदर्दी तथा भक्ति के नीर बहने लग जाते| प्रत्येक नर-नारी उनकी उपमा करके बालकों लव कुश के पीछे-पीछे चल पड़ते| लव कुश केवल उस काव्य का गायन ही नहीं कर रहे थे बल्कि एक नया संदेश भी दे रहे थे| भूतकाल की घटनाएं वर्तमान काल की घटनाएं प्रतीत हो रही थीं| लव तथा कुश रामकथा का गायन करके वापिस महर्षि वाल्मीकि जी के आश्रम में आ जाया करते थे| वह अपनी माता सीता जी का बहुत सत्कार करते थे|

उन दिनों में ही श्री रामचन्द्र जी ने चक्रवर्ती राजा बनने के लिए अश्वमेध यज्ञ करने का फैसला किया| उन्होंने यज्ञ के लिए एक घोड़ा छोड़ा तथा ऐलान किया कि जो इस घोड़े को पकड़ेगा, उसे लक्ष्मण के साथ युद्ध करना होगा| लक्ष्मण एक बड़ी सेना लेकर घोड़े के पीछे-पीछे जा रहा था| जब यह घोड़ा महर्षि वाल्मीकि के आश्रम के निकट पहुंचा तो लव कुश ने उस घोड़े को पकड़ लिया तथा अपने आश्रम आकर एक पेड़ के साथ बांध दिया| जब लक्ष्मण सेना लेकर निकट आया तो उसने बालकों को घोड़ा छोड़ने के लिए कहा| लेकिन लव कुश ने मना कर दिया ओर कहा, "हमें यह घोड़ा बहुत पसंद है, हम इसकी सवारी किया करेंगे, आप कोई अन्य घोड़ा छोड़ दीजिए|"लेकिन लक्ष्मण ने उनको समझाया कि 'यह अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा है जो भी इस घोड़े को पकड़ेगा, उसे हमारे साथ युद्ध करना पड़ेगा|"पर बालक आगे से कहने लगे, "हम युद्ध करने को तैयार हैं लेकिन हम घोड़ा नहीं छोड़ेंगे|"

लक्ष्मण ने उनको युद्ध के लिए तैयार होने के लिए कहा| वह बालक भी महर्षि वाल्मीकि जी से युद्ध विद्या का ज्ञान प्राप्त कर चुके थे तथा जो योद्धा ब्रह्मज्ञानी वाल्मीकि से युद्ध विद्या ग्रहण कर चूका हो, वह भला कैसे हार सकता है| इसलिए दोनों बालक तीर कमान लेकर तथा कवच पहन कर घोड़ों पर सवार होकर मैदान में आ गए| लक्ष्मण की सेना के सामने डटकर उन्होंने निर्भीकता से कहा, "यदि आप में हिम्मत है तो हमारे ऊपर हमला करो|"

लक्ष्मण ने एक तीर छोड़ा जिसे लव ने अपने तीर से ही रोक लिया| फिर लव कुश ने तीरों की ऐसी वर्षा की कि लक्ष्मण की सेना वहीं पर ढेर हो गई| लक्ष्मण यह चमत्कार देखकर बड़ा हैरान हुआ, वह फिर बालकों को समझाने लगा| लेकिन लव कुश ने लक्ष्मण को वही मार दिया|

लक्ष्मण की हार के बारे में जब श्री राम चन्द्र जी को पता लगा तो उन्होंने शत्रुघ्न को एक बड़ी फौज देकर रणभूमि में भेजा| लेकिन शत्रुघ्न भी दोनों बालकों का मुकाबला न कर सका तथा पराजित हो गया| उसे भी महर्षि वाल्मीकि के शिष्यों ने धरती पर धूल चटा दी|

शत्रुघ्न की हार का समाचार सुनकर श्री रामचन्द्र जी ने भरत को भेजा| भरत ने पहले आकर लव कुश को बहुत समझाया लेकिन बालकों के ऊपर इसका कोई असर न हुआ| उन्होंने भरत की भी सारी सेना को मार डाला तथा भरत भी मूर्छित होकर गिर पड़ा|

फिर श्री रामचन्द्र भी स्वयं सेना लेकर आए| वह ऐसे शूरवीर बालकों को देख कर बहुत खुश हुए| उन्होंने बालकों की भूरि-भूरि प्रशंसा की तथा उनको घोड़ा छोड़ने के लिए कहा| पर बालकों ने उनकी बात की तरफ कोई ध्यान न दिया तथा युद्ध आरम्भ कर दिया| कुछ ही समय में श्री रामचन्द्र जी की सेना मार फेंकी|

अंत में उन्होंने श्री रामचन्द्र जी को भी घायल कर दिया| पूर्ण तौर पर विजय प्राप्त करके लव-कुश माता सीता को मिलने गए तथा कहा कि उन्होंने भारत के सर्वश्रेष्ठ राजा को पराजित कर दिया है तथा अब सारे देश के मालिक बन गए हैं| जब सीता माता ने यह बात सुनी तो उनको शक हुआ कि इस देश के राजा तो श्री रामचन्द्र जी हैं, इन्होने कहीं अपने पिता जी को ही न पराजित कर दिया हो| वह उसी समय रणभूमि पर उस रजा को देखने गई| जब उन्होंने श्री रामचन्द्र जी को घायल अवस्था में मूर्छित देखा तो ऊंची-ऊंची रोने लग पड़ी और कहा कि तुम दोनों ने मेरा सुहाग मुझ से छीन लिया है| यह बात सुनकर बालक बड़े हैरान हुए| फिर सीता माता ने परमात्मा के आगे प्रार्थना की कि यदि मैं पतिव्रता स्त्री हूं तो प्रभु मेरे सुहाग को जीवन दान दें| महर्षि वाल्मीकि जी को भी सारी बात का पता लग गया| उन्होंने श्री रामचन्द्र जी के मुंह पर पवित्र जल के छींटे मारे तो वह उठ कर बैठ गए| अपने पास दो शूरवीर बालकों, सीता तथा महर्षि वाल्मीकि जी को देख कर बहुत हैरान हुए| महर्षि जी ने फिर उनको सारी बात समझाई| श्री रामचन्द्र जी ने सीता माता का धन्यवाद किया तथा अपने दो शूरवीर पुत्रों को देख कर बहुत खुश हुए| फिर उन्होंने महर्षि वाल्मीकि जी को कहा कि अपनी कृपा दृष्टि से मेरे दूसरे भाईयों और सेना को भी जीवन दान की कृपा करें| सीता माता ने फिर प्रार्थना की तो रामचन्द्र जी के सारे भाई तथा सैनिक जीवित होकर उठ खड़े हुए| फिर श्री रामचन्द्र जी महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में गए तथा सीता ओर बालकों को साथ ले जाने की इच्छा प्रगट की| वाल्मीकि जी ने बड़ी प्रसन्नता के साथ ले जाने की इच्छा प्रगट की| वाल्मीकि जी ने बड़ी प्रसन्नता के साथ सीता माता तथा बालकों को उनके साथ जाने की आज्ञा दे दी| दोनों बालक ओर सीता माता अयोध्या पहुंच गए| जब सारे नगर वासियों को पता लगा तो उन्होंने बहुत खुशियां मनाईं| शूरवीर बालकों को देखने के लिए सारा नगर उमड़ आया|

लव और कुश जिन को राम कथा सम्पूर्ण मौखिक याद थी उन्होंने सारी कथा सुरीली मधुरवाणी में नगर वासियों को सुनाई| श्री रामचन्द्र जी अपनी सारी जीवन कथा सुन कर धन्य हो गए| उन्होंने महर्षि वाल्मीकि कृत इस अमर कथा को सुन कर कहा, "जब तक यह दुनिया रहेगी महर्षि वाल्मीकि जी की यह कथा चलती रहेगी, धन्य हैं महर्षि वाल्मीकि जी, उनकी सदा ही जै होगी|"

वाल्मीकि जी ने बाद में उत्तराकांड लिखा| इस तरह वाल्मीकि जी एक उच्चकोटि के विद्वान तथा शस्त्रधारी शूरवीर थे| उनमें एक अवतार वाले सारे गुण विद्यमान थे| आज अगर संसार श्री रामचन्द्र जी को कहानी को जानता है तो वह केवल महर्षि वाल्मीकि जी की मेहनत के फलस्वरूप| उन्होंने अपने जीवन के कई साल उनकी जीवन गाथा को ब्यान करने में लगा दिए|

चालीसा श्री साईं बाबा जी

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ॐ साँई राम जी




चालीसा श्री साईं बाबा जी

|| चौपाई ||

पहले साई के चरणों में, अपना शीश नमाऊं मैं।
कैसे शिरडी साई आए, सारा हाल सुनाऊं मैं॥

कौन है माता, पिता कौन है, ये न किसी ने भी जाना।
कहां जन्म साई ने धारा, प्रश्न पहेली रहा बना॥

कोई कहे अयोध्या के, ये रामचंद्र भगवान हैं।
कोई कहता साई बाबा, पवन पुत्र हनुमान हैं॥

कोई कहता मंगल मूर्ति, श्री गजानंद हैं साई।
कोई कहता गोकुल मोहन, देवकी नन्दन हैं साई॥

शंकर समझे भक्त कई तो, बाबा को भजते रहते।
कोई कह अवतार दत्त का, पूजा साई की करते॥

कुछ भी मानो उनको तुम, पर साई हैं सच्चे भगवान।
ब़ड़े दयालु दीनबं़धु, कितनों को दिया जीवन दान॥

कई वर्ष पहले की घटना, तुम्हें सुनाऊंगा मैं बात।
किसी भाग्यशाली की, शिरडी में आई थी बारात॥

आया साथ उसी के था, बालक एक बहुत सुन्दर।
आया, आकर वहीं बस गया, पावन शिरडी किया नगर॥

कई दिनों तक भटकता, भिक्षा माँग उसने दर-दर।
और दिखाई ऐसी लीला, जग में जो हो गई अमर॥

जैसे-जैसे अमर उमर ब़ढ़ी, ब़ढ़ती ही वैसे गई शान।
घर-घर होने लगा नगर में, साई बाबा का गुणगान॥

दिग् दिगंत में लगा गूंजने, फिर तो साई जी का नाम।
दीन-दुखी की रक्षा करना, यही रहा बाबा का काम॥

बाबा के चरणों में जाकर, जो कहता मैं हूं नि़धoन।
दया उसी पर होती उनकी, खुल जाते दुःख के बंधन॥

कभी किसी ने मांगी भिक्षा, दो बाबा मुझको संतान।
एवं अस्तु तब कहकर साई, देते थे उसको वरदान॥

स्वयं दुःखी बाबा हो जाते, दीन-दुःखी जन का लख हाल।
अन्तःकरण श्री साई का, सागर जैसा रहा विशाल॥

भक्त एक मद्रासी आया, घर का बहुत ब़ड़ा ़धनवान।
माल खजाना बेहद उसका, केवल नहीं रही संतान॥

लगा मनाने साईनाथ को, बाबा मुझ पर दया करो।
झंझा से झंकृत नैया को, तुम्हीं मेरी पार करो॥

कुलदीपक के बिना अं़धेरा, छाया हुआ घर में मेरे।
इसलिए आया हँू बाबा, होकर शरणागत तेरे॥

कुलदीपक के अभाव में, व्यर्थ है दौलत की माया।
आज भिखारी बनकर बाबा, शरण तुम्हारी मैं आया॥

दे-दो मुझको पुत्र-दान, मैं ऋणी रहूंगा जीवन भर।
और किसी की आशा न मुझको, सिर्फ भरोसा है तुम पर॥

अनुनय-विनय बहुत की उसने, चरणों में ़धर के शीश।
तब प्रसन्न होकर बाबा ने , दिया भक्त को यह आशीश॥

`अल्ला भला करेगा तेरा´ पुत्र जन्म हो तेरे घर।
कृपा रहेगी तुझ पर उसकी, और तेरे उस बालक पर॥

अब तक नहीं किसी ने पाया, साई की कृपा का पार।
पुत्र रत्न दे मद्रासी को, धन्य किया उसका संसार॥

तन-मन से जो भजे उसी का, जग में होता है उद्धार।
सांच को आंच नहीं हैं कोई, सदा झूठ की होती हार॥

मैं हूं सदा सहारे उसके, सदा रहूँगा उसका दास।
साई जैसा प्रभु मिला है, इतनी ही कम है क्या आस॥

मेरा भी दिन था एक ऐसा, मिलती नहीं मुझे रोटी।
तन पर कप़ड़ा दूर रहा था, शेष रही नन्हीं सी लंगोटी॥

सरिता सन्मुख होने पर भी, मैं प्यासा का प्यासा था।
दुिर्दन मेरा मेरे ऊपर, दावाग्नी बरसाता था॥

धरती के अतिरिक्त जगत में, मेरा कुछ अवलम्ब न था।
बना भिखारी मैं दुनिया में, दर-दर ठोकर खाता था॥

ऐसे में एक मित्र मिला जो, परम भक्त साई का था।
जंजालों से मुक्त मगर, जगती में वह भी मुझसा था॥

बाबा के दर्शन की खातिर, मिल दोनों ने किया विचार।
साई जैसे दया मूर्ति के, दर्शन को हो गए तैयार॥

पावन शिरडी नगर में जाकर, देख मतवाली मूरति।
धन्य जन्म हो गया कि हमने, जब देखी साई की सूरति॥

जब से किए हैं दर्शन हमने, दुःख सारा काफूर हो गया।
संकट सारे मिटै और, विपदाओं का अन्त हो गया॥

मान और सम्मान मिला, भिक्षा में हमको बाबा से।
प्रतिबिम्‍िबत हो उठे जगत में, हम साई की आभा से॥

बाबा ने सन्मान दिया है, मान दिया इस जीवन में।
इसका ही संबल ले मैं, हंसता जाऊंगा जीवन में॥

साई की लीला का मेरे, मन पर ऐसा असर हुआ।
लगता जगती के कण-कण में, जैसे हो वह भरा हुआ॥

`काशीराम´ बाबा का भक्त, शिरडी में रहता था।
मैं साई का साई मेरा, वह दुनिया से कहता था॥

सीकर स्वयंं वस्त्र बेचता, ग्राम-नगर बाजारों में।
झंकृत उसकी हृदय तंत्री थी, साई की झंकारों में॥

स्तब़्ध निशा थी, थे सोय,े रजनी आंचल में चाँद सितारे।
नहीं सूझता रहा हाथ को हाथ तिमिर के मारे॥

वस्त्र बेचकर लौट रहा था, हाय ! हाट से काशी।
विचित्र ब़ड़ा संयोग कि उस दिन, आता था एकाकी॥

घेर राह में ख़ड़े हो गए, उसे कुटिल अन्यायी।
मारो काटो लूटो इसकी ही, ध्वनि प़ड़ी सुनाई॥

लूट पीटकर उसे वहाँ से कुटिल गए चम्पत हो।
आघातों में मर्माहत हो, उसने दी संज्ञा खो॥

बहुत देर तक प़ड़ा रह वह, वहीं उसी हालत में।
जाने कब कुछ होश हो उठा, वहीं उसकी पलक में॥

अनजाने ही उसके मुंह से, निकल प़ड़ा था साई।
जिसकी प्रतिध्वनि शिरडी में, बाबा को प़ड़ी सुनाई॥

क्षुब़्ध हो उठा मानस उनका, बाबा गए विकल हो।
लगता जैसे घटना सारी, घटी उन्हीं के सन्मुख हो॥

उन्मादी से इ़धर-उ़धर तब, बाबा लेगे भटकने।
सन्मुख चीजें जो भी आई, उनको लगने पटकने॥

और ध़धकते अंगारों में, बाबा ने अपना कर डाला।
हुए सशंकित सभी वहाँ, लख ताण्डवनृत्य निराला॥

समझ गए सब लोग, कि कोई भक्त प़ड़ा संकट में।
क्षुभित ख़ड़े थे सभी वहाँ, पर प़ड़े हुए विस्मय में॥

उसे बचाने की ही खातिर, बाबा आज विकल है।
उसकी ही पी़ड़ा से पीडित, उनकी अन्तःस्थल है॥

इतने में ही विविध ने अपनी, विचित्रता दिखलाई।
लख कर जिसको जनता की, श्रद्धा सरिता लहराई॥

लेकर संज्ञाहीन भक्त को, गा़ड़ी एक वहाँ आई।
सन्मुख अपने देख भक्त को, साई की आंखें भर आई॥

शांत, धीर, गंभीर, सिन्धु सा, बाबा का अन्तःस्थल।
आज न जाने क्यों रह-रहकर, हो जाता था चंचल॥

आज दया की मू स्वयं था, बना हुआ उपचारी।
और भक्त के लिए आज था, देव बना प्रतिहारी॥

आज भिक्त की विषम परीक्षा में, सफल हुआ था काशी।
उसके ही दर्शन की खातिर थे, उम़ड़े नगर-निवासी।

जब भी और जहां भी कोई, भक्त प़ड़े संकट में।
उसकी रक्षा करने बाबा, आते हैं पलभर में॥

युग-युग का है सत्य यह, नहीं कोई नई कहानी।
आपतग्रस्त भक्त जब होता, जाते खुद अन्र्तयामी॥

भेदभाव से परे पुजारी, मानवता के थे साई।
जितने प्यारे हिन्दू-मुस्लिम, उतने ही थे सिक्ख ईसाई॥

भेद-भाव मंदिर-मिस्जद का, तोड़-फोड़ बाबा ने डाला।
राह रहीम सभी उनके थे, कृष्ण करीम अल्लाताला॥

घण्टे की प्रतिध्वनि से गूंजा, मिस्जद का कोना-कोना।
मिले परस्पर हिन्दू-मुस्लिम, प्यार बढ़ा दिन-दिन दूना॥

चमत्कार था कितना सुन्दर, परिचय इस काया ने दी।
और नीम कडुवाहट में भी, मिठास बाबा ने भर दी॥

सब को स्नेह दिया साई ने, सबको संतुल प्यार किया।
जो कुछ जिसने भी चाहा, बाबा ने उसको वही दिया॥

ऐसे स्नेहशील भाजन का, नाम सदा जो जपा करे।
पर्वत जैसा दुःख न क्यों हो, पलभर में वह दूर टरे॥

साई जैसा दाता हमने, अरे नहीं देखा कोई।
जिसके केवल दर्शन से ही, सारी विपदा दूर गई॥

तन में साई, मन में साई, साई-साई भजा करो।
अपने तन की सुधि-बुधि खोकर, सुधि उसकी तुम किया करो॥

जब तू अपनी सुधि तज, बाबा की सुधि किया करेगा।
और रात-दिन बाबा-बाबा, ही तू रटा करेगा॥

तो बाबा को अरे ! विवश हो, सुधि तेरी लेनी ही होगी।
तेरी हर इच्छा बाबा को पूरी ही करनी होगी॥

जंगल, जगंल भटक न पागल, और ढूंढ़ने बाबा को।
एक जगह केवल शिरडी में, तू पाएगा बाबा को॥

धन्य जगत में प्राणी है वह, जिसने बाबा को पाया।
दुःख में, सुख में प्रहर आठ हो, साई का ही गुण गाया॥

गिरे संकटों के पर्वत, चाहे बिजली ही टूट पड़े।
साई का ले नाम सदा तुम, सन्मुख सब के रहो अड़े॥

इस बूढ़े की सुन करामत, तुम हो जाओगे हैरान।
दंग रह गए सुनकर जिसको, जाने कितने चतुर सुजान॥

एक बार शिरडी में साधु, ढ़ोंगी था कोई आया।
भोली-भाली नगर-निवासी, जनता को था भरमाया॥

जड़ी-बूटियां उन्हें दिखाकर, करने लगा वह भाषण।
कहने लगा सुनो श्रोतागण, घर मेरा है वृन्दावन॥

औषधि मेरे पास एक है, और अजब इसमें शिक्त।
इसके सेवन करने से ही, हो जाती दुःख से मुिक्त॥

अगर मुक्त होना चाहो, तुम संकट से बीमारी से।
तो है मेरा नम्र निवेदन, हर नर से, हर नारी से॥

लो खरीद तुम इसको, इसकी सेवन विधियां हैं न्यारी।
यद्यपि तुच्छ वस्तु है यह, गुण उसके हैं अति भारी॥

जो है संतति हीन यहां यदि, मेरी औषधि को खाए।
पुत्र-रत्न हो प्राप्त, अरे वह मुंह मांगा फल पाए॥

औषधि मेरी जो न खरीदे, जीवन भर पछताएगा।
मुझ जैसा प्राणी शायद ही, अरे यहां आ पाएगा॥

दुनिया दो दिनों का मेला है, मौज शौक तुम भी कर लो।
अगर इससे मिलता है, सब कुछ, तुम भी इसको ले लो॥

हैरानी बढ़ती जनता की, लख इसकी कारस्तानी।
प्रमुदित वह भी मन- ही-मन था, लख लोगों की नादानी॥

खबर सुनाने बाबा को यह, गया दौड़कर सेवक एक।
सुनकर भृकुटी तनी और, विस्मरण हो गया सभी विवेक॥

हुक्म दिया सेवक को, सत्वर पकड़ दुष्ट को लाओ।
या शिरडी की सीमा से, कपटी को दूर भगाओ॥

मेरे रहते भोली-भाली, शिरडी की जनता को।
कौन नीच ऐसा जो, साहस करता है छलने को॥

पलभर में ऐसे ढोंगी, कपटी नीच लुटेरे को।
महानाश के महागर्त में पहुँचा, दूँ जीवन भर को॥

तनिक मिला आभास मदारी, क्रूर, कुटिल अन्यायी को।
काल नाचता है अब सिर पर, गुस्सा आया साई को॥

पलभर में सब खेल बंद कर, भागा सिर पर रखकर पैर।
सोच रहा था मन ही मन, भगवान नहीं है अब खैर॥

सच है साई जैसा दानी, मिल न सकेगा जग में।
अंश ईश का साई बाबा, उन्हें न कुछ भी मुश्किल जग में॥

स्नेह, शील, सौजन्य आदि का, आभूषण धारण कर।
बढ़ता इस दुनिया में जो भी, मानव सेवा के पथ पर॥

वही जीत लेता है जगती के, जन जन का अन्तःस्थल।
उसकी एक उदासी ही, जग को कर देती है वि£ल॥

जब-जब जग में भार पाप का, बढ़-बढ़ ही जाता है।
उसे मिटाने की ही खातिर, अवतारी ही आता है॥

पाप और अन्याय सभी कुछ, इस जगती का हर के।
दूर भगा देता दुनिया के, दानव को क्षण भर के॥

ऐसे ही अवतारी साई, मृत्युलोक में आकर।
समता का यह पाठ पढ़ाया, सबको अपना आप मिटाकर ॥

नाम द्वारका मिस्जद का, रखा शिरडी में साई ने।
दाप, ताप, संताप मिटाया, जो कुछ आया साई ने॥

सदा याद में मस्त राम की, बैठे रहते थे साई।
पहर आठ ही राम नाम को, भजते रहते थे साई॥

सूखी-रूखी ताजी बासी, चाहे या होवे पकवान।
सौदा प्यार के भूखे साई की, खातिर थे सभी समान॥

स्नेह और श्रद्धा से अपनी, जन जो कुछ दे जाते थे।
बड़े चाव से उस भोजन को, बाबा पावन करते थे॥

कभी-कभी मन बहलाने को, बाबा बाग में जाते थे।
प्रमुदित मन में निरख प्रकृति, छटा को वे होते थे॥

रंग-बिरंगे पुष्प बाग के, मंद-मंद हिल-डुल करके।
बीहड़ वीराने मन में भी स्नेह सलिल भर जाते थे॥

ऐसी समुधुर बेला में भी, दुख आपात, विपदा के मारे।
अपने मन की व्यथा सुनाने, जन रहते बाबा को घेरे॥

सुनकर जिनकी करूणकथा को, नयन कमल भर आते थे।
दे विभूति हर व्यथा, शांति, उनके उर में भर देते थे॥

जाने क्या अद्भुत शिक्त, उस विभूति में होती थी।
जो धारण करते मस्तक पर, दुःख सारा हर लेती थी॥

धन्य मनुज वे साक्षात् दर्शन, जो बाबा साई के पाए।
धन्य कमल कर उनके जिनसे, चरण-कमल वे परसाए॥

काश निर्भय तुमको भी, साक्षात् साई मिल जाता।
वर्षों से उजड़ा चमन अपना, फिर से आज खिल जाता॥

गर पकड़ता मैं चरण श्री के, नहीं छोड़ता उम्रभर॥
मना लेता मैं जरूर उनको, गर रूठते साई मुझ पर॥

सद्गुरु... तुम्हारा यह खेल मेरी समझ न आया

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ॐ साँई राम जी




न तो में चोरों को पकड़ पाया 
न तो अपने भीतर के चोर को भगा पाया,
में तो अपनी मस्ती का मस्ताना था 
बस नाच-गाने का दीवाना था, 
पुलिस का डंडा चलाता था 
अपना बाजा बजता था... 
घूमते - घूमते मैंने तुमको पाया 
लेकिन तुमको समझ न पाया 
मैं चोरों के पीछे भागा पर न उनको पकड़ पाया 
न अपने भीतर के चोर को भगा पाया, 
तुम्हारा खेल भी, मेरी समझ न आया
घूम कर मैं तुम्हारे ही पास आया... 
एक दिन मैंने तुमसे फ़रमाया 
प्रयाग स्नान को जाना है 
उसमें डूबकी लगा 
अपना जीवन सफल बनाना है, 
बाबा... तुम बोले, अब कहाँ जाओगे
गंगा-जमुना यहीं पाओगे, 
यह कहना था 
तुम्हारे चरणों से गंगा-जमुना निकली 
लोगों ने उस जल को उठाया 
अपनी आँखे, अपनी जिह्वा 
अपने ह्रदय से उसे लगाया 
लेकिन तुम्हारा यह खेल 
मेरी समझ न आया 
उस दिन मैंने तुम्हारा प्यार 
बस यूँ ही गवायाँ ... 
बाबा ... न तो मैं चोरों को पकड़ पाया 
न ही अपना चोर भगा पाया, 
लेकिन बाद में बहुत पछताया 
मेरा विश्वास डगमगाया था
मेरा सब्र थरथराया था,
फिर भी तुमने हिम्मत न हारी 
अपने प्यार से सारी बाज़ी पलट डाली 
मुझ पर अपना प्यार बरसाया 
मुझे साईं लीलामृत का पान कराया 
सद्गुरु... तुम्हारा यह खेल मेरी समझ न आया 
तुमने ही तो 

मेरे भीतर के चोर को भगाया...

जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि

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ॐ साँई राम जी




दृष्टि के बदलते ही सृष्टि बदल जाती है, क्योंकि दृष्टि का परिवर्तन मौलिक परिवर्तन है। अतः दृष्टि को बदलें सृष्टि को नहीं, दृष्टि का परिवर्तन संभव है, सृष्टि का नहीं। दृष्टि को बदला जा सकता है, सृष्टि को नहीं। हाँ, इतना जरूर है कि दृष्टि के परिवर्तन में सृष्टिभी बदल जाती है। इसलिए तो सम्यकदृष्टि की दृष्टि में सभी कुछ सत्य होता है और मिथ्या दृष्टि बुराइयों को देखता है। अच्छाइयाँ और बुराइयाँ हमारी दृष्टि पर आधारित हैं।

दृष्टि दो प्रकार की होती है। एक गुणग्राही और दूसरी छिन्द्रान्वेषी दृष्टि। गुणग्राही व्यक्ति खूबियों को और छिन्द्रान्वेषी खामियों को देखता है। गुणग्राही कोयल को देखता है तो कहता है कि कितना प्यारा बोलती है और छिन्द्रान्वेषी देखता है तो कहता है कि कितनी बदसूरत दिखती है।

गुणग्राही मोर को देखता है तो कहता है कि कितना सुंदर है और छिन्द्रान्वेषी देखता है तो कहता है कि कितनी भद्दी आवाज है, कितने रुखे पैर हैं। गुणग्राही गुलाब के पौधे को देखता है तो कहता है कि कैसा अद्भुत सौंदर्य है। कितने सुंदर फूल खिले हैं और छिन्द्रान्वेषी देखता है तो कहता है कि कितने तीखे काँटे हैं। इस पौधे में मात्र दृष्टि का फर्क है।

जो गुणों को देखता है वह बुराइयों को नहीं देखता है।

कबीर ने बहुत कोशिश की बुरे आदमी को खोजने की। गली-गली, गाँव-गाँव खोजते रहे परंतु उन्हें कोई बुरा आदमी न मिला। मालूम है क्यों? क्योंकि कबीर भले आदमी थे। भले आदमी को बुरा आदमी कैसे मिल सकता है?


कबीर जी ने कहा है
बुरा जो खोजन मैं चला, बुरा न मिलिया कोई,
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।

कबीर अपने आपको बुरा कह रहे हैं। यह एक अच्छे आदमी का परिचय है, क्योंकि अच्छा आदमी स्वयं को बुरा और दूसरों को अच्छा कह सकता है। बुरे आदमी में यह सामर्थ्य नहीं होती। वह तो आत्म प्रशंसक और परनिंदक होता है।

वह कहता है
भला जो खोजन मैं चला भला न मिला कोय,
जो दिल खोजा आपना मुझसे भला न कोय।

ध्यान रखना जिसकी निंदा-आलोचना करने की आदत हो गई है, दोष ढूँढने की आदत पड़ गई, वे हजारों गुण होने पर भी दोष ढूँढ निकाल लेते हैं और जिनकी गुण ग्रहण की प्रकृति है, वे हजार अवगुण होने पर भी गुण देख ही लेते हैं, क्योंकि दुनिया में ऐसी कोई भीचीज नहीं है जो पूरी तरह से गुणसंपन्ना हो या पूरी तरह से गुणहीन हो। एक न एक गुण या अवगुण सभी में होते हैं। मात्र ग्रहणता की बात है कि आप क्या ग्रहण करते हैं गुण या अवगुण।


तुलसीदासजी ने कहा है -

जाकी रही भावना जैसी,
प्रभु मूरत देखी तिन तैसी।

अर्थात जिसकी जैसी दृष्टि होती है
उसे वैसी ही मूरत नजर आती है।

श्री साईं अमृत वाणी

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ॐ साँई राम जी 



 श्री साईं अमृत वाणी


 श्री सच्चिदानन्द सतगुरु साईं नाथ महाराज की जय

नमो नमो पावन साईं , नमो नमो कृपाल गौसाई
साईं अमृत पद पावन वाणी , साईं नाम धुन सुधा समानी ||१||

नमो नमो संतन प्रतिपाला , नमो नमो श्री साईं दयाला
परम सत्य है परम विज्ञान , ज्योति स्वरूप साईं भगवान् ||२||

नमो नमो साईं अविनाशी , नमो नमो घट घट के वासी
साईं धवनी नाम उच्चारण , साईं राम सुख सिद्धि कारण ||३||

नमो नमो श्री आत्म रामा ,नमो नमो प्रभु पूर्ण कामा
अमृतवाणी साईं राम , साईं राम मुद मंगल धाम ||४||

साईं नाम मंत्र जप जाप , साईं नाम मते त्रयी ताप
साईं धुनी में लगे समाधी , मिटे सब आधि व्याधि उपाधि ||५||

साईं जाप है है सरल समाधि , हरे सब आधि व्याधि उपाधि
रिद्धी-सिद्धी और नव निधान , डाटा साईं है सब सुख खान ||६||

साईं साईं श्री साईं हरी , भक्ति वैराग्य का योग
साईं साईं श्री साईं जप , दाता अमृत भोग ||७||

जल थल वायु तेज आकाश , साईं से पावे सब प्रकाश
जल और पृथ्वी साईं माया , अंतहीन अंतरिक्ष बनाया ||८||

नेति नेति कह वेड बखाने , भेद साईं का कोइ न जाने 
साईं नाम है सब रस सार , साईं नाम जग तारण हार||९||

साईं नाम के भरो भण्डार , साईं नाम का सद्व्यवहार
इहाँ नाम की करो कमाई , उहाँ न होय कोई कठिनाई ||१०||



झोली साईं नाम से भरिए , संचित साईं नाम धन करिए

जुड़े नाम का जब धन माल , साईं कृपा ले अंत संभाल ||११||

साईं साईं पद शक्ति जगावे , साईं साईं धुन जभी रमावे
साईं नाम जब जगे अभंग , चेतन भाव जगे सुख संग ||१२||

भावना भक्ति भरे भजनीक , भजते साईं नाम रमणीक
भजते भक्त भाव भरपूर , भ्रम भय भेदभाव से दूर ||१३||

साईं साईं सुगुणी जन गाते , स्वर संगीत से साईं रिझाते
कीर्तन कथा करते विद्वान , सर सरस संग साधनवान ||१४||

काम क्रोध और लोभ ये , तीन पाप के मूल
नाम कुल्हाड़ी हाथ ले , कर इनको निर्मूल ||१५||

साईं नाम है सब सुख खान , अंत कर सब का कल्यान 
जीवन साईं से प्रीति करना , मरना मन से साईं न बिसरना ||१६|| 

साईं भजन बिन जीवन जीना , आठो पहर हलाहल पीना
भीतर साईं का रूप समावे , मस्तक पर प्रतिमा चा जावे ||१७|| 

जब जब ध्यान साईं का आवे , रोम रोम पुलकित हो जावे
साईं कृपा सूरज का उगना , हृदय साईं पंकज का खिलना ||१८|| 

साईं नाम मुक्ता मणि , राखो सूत पिरोय
पाप ताप न रहे , आत्मा दर्शन होय ||१९||

सत्य मूलक है रचना सारी , सर्व सत्य प्रभु साईं पासरी 
बीज से तरु मकडी से तार , हुआ त्यों साईं से जग विस्तार ||२०||



साईं का रूप हृदय में धारो , अन्तरमन से साईं पुकारो

अपने भगत की सुनकर टेर , कभी न साईं लगाते देर ||२१||

धीर वीर मन रहित विकार , तन से मन से कर उपकार
सदा ही साईं नाम गुण गावे , जीवन मुक्त अमर पद पावे ||२२||

साईं बिना सब नीरस स्वाद , ज्यों हो स्वर बिना राग विषाद
साईं बिना नहीं सजे सिंगार , साईं नाम है सब रस सार ||२३||

साईं पिता साईं ही माता , साईं बंधु साईं ही भ्राता
साईं जन जन के मन रंगन , साईं सब दुःख दर्द विभंजन ||२४||

साईं नाम दीपक बिना , जन मन में अंधेर
इसी लिये है मम मन , नाम सुमाला फेर ||२५||

जपते साईं नाम महा माला ,लगता नरक द्वार पे ताला
राखो साईं पर इक विश्वास , सब ताज करो साईं करो आस ||२६||

जब जब चडे साईं का रंग , मन में छाए प्रेम उमंग
जपते साईं साईं जप पाठ , जलते कर्मबंध यथा काठ ||२७||

साईं नाम सुधा रस सागर , साईं नाम ज्ञान गुण आगर
साईं जप रवि तेज समान , महा मोह तम हरे अज्ञान ||२८||

साईं नाम धुन अनहद नाद , नाम जपे मन हो विस्माद
साईं नाम मुक्ति का दाता , ब्रह्मधाम वह खुद पहुंचाता ||२९||

हाथ से करिए साईं का कार , पग से चलिए साईं के द्वार
मुख से साईं सिमरण करिए , चित सदा चिंतन में धरिए ||३०||



कानों से यश साईं का सुनिए , साईं धाम का मार्ग चुनिए

साईं नाम पद अमृतवाणी , साईं नाम धुन सुधा समानी || ३१||

आप जपो औरों को जपावो , साईं धुनि को मिलकर गावो
साईं नाम का सुन कर गाना , मन अलमस्त बने दिवाना ||३२||

पल पल उठे साईं तरंग , चडे नाम का गुडा रंग
साईं कृपा है उच्चतर योग , साईं कृपा है शुभ संयोग ||३३||

साईं कृपा सब साधन मर्म , साईं कृपा संयम सत्य धर्म
साईं नाम को मन में बसाना , सुपथ साईं कृपा का है पाना ||३४||

मन में साईं धुन जब फिरे , साईं कृपा तब ही अवतरे
रहूँ मैं साईं में हो कर लीन , जैसे जल में हो मीन अदीन ||३५||

साईं नाम को सिमरिये , साईं साईं इक तार
परम पाठ पावन परम , करता भाव से पार ||३६||

साईं कृपा भरपूर मैं पाऊं , परम प्रभु को भीतर लाऊं
साईं ही साईं कह मीत , साईं से कर साची प्रीत ||३७||

साईं साईं का दर्शन करिए , मन भीतर इक आनन्द भरिय
साईं की जब मिल जाए शिक्षा , फिर मन में कोई रहे न इच्छा ||३८||

जब जब मन का तार का हिलेगा , तब तब साईं का प्यार मिलेगा
मिटेगी जग से आनी जानी ,जीवन मुक्त होय यह प्राणी ||३९||

शिर्डी के साईं हरि , तीन लोक के नाथ

बाबा हमारे पावन प्रभु , सदा के संगी साथ || ४०||


साईं धुन जब पकडे जोर , खींचे साईं प्रभु अपनी ओर

मंदिर बस्ती बस्ती , चा जाए साईं नाम की मस्ती ||४१||

अमृत रूप साईं गुण गान , अमृत कथन साईं व्याख्यान
अमृत वचन साईं की चर्चा , सुधा सम गीत साईं की अर्चा ||४२||

शुभ रसना वही कहाये , साईं नाम जहां नाम सुहाये
शुभ कर्म है नाम कमाई , साईं राम परम सुखदाई ||४३||

जब जी चाहे दर्शन पाइये , जय जय कार साईं की गाइये
साईं नाम की धुनि लगाइये , सहज ही भाव सागर तर जाइये ||४४||

बाबा को जो भजे निरंतर , हर दम ध्यान लगावे
बाबा में मिल जाये अंत में , जन्म सफल हो जाये ||४५||

धन्य धन्य हे साईं उजागर , धन्य धन्य करुणा के सागर
साईं नाम मुदमंगलकारी , विघ्न हरो सब पातक हारी ||४६||

धन्य धन्य श्री साईं हमारे , धन्य धन्य भकतन रखवारे
साईं नाम शुब शकुन महान , स्वस्ति शान्ति शिवकर कल्याण ||४७||

धन्य धन्य सब जग के स्वामी , धन्य धन्य श्री साईं नमामी
साईं साईं मन मुख से गाना , मानो मधुर मनोरथ पाना ||४८||

साईं नाम जो जन मन लावे , उस में शुभ सभी बस जावे
जहां हो साईं नाम धुन नाद , भागे वहां से विषम विषाद ||४९||

साईं नाम मन तप्त बुझावे , सुधा रस सींच शान्ति ले आवे
साईं साईं जपिये कर भाव , सुविधा सुविधि बने बनाव ||५०||



छल कपट और खोट है , तीन नरक के द्वार

झूठ करम को छोड़ कर , करो सत्य व्यवहार ||५१||

लेने वाले हाथ दो, साईं के सौ द्वार
एक द्वार को पूज ले, हो जाएगा पार ||५२||

जहां जगत में आवो जावो , साईं सुमीर साईं को गावो
साईं सभी में एक समान , सब रूप को साईं का जान ||५३||

मैं और मेरा कुछ नहीं अपना , साईं का नाम सत्य जग सपना
इतना जान लेहु सब कोय , साईं को भजे साईं को होय ||५४||

ऐसे मन जब होवे लीन , जल में प्यासी रहे न मीन
चित चडे इक रंग अनूप , चेतन हो जाए साईं स्वरूप ||५५||

जिसमें साईं नाम शुभ जागे , उसके पाप ताप सब भागे
मन से साईं नाम जो उच्चारे , उसके भागे भ्रम भय सारे ||५६||

सुख दुःख तेरी देन है , सुख दुःख में तूं आप
रोम - रोम में है तूं साईं , तूं ही रहयो व्याप ||५७||

जय जय साईं सच्चिदानन्दा , मुरली मनोहर परमानन्दा
पारब्रम्हा परमेश्वर गोविंदा , निर्मल पावन ज्योति अखंडा ||५८||

एकै इ सब खेल रचया , जो दीखे वो सब ही माया
एको एक एक भगवान् , दो को ही तूं माया जान ||५९||

बाहर भरम भूले संसार , अन्दर प्रीतम साईं अपार

जा को आप चाहे भगवंत , सो ही जाने साईं अनन्त ||६०||


जिस में बस जाए साईं सुनाम , होवे वह जन पूर्ण काम

चित में साईं नाम जो सिमरे , निश्चय भव सागर से तरे ||६१||

साईं सिमरन होवे सहाई , साईं सिमरन है सुखदाई
साईं सिमरन सब से ऊँचा , साईं शक्ति सुख ज्ञान समूचा ||६२||

सुख दाता आपद हरन , साईं गरीब निवाज
अपने बच्चों के साईं , सभी सुधारे काज ||६३||

माता पिता बांधव सूत द्वारा , धन जन साजन सखा प्यारा
अंत काल दे सके न सहारा , साईं नाम तेरा तारन हारा ||६४||

आपन को न मान शरीर , तब तूं जाने पर की पीर
घाट में बाबा को पहचान , करन करावन वाला जान ||६५||

अंतरयामी जा को जान , घाट में देखो आठों याम
सिमरन साईं नाम है संगी , सुख स्नेही सुकद शुभ अंगी ||६६||

युग युग का है साईं सहेला , साईं भक्त नहीं रहे अकेला
बाधा बड़ी विषम जब आवे , वैर विरोध विघ्न बड़ जावे ||६७||

साईं नाम जपिये सुख दाता , सच्चा साथी जो हितकर त्राता
पूंजी साईं नाम की पाइये , पाथेय साथ नाम ले जाएये ||६८||

साईं जाप कही ऊँची करणी , बाधा विघ्न बहु दुःख हरणी
साईं नाम महा मंत्र जपना , है सुव्रत नेम ताप तपना ||६९||

बाबा से सांची प्रीत , यह है भगत जानो की रीत
तूं तो बाबा का अंग , जैसे सागर बीच तरंग ||७०||

दीन दुःखी के सामने , झुकता जिसका शीश
जीवन भर मिलता उसे , बाबा का आशीष ||७१||

लेने वाले हाथ दो , साईं के सौ द्वार
एक द्वार को पूज ले , हो जाएगा पार ||७२ ||

प्यार बांटते साई

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ॐ साँई राम जी



प्यार बांटते साई


प्राणिमात्र की पीड़ा हरने वाले साई हरदम कहते, 'मैं मानवता की सेवा के लिए ही पैदा हुआ हूं। मेरा उद्देश्य शिरडी को ऐसा स्थल बनाना है, जहां न कोई गरीब होगा, न अमीर, न धनी और न ही निर्धन..।'कोई खाई, कैसी भी दीवार..बाबा की कृपा पाने में बाधा नहीं बनती। बाबा कहते, 'मैं शिरडी में रहता हूं, लेकिन हर श्रद्धालु के दिल में मुझे ढूंढ सकते हो। एक के और सबके। जो श्रद्धा रखता है, वह मुझे अपने पास पाता है।'




साई ने कोई भारी-भरकम बात नहीं कही। वे भी वही बोले, जो हर संत ने कहा है, 'सबको प्यार करो, क्योंकि मैं सब में हूं। अगर तुम पशुओं और सभी मनुष्यों को प्रेम करोगे, तो मुझे पाने में कभी असफल नहीं होगे।'यहां 'मैं'का मतलब साई की स्थूल उपस्थिति से नहीं है। साई तो प्रभु के ही अवतार थे और गुरु भी, जो अंधकार से मुक्ति प्रदान करता है। ईश के प्रति भक्ति और साई गुरु के चरणों में श्रद्धा..यहीं से तो बनता है, इष्ट से सामीप्य का संयोग।


दैन्यता का नाश करने वाले साई ने स्पष्ट कहा था, 'एक बार शिरडी की धरती छू लो, हर कष्ट छूट जाएगा।'बाबा के चमत्कारों की चर्चा बहुत होती है, लेकिन स्वयं साई नश्वर संसार और देह को महत्व नहीं देते थे। भक्तों को उन्होंने सांत्वना दी थी, 'पार्थिव देह न होगी, तब भी तुम मुझे अपने पास पाओगे।'


अहंकार से मुक्ति और संपूर्ण समर्पण के बिना साई नहीं मिलते। कृपापुंज बाबा कहते हैं, 'पहले मेरे पास आओ, खुद को समर्पित करो, फिर देखो..।'वैसे भी, जब तक 'मैं'का व्यर्थ भाव नष्ट नहीं होता, प्रभु की कृपा कहां प्राप्त होती है। साई ने भी चेतावनी दी थी, 'एक बार मेरी ओर देखो, निश्चित-मैं तुम्हारी तरफ देखूंगा।'




1854 में बाबा शिरडी आए और 1918 में देह त्याग दी। चंद दशक में वे सांस्कृतिक-धार्मिक मूल्यों को नई पहचान दे गए। मुस्लिम शासकों के पतन और बर्तानिया हुकूमत की शुरुआत का यह समय सभ्यता के विचलन की वजह बन सकता था, लेकिन साई सांस्कृतिक दूत बनकर सामने आए। जन-जन की पीड़ा हरी और उन्हें जगाया, प्रेरित किया युद्ध के लिए। युद्ध किसी शासन से नहीं, कुरीतियों से, अंधकार से और हर तरह की गुलामी से भी! यह सब कुछ मानवमात्र में असीमित साहस का संचार करने के उपक्रम की तरह था। हिंदू, पारसी, मुस्लिम, ईसाई और सिख..हर धर्म और पंथ के लोगों ने साई को आदर्श बनाया और बेशक-उनकी राह पर चले।

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 23

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ॐ सांई राम



आप सभी को शिर्डी के साँई बाबा ग्रुप की और से साईं-वार की हार्दिक शुभ कामनाएं
हम प्रत्येक साईं-वार के दिन आप के समक्ष बाबा जी की जीवनी पर आधारित श्री साईं सच्चित्र का एक अध्याय प्रस्तुत करने के लिए श्री साईं जी से अनुमति चाहते है |

हमें आशा है की हमारा यह कदम घर घर तक श्री साईं सच्चित्र का सन्देश पंहुचा कर हमें सुख और शान्ति का अनुभव करवाएगा, किसी भी प्रकार की त्रुटी के लिए हम सर्वप्रथम श्री साईं चरणों में क्षमा याचना करते है|

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 23
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योग और प्याज, शामा का सर्पविष उतारना, विषूचिका (हैजी) निवारणार्थ नियमों का उल्लंघन, गुरु भक्ति की कठिन परीक्षा ।
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प्रस्तावना
वस्तुतः मनुष्य त्रिगुणातीत (तीन गुण अर्थात् सत्व-रज-तम) है तथा माया के प्रभाव से ही उसे अपने सत्-चित-आनंद स्वरुप की विस्मृति हो, ऐसा भासित होने लगता है कि मैं शरीर हूँ । दैहिक बुद्घि के आवरण के कारण ही वह ऐसी धारणा बना लेता है कि मैं ही कर्ता और उपभोग करने वाला हूँ और इस प्रकार वह अपने को अनेक कष्टों में स्वयं फँसा लेता है । फिर उसे उससे छुटकारे का कोई मार्ग नहीं सूझता । मुक्ति का एकमात्र उपाय है – गुरु के श्री चरणों में अचल प्रेम और भक्ति । सबसे महान् अभिनयकर्ता भगवान् साई ने भक्तों को पूर्ण आनन्द पहुँचाकर उन्हें निज-स्वरुप में परिवर्तित कर लिया है । उपयुक्त कारणों से हम साईबाबा को ईश्वर का ही अवतार मानते है । परन्तु वे सदा यही कहा करते थे कि मैं तो ईश्वर का दास हूँ । अवतार होते हुए भी मनुष्य को किस प्रकारा आचरण करना चाहिये तथा अपने वर्ण के कर्तव्यों को किस प्रकार निबाहना चाहिए, इसका उदाहरण उन्होंने लोगो के समक्ष प्रस्तुत किया । उन्होंने किसी प्रकार भी दूसरे से स्पर्द्घा नहीं की और न ही किसी को कोई हानि ही पहुँचाई । जो सब जड़ और चेतन पदार्थों में ईश्वर के दर्शन करता हो, उसको विनयशीलता ही उपयुक्त थी । उन्होंने किसी की उपेक्षा या अनादर नहीं किया । वे सब प्राणियों में भगवद्दर्शन करते थे । उन्होंने यह कभी नहीं कहा कि मैं अनल हक्क (सोडह्मम) हूँ । वे सदा यही कहते थे कि मैं तो यादे हक्क (दासोडहम्) हूँ । अल्ला मालिक सदा उनके होठोंपर था । हम अन्य संतों से परिचित नहीं है और नन हमें यही ज्ञात है कि वे किस प्रकार आचरण किया करते है अथवा उनकी दिनचर्या इत्यादि क्या है । ईश-कृपा से केवल हमें इतना ही ज्ञात है कि वे अज्ञान और बदृ जीवों के निमित्त स्वयं अवतीर्ण होते है । शुभ कर्मों के परिणामस्वरुप ही हममें सन्तों की कथायें और लीलाये श्रवण करने की इच्छा उत्पन्न होती है, अन्यथा नहीं । अब हम मुख्य कथा पर आते है ।

योग और प्याज
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एक समय कोई एक योगाभ्यासी नानासाहेब चाँदोरकर के साथ शिरडी आया । उसने पातंजलि योगसूत्र तथा योगशास्त्र के अन्य ग्रन्थों का विशेष अध्ययन किया था, परन्तु वह व्यावहारिक अनुभव से वंचित था । मन एकाग्र न हो सकने के कारण वह थोड़े समय के लिये भी समाधि न लगा सकता था । यदि साईबाबा की कृपा प्राप्त हो जाय तो उनसे अधिक समय तक समाधि अवस्था प्राप्त करने की विधि ज्ञात हो जायेगी, इस विचार से वह शिरडी आया और जब मसजिद में पहुँचा तो साईबाबा को प्याजसहित रोटी खाते देख उसे ऐसा विचार आया कि यह कच्च प्याजसहित सूखी रोटी खाने वाला व्यक्ति मेरी कठिनाइयों को किस प्रकार हल कर सकेगा । साईबाबा अन्तर्ज्ञान से उसका विचार जानकर तुरन्त नानासाहेब से बोले कि ओ नाना । जिसमें प्याज हजम करने की श्क्ति है, उसको ही उसे खाना चाहिए, अन्य को नहीं । इन शब्दों से अत्यन्त विस्मित होकर योगी ने साईचरणों में पूर्ण आत्मसमर्पण कर दिया । शुदृ और निष्कपट भाव से अपनी कठिनाइयँ बाबा के समक्ष प्रस्तुत करके उनसे उनका हल प्राप्त किया और इस प्रकार संतुष्ट और सुखी होकर बाबा के दर्शन और उदी लेकर वह शिरडी से चला गया ।

शामा की सर्पदंश से मुक्ति
....................
कथा प्रारंभ करने से पूर्व हेमाडपंत लिखते है कि जीव की तुलना पालतू तोते से की जा सकती है, क्योंकि दोनों ही बदृ है । एक शरीर में तो दूसरा पिंजड़े में । दोनों ही अपनी बद्घावस्था को श्रेयस्कर समझते है । परन्तु यदि हरिकृपा से उन्हें कोई उत्तम गुरु मिल जाय और वह उनके ज्ञानचक्षु खोलकर उन्हें बंधन मुक्त कर दे तो उनके जीवन का स्तर उच्च हो जाता है, जिसकी तुलना में पूर्व संकीर्ण स्थिति सर्वथा तुच्छ ही थी ।
गत अध्यया में किस प्रकार श्री. मिरीकर पर आने वाले संकट की पूर्वसूचना देकर उन्हें उससे बचाया गया, इसका वर्णन किया जा चुका है । पाठकवृन्द अब उसी प्रकार की और एक कथा श्रवण करें ।
एक बार शामा को विषधर सर्प ने उसके हाथ की उँगली में डस लिया । समस्त शरीर में विष का प्रसार हो जाने के कारण वे अत्यन्त कष्ट का अनुभव करके क्रंदन करने लगे कि अब मेरा अन्तकाल समीप आ गया है । उनके इष्ट मित्र उन्हें भगवान विठोबा के पास ले जाना चाहते थे, जहाँ इस प्रकार की समस्त पीड़ाओं की योग्य चिकित्सा होती है, परन्तु शामा मसजिद की ओर ही दौड़-अपने विठोबा श्री साईबाबा के पास । जब बाबा ने उन्हें दूर से आते देखा तो वे झिड़कने और गाली देने लगे । वे क्रोधित होकर बोले – अरे ओ नादान कृतघ्न बम्मन । ऊपर मत चढ़ । सावधान, यदि ऐसा किया तो । और फिर गर्जना करते हुए बोले, हटो, दूर हट, नीचे उतर । श्री साईबाबा को इस प्रकार अत्यंत क्रोधित देख शामा उलझन में पड़ गयाऔर निराश होकर सोचने लगा कि केवल मसजिद ही तो मेरा घर है और साईबाबा मात्र किसकी शरण में जाऊँ । उसने अपने जीवन की आशा ही छोड़ दी और वहीं शान्तीपूर्वक बैठ गया । थोड़े समय के पश्चात जब बाबा पूर्वव्त शांत हुए तो शामा ऊपर आकर उनके समीप बैठ गया । तब बाबा बोले, डरो नहीं । तिल मात्र भी चिन्ता मत करो । दयालु फकीर तुम्हारी अवश्य रक्षा करेगा । घर जाकर शान्ति से बैठो और बाहर न निकलो । मुझपर विश्वास कर निर्भय होकर चिन्ता त्याग दो । उन्हें घर भिजवाने के पश्चात ही पुछे से बाबा ने तात्या पाटील और काकासाहेब दीक्षित के द्घारा यह कहला भेजा कि वह इच्छानुसार भोजन करे, घर में टहलते रहे, लेटें नही और न शयन करें । कहने की आवश्यकता नहीं कि आदेशों का अक्षरशः पालन किया गया और थोड़े समय में ही वे पूर्ण स्वस्थ हो गये । इस विषय में केवल यही बात स्मरण योग्य है कि बाबा के शब्द (पंच अक्षरीय मंत्र-हटो, दूर हट, नीचे उतर) शामा को लक्ष्य करके नहीं कहे गये थे, जैसा कि ऊपर से स्पष्ट प्रतीत होता है, वरन् उस साँप और उसके विष के लिये ही यह आज्ञा थी (अर्थात् शामा के शरीर में विष न फैलाने की आज्ञा थी) अन्य मंत्र शास्त्रों के विशेषज्ञों की तरह बाबा ने किसी मंत्र या मंत्रोक्त चावल या जल आदि का प्रयोग नहीं किया ।
इस कथा और इसी प्रकार की अन्य अथाओं को सुनकर साईबाबा के चरणों में यह दृढ़ विश्वास हो जायगा कि यदि मायायुक्त संसार को पार करना हो तो केवल श्री साईचरणों का हृदय में ध्यान करो ।

हैजा महामारी
...............
एक बार शिरडी विषूचिका के प्रकोप से दहल उठी और ग्रामवासी भयभीत हो गये । उनका पारस्परिक सम्पर्क अन्य गाँव के लोगों से प्रायः समाप्त सा हो गया । तब गाँव के पंचों ने एकत्रित होकर दो आदेश प्रसारित किये । प्रथम-लकड़ी की एक भी गाड़ी गाँव में न आने दी जाय । द्घितीय – कोई बकरे की बलि न दे । इन आदेशों का उल्लंघन करने वाले को मुखिया और पंचों द्घारा दंड दिया जायगा । बाबा तो जानते ही थे कि यह सब केवल अंधविश्वास ही है और इसी कारण उन्होंने इन हैजी के आदेशों की कोई चिंता न की । जब ये आदेशलागू थे, तभी एक लकड़ी की गाड़ी गाँव में आयी । सबको ज्ञात था कि गाँव में लगड़ी का अधिक अभाव है, फिर भीलोग उस गाड़वाले को भगाने लगे । यह समाचार कहीं बाबा के पास तक पहुँच गया । तब वे स्वयं वहाँ आये और गाड़ी वाले से गाड़ी मसजिद में ले चलने को कहा । बाबा के विरुदृ कोई चूँ—चपाट तक भीन कर सका । यथार्थ में उन्हें धूनी के लिए लकड़ियों की अत्यन्त आवश्यकता थी और इसीलिए उन्होंने वह गाड़ी मोल ले ली । एक महान अग्निहोत्री की तरह उन्होंने जीवन भर धूनी को चैतन्य रखा । बाबा की धूनी दिनरात प्रज्वलित रहती थी और इसलिए वे लकड़ियाँ एकत्रित कर रखते थे । बाबा का घर अर्थात् मसजिद सबके लिए सदैव खुली थी । उसमें किसी ताले चाभी की आवश्यकता न थी । गाँव के गरीब आदमी अपने उपयोग के लिए उसमें से लकडियाँ निकाल भी ले जाया करते थे, परन्तु बाबा ने इस पर कभी कोई आपत्ति न की । बाबा तो सम्पूर्ण विश्व को ईश्वर से ओतप्रोत देखते थे, इसलिये उनमें किसी के प्रति घृणा या शत्रुता की भावना न थी । पूर्ण विरक्त होते हुए भी उन्होंने एक साधारण गृहस्थ का-सा उदाहरण लोगों के समक्ष प्रस्तुत किया ।


गुरुभक्ति की कठिन परीक्षा
..........................
अब देखिये, दूसरे आदेश की भी बाबा ने क्या दुर्दशा की । वह आदेश लागू रहते समय कोई मसजिद में एक बकरा बलि देने को लाया । वह अत्यन्त दुर्बल, बूढ़ा और मरने ही वाला था । उस समय मालेगाँव के फकीर पीरमोहम्मद उर्फ बड़े बाबा भी उनके समीप ही खड़े थे । बाबा ने उन्हें बकरा काटकर बलि चढ़ाने को कहा । श्री साईतबाबा बड़े बाबा का अधिक आदर किया करते थे । इस कारण वे सदैव उनके दाहिनीओर ही बैठा करते थे । सबसे पहने वे ही चिलम पीते और फिर बाबा को देते, बाद में अन्य भक्तों को । जब दोपहर को भोजन परोस दिया जाता, तब बाबा बड़े बाबा को आदरपूर्वक बुलाकर अपने दाहिनी ओर बिठाते और तब सब भोजन करते । बाबा के पास जो दक्षिणा एकत्रित होती, उसमेंसे वे 50 रु. प्रतिदिन बड़े बाबा को दे दिया करते थे । जब वे लौटते तो बाबा भी उनके साथ सौ कदम जाया करते थे । उनका इतना आदर होते हुए भी जब बाबा ने उनसे बकरा काटने को कहा तो उन्होंने अस्वीकार कर स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि बलि चढ़ाना व्यर्थ ही है । तब बाबा ने शामा से बकरे की बलि के लिये कहा । वे राधाकृष्ण माई के घर जाकर एक चाकू ले आये और उसे बाबा के सामने रख दिया । राधाकृष्माई को जब कारण का पता चला तो उन्होंने चाकू वापस मँगवालिया । अब शामा दूसरा चाकू लाने के लिये गये, किन्तु बड़ी देर तक मसजिद में न लौटे । तब काकासाहेब दीक्षित की बारी आई । वह सोना सच्चा तो था, परन्तु उसको कसौटी पर कसना भी अत्यन्त आवश्यक था । बाबा ने उनसे चाकू लाकर बकरा काटने को कहा । वे साठेवाड़े से एक चाकू ले आये और बाबा की आज्ञा मिलते ही काटने को तैयार हो गये । उन्होंने पवित्र ब्राहमण-वंश में जन्म लिया था और अपने जीवन में वे बलिकृत्य जानते ही न थे । यघपि हिंसा करना निंदनीय है, फिर भी वे बकरा काटने के लिये उघत हो गये । सब लोगों को आश्चर्य था कि बड़े बाबा एक यवन होते हुए भी बकरा काटने को सहमत नहीं हैं और यह एक सनातन ब्राहमण बकरे की बलि देने की तैयारी कर रहा है । उन्होंने अपनी धोती ऊपर चढ़ा फेंटा कस लिया और चाकू लेकर हाथ ऊपर उठाकर बाबा की अन्तिम आज्ञा की प्रतीक्षा करने लगे । बाबा बोले, अब विचार क्या कर रहे हो । ठीक है, मारो । जब उनका हाथ नीचे आने ही वाला था, तब बाबा बोले ठहरो, तुम कितने दुष्ट हो । ब्राहमण होकर तुम बके की बलि दे रहे हो । काकासाहेब चाकू नीचे रख कर बाबा से बोले आपकी आज्ञा ही हमारे लिये सब कुछ है, हमें अन्य आदेशों से क्या । हम तो केवल आपका ही सदैव स्मरण तथा ध्यान करते है और दिन रात आपकी आज्ञा का ही पालन किया करते है । हमें यह विचार करने की आवश्यकता नहीं कि बकरे को मारना उचित है या अनुचित । और न हम इसका कारण ही जानना चाहते है । हमारा कर्तव्य और धर्म तो निःसंकोच होकर गुरु की आज्ञा का पूर्णतः पालन करने में है । तब बाबा ने काकासाहेब से कहा कि मैं स्वयं ही बलि चढ़ाने का कार्य करुँगा । तब ऐसा निश्चित हुआ कि तकिये के पास जहाँ बहुत से फकीर बैठते है, वहाँ चलकर इसकी बलि देनी चाहिए । जब बकरा वहाँ ले जाया जा रहा था, तभी रास्ते में गिर कर वह मर गया ।
भक्तों के प्रकार का वर्णन कर श्री. हेमाडपंत यह अध्याय समाप्त करते है । भक्त तीन प्रकार के है

1. उत्तम

2. मध्यम और

3. साधारण

प्रथम श्रेणी के भक्त वे है, जो अपने गुरु की इच्छा पहले से ही जानकर अपना कर्तव्य मान कर सेवा करते है । द्घितीय श्रेणी के भक्त वे है, जो गुरु की आज्ञा मिलते ही उसका तुरन्त पालन करते है । तृतीय श्रेणी के भक्त वे है, जो गुरु की आज्ञा सदैव टालते हुए पग-पग पर त्रुटि किया करते है । भक्तगण यदि अपनी जागृत बुद्घि और धैर्य धारण कर दृढ़ विश्वास स्थिर करें तो निःसन्देह उनका आध्यात्मिक ध्येय उनसे अधिक दूर नहीं है । श्वासोच्ध्वास का नियंत्रण, हठ योग या अन्य कठिन साधनाओं की कोई आवश्यकता नहीं है । जब शिष्य में उपयुक्त गुणों का विकास हो जाता है और जब अग्रिम उपदेशों के लिये भूमिका तैयार हो जाती है, तभी गुरु स्वयं प्रगट होकर उसे पूर्णता की ओर ले जाते है । अगले अध्याय में बाबा के मनोरंजक हास्य-विनोद के सम्बन्ध में चर्चा करेंगे


।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

GOD ???

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ॐ साँई राम जी




GOD ???
Generator   Operator    Destroyer
ब्रह्मा           विष्णु         महेश

योग और प्याज

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ॐ सांई राम



योग और प्याज

एक समय एक योगाभ्यासी नाना साहेब चांदोरकर के साथ शिर्डी आया. उसने पतंजलि योगसूत्र तथा योगशास्त्र के अन्य ग्रंथों का विशेष अध्यन किया था, परन्तु वह व्यावहारिक अनुभव से वंचित था. मन एकाग्र ना हो सकने के कारण वह थोड़े समय के लिए भी समाधी नहीं लगा सकता था. यदि सैबबा कि कृपा प्राप्त हो जाये तो उनसे थोड़ी अधिक समय तक समाधी अवस्था प्राप्त करने कि विधि ज्ञात हो जाएगी, इस विचार से वह शिर्डी आया और जब मस्जिद में पहुंचा तो साईं बाबा को प्याज सहित सूखी रोटी खाते देख कर उसे विचार आया कि यह कच्ची प्याजसहित सूखी रोटी खाने वाला व्यक्ति मेरी कठिनाई को किस प्रकार हल कर पायेगा? साईं बाबा अंतर्ज्ञान से उसका विचार जानकार तुरंत नानासाहेब से बोले कि "ओ नाना ! जिसमे प्याज हजम करने कि शक्ति है , उसको ही उसे खाना चाहिए, अन्य को नहीं."इन शब्दों से अत्यंत विस्मित होकर योगी ने साईं चरणों में पूर्ण आत्मसमर्पण कर दिया. शुद्ध और निष्कपट भाव से अपनी कठिनाइयाँ बाबा के समक्ष प्रस्तुत करके उनसे उनका हल प्राप्त किया, और इस प्रकार संतुष्ट और सुखी होकर बाबा के दर्शन और उदी लेकर वह शिर्डी से चला गया................. ॐ साईं राम

श्री सांई सच्चरित्र क्या कहती है ??

यूँ ही एक दिन चलते-चलते

सांई से हो गई मुलाकात।

जब अचानक सांई सच्चरित्र की

पाई एक सौगात।

फिर सांई के विभिन्न रूपों के मिलने लगे उपहार।

तब सांई ने बुलाया मुझको शिरडी भेज के तार।

सांई सच्चरित्र ने मुझ पर अपना ऐसा जादू डाला।

सांई नाम की दिन-रात मैं जपने लगा फिर माला।

घर में गूँजने लगी हर वक्त सांई गान की धुन।

मन के तार झूमने लगे सांई धुन को सुन।

धीरे-धीरे सांई भक्ति का रंग गाढ़ा होने लगा।

और सांई कथाओं की खुश्बूं में मन मेरा खोने लगा।

सांई नाम के लिखे शब्दों पर मैं होने लगा फिदा।

अब मेरे सांई को मुझसे कोई कर पाए गा ना जुदा।

हर घङी मिलता रहे मुझे सांई का संतसंग।

सांई मेरी ये साधना कभी ना होवे भंग।

सांई चरणों में झुका रहे मेरा यह शीश।

सांई मेरे प्राण हैं और सांई ही मेरे ईश।

भेदभाव से दूर रहूँ,शुद्ध हो मेरे विचार।

सांई ज्ञान की जीवन में बहती रहे ब्यार॥

"श्रद्धा रख सब्र से काम ले अल्लाह भला करेगा."

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ॐ सांई राम


बाबा ने कहा "श्रद्धा रख सब्र से काम ले अल्लाह भला करेगा."ये विशवास और आश्वासन हमेशा से भक्तो के लिए एक उजाले की किरण बनता रहा है. धुपखेडा गाँव के चाँद पाटिल से लेकर आज तक जिसने भी अपने मन में ये श्रीसाईं के इन दो शब्दों को बसा लिया उसका पूरी दुनिया तो क्या स्वयं प्रारब्ध या कहें की 'होनी'भी कुछ नहीं बिगाड़ सकती. सिर्फ एक अटल विश्वाश और अडिग यकीन आपको सारी मुसीबतों और तकलीफों के पार ले जा सकता है.

ॐ नमो भगवते साई नाथाये नमो नमः Merry Christmas to all...

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ॐ सांई राम
Merry Christmas to all...



ॐ श्री साई नाथाय नमः
!!जय श्री हरि:!!
"साईं बाबा"तेरी चोखट को अपना मुकदर मानता हूँ,
साईं नाथ तुमसे तेरी सेवा की भीख मांगता हूँ,
अगर मिले सेवा तो उसको अपना नसीब मानता हूँ


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झांको अपने अन्दर प्रेम और विश्वास से,
मैं नजर आऊँगा तुम्हें,
मैं तुम में हूँ, तुम मुझसे हो,
जब अलग महसूस करते हो ख़ुद को,
तभी आस्था डगमगाती है तुम्हारी,
आ जाओ मेरी शरण में जैसे अर्जुन आया था,
मैं तुम्हें भय और दुःख से मुक्त कर दूँगा.

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ॐ नमो भगवते साई नाथाये नमो नमः
*************************************



Christmas is not a time nor a season,
but a state of mind.
To cherish peace and goodwill,
to be plenteous in mercy,
is to have the real spirit of Christmas.






श्री साईं सच्चरित्र संदेश

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ॐ सांई राम



श्री साईं सच्चरित्र संदेश,

जो स्वयं को कफनी से ढंकता हो, जिस पर सौ पेबंद लगे हों, जिसकी गद्दी और बिस्तर बोरे का बना हो; और जिसका ह्रदय सभी प्रकार की भावनाओं से मुक्त हो, उसके लिये चाँदी के सिंहासन की क्या कीमत ?, इस प्रकार का कोई भी सिंहासन तो उनके लिये रुकावट ही होगा I फिर भी अगर भक्तगण पीछे से चुपचाप सरका कर उसे निचे लगा देते थे, तो बाबा उनकी प्रेम और भक्ति देखते हुए, उनकी इच्छा की आदरपूर्ति के लिए मना नहीं करते थे I

"Whose clothing is a patched up kafni; whose seat is sack cloth; whose mind is free of desires. what is a silver throne for him ?, Seeing the devotion of the devotees, he ignored the fact that they. after their difficulties were resolved turned their back on him. "


बुरा संग सदैव हानिकारक होता है; वह दुखों और कष्टों का घर होता है, जो बिना बताये तुम्हे कुमार्ग पर लाकर खड़ा कर देता है Iवह सभी सुखों का हरण कर लेता हैं I एसी बुरीसंगति के कारण होने वाली बर्बादी और पाप से साईनाथ या सदगुरु के अलवा और कौन रक्षा कर सकता हैं ?

"Bad company is absolutely harmful. It is the adobe of severe miseries. Unknowingly it would take you to the by-lanes, by-passing the highway of happiness. Without the one and only Sainath or without a Sadguru who else can purify the ill-effects of the bad company."

जीवन के लिये श्री सांई के उपदेश

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ॐ सांई राम



जीवन के लिये श्री सांई के उपदेश

"शिर्डी परम भाग्यशालिनी है, जहां एक अमूल्य हीरा है। जिन्हें तुम इस प्रकार परिश्रम करते हुए देख रहे हो, वे कोई सामान्य पुरुष नहीं हैं। अपितु, यह भूमि बहुत भाग्यशालिनी तथा महान् पुण्यभूमि है, इसी कारण इसे यह रत्न प्राप्त हुआ है।

केवल गत जन्मों के अनेक शुभ संस्कार एकत्रित होने पर ही ऐसा दर्शन प्राप्त होना सुलभ हो सकता है। यदि आप श्री सांई बाबा को एक दृष्टि भर कर देख लेंगे, तो आपको सम्पूर्ण विश्व ही सांईमय दिखलाई पड़ेगा।

यदि श्री सांई बाबा के उपदेशों का, जो कि वैदिक शिक्षा के समान ही मनोरंजक और शिक्षाप्रद है, ध्यानपूर्वक श्रवण एंव मनन किया जाऐ, तो भक्तों को अपने मनोवांछित फल की प्राप्ति हो जाएगीः

आज से मै जीवन के लिये श्री सांई के उपदेश श्रंखला नाम से यह टापिक पेश कर रहा हूँ!

अपने भक्तों के कल्याण का सदैव ध्यान रखने वाले सांई कहते हैः

"जो प्रेमपूर्वक मेरा नामस्मरण करेगा, मैं उसकी समस्त इच्छायें पूर्ण कर दूंगा। उसकी भक्ति मे उतरोत्तर वृद्धि होगी। जो मेरे चरित्र और कृत्यों का श्रध्दापूर्वक गायन करेगा, उसकी मै हर प्रकार से सदैव सहायता करूंगा"


OM SAI ......

जो मेरा स्मरण करता है, उसका मुझे सदैव ही ध्यान रहता है। मुझे यात्रा के लिए कोई भी साधन - गाड़ी, तांगा या विमान की आवश्यकता नही है। मुझे तो जो प्रेम से पुकारता है, उसके सम्मुख मैं अविलम्ब ही प्रगट हो जाता हूँ।


"मै अपना वचन पूर्ण करने के लिये अपना सर्वस्व निछावर कर दूंगा। मेरे शब्द कभी असत्य न निकलेंगें। "





ॐ सांई राम। हेमाडपंतजी साँई सच्चरित्र में लिखते हैं कि बाबा अक्सर कहा करते थे सबका मालिक एक। आइए बाबा के इसी संदेश पर कुछ बात करें। बाबा के विषय में हम जितना मनन करते जाते हैं बाबा के संदेशों को समझना उतना ही आसान होता जाता है। बाबा के बारे में लिखना और पढ़ना हम साँई भक्तो को इतना प्रिय है कि बाबा की एक लेखिका भक्तन ने तो अपनी एक किताब में बाबा को ढेर सारे पत्र लिखे हैं।

मेरा मानना है कि साँई को पतियां लिखुं जो ये होय बिदेस। मन में तन में नैन में ताको कहा संदेस॥ मगर साँई के विषय में बातें करना जैसे आत्मसाक्षात्कार करना है।


बाबा ने बहुत सहजता से कहा है कि सबका मालिक एक। ऐसा कह पाना शायद बाबा के लिए ही सम्भव था क्योंकि समस्त आसक्तियों और अनुरागों से मुक्त एक संत ही ऐसा कह सकता है। प्रचलित धर्म चाहे वो हिन्दु धर्म हो, इस्लाम हो, सिख हो, ईसाई हो, जैन हो, बौद्ध हो या कोई अन्य, प्रश्न ये है कि जो ये धर्म सिखा रहे हैं क्या वो गलत है॑ क्योंकि अगर गलत ना होता तो बाबा को इस धरती पर अवतार लेने की आवश्यकता ही ना होती। हमारे ये सभी प्रचलित धर्म इतने कट्टर क्यों हैं कि अगर एक हिन्दु किसी मुसलमान के साथ बैठता है या उसका छुआ खाता-पीता है तो उसका कथित धर्म भ्रष्ट हो जाता है॑ वैसे आप ही सोचिए वो धर्म ही क्या जो छूने या खानेॅपीने से भ्रष्ट हो जाए। वास्तव में धर्म जो बताते हैं वो है शिक्षा। एक कथा के अनुसार परमात्मा ने देवों, दानवों और मानवों के जीवन की पहली सीख के रूप में केवल एक अक्षर कहा था 'दा'इसका अर्थ देवों के लिए था कि उन्हें अपने - भोगो और आसक्तियों का दमन करना चाहिए। दानवों के लिए शिक्षा थी कि उन्हें दया करनी चाहिए और मानव जाति को कहा कि उन्हें दान करना चाहिए। बाबा ने कलयुग में एक बार फिर धरती पर आकर हमें इसी शिक्षा की याद दिलाई।

प्रचलित धर्म भी इन तीनों शिक्षाओं पर अमल करने को कहते हैं। सभी धर्मों के अनुसार हमें अपनी आसक्तियों और भोगो का दमन करना चाहिए क्योंकि सभी परेशानियां और तकलीफें आसक्ति से आरंभ होती हैं। इस्लाम में किसी भी प्रकार से ब्याज लेना मना है। जो आसक्ति को दूर करता है। कुरान शरीफ के अनुसार जो मुसलमान अपने पडोसी को भूखा जानकर भी अपना पेट भर लेता है वो अल्लाह की राह में सबसे बडा गुनहगार है यानि अपने आसॅपास के सभी जीवों पर दया का भाव रखना एक सच्चा मुसलमान बनने की कुछ जरूरी शर्तों में से एक है। इसी तरह ईद के पवित्र मौके पर फितरा और जकात का लाजिम होना इस्लाम की दान की शिक्षा का एक रूप है।

श्रीसाँई सच्चरित्र अध्याय २५ में वर्णन है कि श्रीसाँई ने दामू अण्णा कसार की रूई और अनाज के सौदे में धनलाभ की आसक्ति को दूर किया। इसी प्रकार दूसरी शिक्षा है दया। "बाबा की शिक्षा है कि भक्त जो दूसरों को पीडा पहुंचाता है, वह मेरे हृदय को दु:ख पहुंचाता है तथा मुझे कष्ट पहुंचाता है। -श्रीसाँई सच्चरित्र अध्याय ४४"अर्थात हमें प्रत्येक प्राणी पर दया करनी चाहिए। और तीसरी शिक्षा है दान जिसका हेमाडपंतजी ने श्रीसाँई सच्चरित्र के अध्याय १४ में दक्षिणा का मर्म के रूप में वर्णन किया है।

बाबा ने रामनवमी और उर्स एक साथ मनाए क्योंकि बाबा सिखाना चाहते थे कि सभी धर्म एक ही शिक्षा दे रहे हैं। इसीलिए बाबा सदा कहा करते थे कि सबका मालिक एक। ये मालिक ही वो नूर है। वो शिक्षा है जो हमें हमारे जन्म लेने का कारण बताती है। अव्वल अल्लाह नूर उपाया कुदरत के सब बंदे। एक नूर से सब जग उपजया कौन भले कौन मंदे। साँई अपनी कृपा सब पर बनाए रखें यही कामना है।

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 24

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ॐ सांई राम



आप सभी को शिर्डी के साँई बाबा ग्रुप की ओर से साईं-वार की हार्दिक शुभ कामनाएं , हम प्रत्येक साईं-वार के दिन आप के समक्ष बाबा जी की जीवनी पर आधारित श्री साईं सच्चित्र का एक अध्याय प्रस्तुत करने के लिए श्री साईं जी से अनुमति चाहते है |

हमें आशा है की हमारा यह कदम घर घर तक श्री साईं सच्चित्र का सन्देश पंहुचा कर हमें सुख और शान्ति का अनुभव करवाएगा, किसी भी प्रकार की त्रुटी के लिए हम सर्वप्रथम श्री साईं जी के कमल चरणों में क्षमा याचना अर्पण करते है।

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 24
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श्री साई बाबा का हास्य विनोद, चने की लीला (हेमाडपंत), सुदामा की कथा, अण्णा चिंचणीकर और मौसीबाई की कथा ।
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प्रारम्भ
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अगले अध्याय में अमुक-अमुक विषयों का वर्णन होगा, ऐसा कहना एक प्रकार का अहंकार ही है । जब तक अहंकार गुरुचरणों में अर्पित न कर दिया जाये, तब तक सत्यस्वरुप की प्राप्ति संभव नहीं । यदि हम निरभिमान हो जाये तो सफलता प्रापात होना निश्चित ही है ।

श्री साईबाबा की भक्ति करने से ऐहिक तथा आध्यात्मिक दोनों पदार्थों की प्राप्ति होती है और हम अपनी मूल प्रकृति में स्थिरता प्राप्त कर शांति और सुख के अधिकारी बन जाते है । अतः मुमुक्षुओं को चाहिये कि वे आदरसहित श्री साईबाबा की लीलाओं का श्रवण कर उनका मनन करें । यदि वे इसी प्रकारा प्रयत्न करते रहेंगे तो उन्हें अपने जीवन-ध्येय तथा परमानंद की सहज ही प्राप्ति हो जायेगी । प्रायः सभी लोगों को हास्य प्रिय होता है, परन्तु हास्य का पात्र स्वयं कोई नहीं बनना चाहता । इस विषय में बाबा की पद्घति भी विचित्र थी । जब वह भावनापूर्ण होती तो अति मनोरंजक तथा शिक्षाप्रद होती थी । इसीलिये भक्तों को यदि स्वयं हास्य का पात्र बनना भी पड़ता था तो उन्हें उसमें कोई आपत्ति न होती थी । श्री हेमाडपंत भी ऐसा एक अपना ही उदाहरण प्रस्तुत करते है ।
चना लीला
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शिरडी में बाजार प्रति रविवार को लगता है । निकटवर्ती ग्रामों से लोग आकर वहाँ रास्तों पर दुकानें लगाते और सौदा बेचते है । मध्याहृ के समय मसजिद लोगों से ठसाठस भर जाया करती थी, परन्तु इतवार के दिन तो लोगों की इतनी अधिक भीड़ होती कि प्रायः दम ही घुटने लगता था । ऐसे ही एक रविवार के दिन श्री. हेमाडपंत बाबा की चरण-सेवा कर रहे थे । शामा बाबा के बाई ओर व वामनराव बाबा के दाहिनी ओर थे । इस अवसर पर श्रीमान् बूटीसाहेब और काकसाहेब दीक्षित भी वहाँ उपस्थित थे । तब शामा ने हँसकर अण्णासाहेब से कहा कि देखो, तुम्हारे कोट की बाँह पर कुछ चने लगे हुए-से प्रतीत होते है । ऐसा कहकर शामा ने उनकी बाँह स्पर्श की, जहाँ कुछ चने के दाने मिले । जब हेमाडपंत ने अपनी बाईं कुहनी सीधी की तो चने के कुछ दाने लुढ़क कर नीचे भी गिर पड़े, जो उपस्थित लोगों ने बीनकर उठाये । भक्तों को तो हास्य का विषय मिल गया और सभी आश्चर्यचकित होकर भाँति-भाँति के अनुमान लगाने लगे, परन्तु कोई भी यह न जान सका कि ये चने के दाने वहाँ आये कहाँ से और इतने समय तक उसमें कैसे रहे । इसका संतोषप्रद उत्तर किसी के पास न था, परन्तु इस रहस्य का भेद जानने को प्रत्येक उत्सुक था । तब बाबा कहने लगे कि इन महाशय-अण्णासाहेब को एकांत में खाने की बुरी आदत है । आज बाजार का दिन है और ये चने चबाते हुए ही यहाँ आये है । मैं तो इनकी आदतों से भली भाँति परिचित हूँ और ये चने मेरे कथन की सत्यता के प्रमाणँ है । इसमें आश्चर्य की बात ही क्या है । हेमाडपंत बोले कि बाबा, मुझे कभी भी एकांत में खाने की आदत नहीं है, फिर इस प्रकार मुझ पर दोशारोपण क्यों करते है । अभी तक मैंने शिरडी के बाजार के दर्शन भी नहीं किये तथा आज के दिन तो मैं भूल कर भी बाजार नहीं गया । फिर आप ही बताइये कि मैं ये चने भला कैसे खरीदता और जब मैंने खरीदे ही नही, तब उनके खाने की बात तो दूर की ही है । भोजन के समय भी जो मेरे निकट होते है, उन्हें उनका उचित भाग दिये बिना मैं कभी ग्रहण नहीं करता । बाबा-तुम्हारा कथन सत्य है । परन्तु जब तुम्हारे समीप ही कोई न हो तो तुम या हम कर ही क्या सकते है । अच्छा, बताओ, क्या भोजन करने से पूर्व तुम्हें कभी मेरी स्मृति भी आती है । क्या मैं सदैव तुम्हारे साथ नहीं हूँ । फिर क्या तुम पहले मुझे ही अर्पण कर भोजन किया करते हो ।

शिक्षा
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इस घटना द्घारा बाबा क्या शिक्षा प्रदान कर रहे है, थोड़ा इस ओर ध्यान देने की आवश्यकता है । इसका सारांश यह है कि इन्द्रियाँ, मन और बुद्घि द्घारा पदार्थों का रसास्वादन करने के पूर्व बाबा का स्मरण करना चाहिए । उनका स्मरण ही अर्पण की एक विधि है । इन्द्रियाँ विषय पदार्थों की चिन्ता किये बिना कभी नहीं रह सकती । इन पदार्थों को उपभोग से पूर्व ईश्वरार्पण कर देने से उनका आसक्ति स्वभावतः नष्ट हो जाती है । इसी प्रकार समस्त इच्छाये, क्रोध और तृष्णा आदि कुप्रवृत्तियों को प्रथम ईश्वरार्पण कर गुरु की ओर मोड़ देना चाहिये । यदि इसका नित्याभ्यास किया जाय तो परमेश्वर तुम्हे कुवृत्तियों के दमन में सहायक होंगे । विषय के रसास्वादन के पूर्व वहाँ बाबा की उपस्थिति का ध्यान अवश्य रखना चाहिये । तब विषय उपभोग के उपयुक्त है या नही, यह प्रश्न उपस्थित हो जायेगा और ततब अनुचित विषय का त्याग करना ही पड़ेगा । इस प्रकार कुप्रवृत्तियाँ दूर हो जायेंगी और आचरण में सुधार होगा । इसके फलस्वरुप गुरुप्रेम में वृद्घि होकर सुदृ ज्ञान की प्राप्ति होगी । जब इस प्रकारा ज्ञान की वृद्घि होती है तो दैहिक बुद्घि नष्ट हो चैतन्यघन में लीन हो जाती है । वस्तुतः गुरु और ईश्वर में कोई पृथकत्व नहीं है और जो भिन्न समझता है, वह तो निरा अज्ञानी है तथा उसे ईश्वर-दर्शन होना भी दुर्लभ है । इसलिये समस्त भेदभाव को भूल कर, गुरु और ईश्वर को अभिन्न समझना चाहिये । इस प्रकार गुरु सेवा करने से ईश्वर-कृपा प्राप्त होना निश्चित ही है और तभी वे हमारा चित्त शुदृ कर हमें आत्मानुभूति प्रदान करेंगे । सारांश यह है कि ईश्वर और गुरु को पहले अर्पण किये बिना हमें किसी भी इन्द्रयग्राहृ विषय की रसास्वादन न करना चाहिए । इस प्रकार अभ्यास करने से भक्ति में उत्तरोततर वृद्घि होगी । फिर भी श्री साईबाबा की मनोहर सगुण मूर्ति सदैव आँखों के सम्मुखे रहेगी, जिससे भक्ति, वैराग्य और मोक्ष की प्राप्ति शीघ्र हो जायेगी । ध्यान प्रगाढ़ होने से क्षुधा और संसार के अस्तित्व की विस्मृति हो जायेगी और सांसारिक विषयों का आकर्षण स्वतः नष्ट होकर चित्त को सुख और शांति प्राप्त होगी ।


सुदामा की कथा
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उपयुक्त घटना का वर्णन करते-करते हेमाडपंत को इसी प्रकार की सुदामा की कथा याद आई, जो ऊपर वर्णित नियमों की पुष्टि करती है ।
श्री कृष्ण अपने ज्येष्ठ भ्राता बलराम तथा अपने एक सहपाठी सुदामा के साथ सांदीपनी ऋषि के आश्रम में रहकर विघाध्ययन किया करते थे । एक बार कृष्ण और बलराम लकड़ियाँ लाने के लिये बन गये । सांदीपनि ऋषि की पत्नी ने सुदामा को भी उसी कार्य के निमित्त वन भेजा तथा तीनों विघार्थियों को खाने को कुछ चने भी उन्होंने सुदामा के द्घारा भेजे । जब कृष्ण और सुदामा की भेंट हुई तो कृष्ण ने कहा, दादा, मुझे थोड़ा जल दीजिये, प्यास अधिक लग रही है । सुदामा ने कहा, भूखे पेट जल पीना हानिकारक होता है, इसलिये पहले कुछ देर विश्राम कर लो । सुदामा ने चने के संबंध में न कोई चर्चा की और न कृष्ण को उनका भाग ही दिया । कृष्ण थके हुए तो थे ही, इसलिए सुदामा की गोद में अपना सिर रखते ही वे प्रगाढ़ निद्रा में निमग्न हो गये । तभी सुदामा ने अवसर पाकर चने चबाना प्रारम्भ कर दिया । इसी बीच में अचानक कृष्ण पूछ बैठे कि दादा, तुम क्या खा रहे हो और यह कड़कड़ की ध्वनि कैसी हो रही है । सुदामा ने उत्तर दिया कि यहाँ खाने को है ही क्या । मैं तो शीत से काँप रहा हूँ और इसलिये मेरे दाँत कड़कड़ बज रहे है । देखो तो, मैं अच्छी तरह से विष्णु सहस्त्रनाम भी उच्चारण नहीं कर पा रहा हूँ । यह सुनकर अन्तर्यामी कृष्ण ने कहा कि दादा, मैंने अभी स्वपन में देखा कि एक व्यक्ति दूसरे की वस्तुएँ खा रहा है । जब उससे इस विषय में प्रश्न किया गया तो उसने उत्तर दिया कि मैं खाक (धूल) खा रहा हूँ । तब प्रश्नकर्ता ने कहा, ऐसा ही हो (एवमस्तु) दादा, यह तो केवल स्वपन था, मुझे तो ज्ञात है कि तुम मेरे बिना अन्न का दाना भी ग्रहण नहीं करते, परन्तु श्रम के वशीभूत होकर मैंने तुम से ऐसा प्रश्न किया था । यदि सुदामा किंचित मात्र भी कृष्ण की सर्वज्ञता से परिचित होते तो वे इस भाँति आचरण कभी न करते । अतः उन्हें इसका फल भोगना ही पड़ा । श्रीकृष्ण के लँगोटिया मित्र होत हए भी सुदामा को अपना शेएष जीवन दरिद्रता में व्यतीत करना पड़ा, परन्तु केवल एक ही मुट्ठी रुखे चावल (पोहा), जो उनकी स्त्री सुशीला ने अत्यन्त परिश्रम से उपार्जित किए थे, भेंट करने पर श्रीकृष्ण जी बहुत प्रसन्न हो गये और उन्हें उसके बदले में सुवर्णनगरी प्रदान कर दी । जो दूसरों को दिये बिना एकांत में खाते है, उन्हें इस कथा को सदैव स्मरण रखना चाहिए । श्रुति भी इस मत का प्रतिपादन करती है कि प्रथम ईश्वर को ही अर्पण करें तथा उच्छिष्ट हो जाने के उपरांत ही उसे ग्रहण करें । यही शिक्षा बाबा ने हास्य के रुप में दी है ।


अण्णा चिंचणीकर और मौसीबाई
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अब श्री. हेमाडपंत एक दूसरी हास्यपूर्ण कथा का वर्णन करते है, जिसमें बाबा ने शान्ति-स्थापन का कार्य किया है । दामोदर घनश्याम बाबारे, उपनाम अण्णा चिंचणीकर बाबा के भक्त थे । वे सरल, सुदृढ़ और निर्भीक प्रकृति के व्यक्ति थे । वे निडरतापूर्वक स्पष्ट भाषण करते और व्यवहार में सदैव नगद नारायण-से थे । यघपि व्यावहारिक दृष्टि से वे रुखे और असहिष्णु प्रतीत होते थे, परन्तु अन्तःकरण से कपटहीन और व्यवहार-कुशल थे । इसी कारण उन्हें बाबा विशेष प्रेम करते थे । सभी भक्त अपनी-अपनी इच्छानुसार बाबा के अंग-अंग को दबा रहे थे । बाबा का हाथे कठड़े पर रखा हुआ था । दूसरी ओर एक वृदृ विधवा उनकी सेवा कर रही थी, जिनका नाम वेणुबाई कौजलगी था । बाबा उन्हें माँ शब्द से सम्बोधित करते तथा अन्य लोग उन्हे मौसीबाई कहते थे । वे एक शुदृ हृदय की वृदृ महिला थी । वे उस समय दोनों हाथों की अँगुलियाँ मिलाकर बाबा के शरीर को मसल रही थी । जब वे बलपूर्वक उनका पेट दबाती तो पेट और पीठ का प्रायः एकीकरण हो जाता था । बाबा भी इस दबाव के कारण यहाँ-वहाँ सरक रहे थे । अण्णा दूसरी ओर सेवा में व्यस्त थे । मौसीबाई का सिर हाथों की परिचालन क्रिया के साथ नीचे-ऊपर हो रहा था । जब इस प्रकार दोनों सेवा में जुटे थे तो अनायास ही मौसीबाई विनोदी प्रकृति की होने के कारण ताना देकर बोली कि यह अण्णा बहुत बुरा व्यक्ति है और यह मेरा चुंबन करना चाहता है । इसके केश तो पक गये है, परन्तु मेरा चुंबन करने में इसे तनिक भी लज्जा नहीं आती है । यतह सुनकर अण्णा क्रोधित होकर बोले, तुम कहती हो कि मैं एक वृदृ और बुरा व्यक्ति हूँ । क्या मैं मूर्ख हूँ । तुम खुद ही छेड़खानी करके मुझसे झगड़ा कर रही हो । वहाँ उपस्थित सब लोग इस विवाद का आनन्द ले रहे थे । बाबा का स्नेह तो दोनों पर था, इसलिये उन्होंने कुशलतापूर्वक विवाद का निपटारा कर दिया । वे प्रेमपूर्वक बोले, अरे अण्णा, व्यर्थ ही क्यों झगड़ रहे हो । मेरी समझ में नहीं आता कि माँ का चुंबन करने में दोष या हानि ही क्या हैं । बाबा के शब्दों को सुनकर दोनों शान्त हो गये और सब उपस्थित लोग जी भरकर ठहाका मारकर बाबा के विनोद का आनन्द लेने लगे ।

बाबा की भक्त-परायणता
बाबा भक्तों को उनकी इच्छानुसार ही सेवा करने दिया करते थे और इस विषय में किसी प्रकार का हस्तक्षेप उन्हें सहन न था । एक अन्य अवसर पर मौसीबाई बाबा का पेट बलपूर्वक मसल रही थी, जिसे देख कर दर्शकगण व्यग्र होकर मौसीबाई से कहने लगे कि माँ । कृपा कर धीरे-धीरे ही पेट दबाओ । इस प्रकार मसलने से तो बाबा की अंतड़ियाँ और ना़ड़ियाँ ही टूट जायेंगी । वे इतना कह भी न पाये थे कि बाबा अपने आसन से तुरन्त उठ बैठे और अंगारे के समान लाल आँखें कर क्रोधित हो गये । साहस किसे था, जो उन्हें रोके । उन्होंने दोनों हाथों से सटके का एक छोर पकड़ नाभि में लगाया और दूसरा छोर जमीन पर रख उसे पेट से धक्का देने लगे । सटका (सोटा) लगभग 2 या 3 फुट लम्बा था । अब ऐसा प्रतीत होने लगा कि वह पेट में छिद्र कर प्रवेश कर जायेगा । लोग शोकित एवं भयभीत हो उठे कि अब पेट फटने ही वाला है । बाबा अपने स्थान पर दृढ़ हो, उसके अत्यन्त समीप होते जा रहे थे और प्रतिक्षण पेट फटने की आशंका हो रही थी । सभी किंकर्तव्यविमूढ़ हो रहे थे । वे आश्चर्यचकित और भयभीत हो ऐसे खड़े थे, मानो गूँगोंका समुदाय हो । यथार्थ में भक्तगण का संकेत मौसीबाई को केवल इतना ही था कि वे सहज रीति से सेवा-शुश्रूषा करें । किसी की इच्छा बाबा को कष्ट पहुँचाने की न थी । भक्तों ने तो यह कार्य केवल सद्भभावना से प्रेरित होकर ही किया था । परन्तु बाबा तो अपने कार्य में किसी का हस्तक्षेप कणमात्र भी न होने देना चाहते थे । भक्तों को तो आश्चर्य हो रहा था कि शुभ भावना से प्रेरित कार्य दुर्गति से परिणत हो गया और वे केवल दर्शक बने रहने के अतिररिक्त कर ही क्या सकते थे । भाग्यवश बाबा का क्रोध शान्त हो गया और सटका छोड़कर वे पुनः आसन पर विराजमान हो गये । इस घटना से भक्तों ने शिक्षा ग्रहण की कि अब दूसरों के कार्य में कभी भी हस्तक्षेप न करेंगे और सबको उनकी इच्छानुसार ही बाबा की सेवा करने देंगे । केवल बाबा ही सेवा का मूल्य आँकने में समर्थ थे ।


।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

पढेगा इंडिया !! तो बढेगा इंडिया !!

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ॐ सांई राम





ॐ सांई राम

पढेगा इंडिया !!
तो बढेगा इंडिया !! 


One day a 6-year-old girl was sitting in a classroom. The teacher was going to explain evolution to the children.

The teacher asked a little boy: “Manav, do you see the tree outside?”

Manav: “Yes.”

Teacher: “Manav, do you see the grass outside?”

Manav: “Yes.”

Teacher: “Go outside and look up and see if you can see the sky.”

Manav: “Okay. (He returned a few minutes later.) Yes, I saw the sky.”

Teacher: “Did you see God anywhere?”

Manav: “No.”

Teacher: “That’s my point. We can’t see God because he isn’t there. He just doesn’t exist.”

A little girl spoke up and wanted to ask the boy some questions. The teacher agreed, and the little girl asked the boy:

“Manav, Do you see the tree outside?”

Manav: “Yes.”

Little Girl: “Manav, do you see the grass outside?”

Manav: “Yessssss!”

Little Girl: “Did you see the sky?”

Manav: “Yessssss!”

Little Girl: “Manav, do you see the teacher?”

Manav: “Yes”

Little Girl: “Do you see her mind or her brain?”

Manav: “No”

Little Girl: “Then according to what we were taught today in school, she must not have one!”

God cannot be seen with our physical eyes. He can be seen by the eyes of knowledge, faith, and devotion only. (Gita 7.24-25) For we walk by faith, not by sight. He answers our prayer!


A Collection from Sri Sai Satcharita

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ॐ सांई राम जी 







A Collection from Sri Sai Satcharita

Why fear when I am here?

I am formless and everywhere

I am in everything and beyond. I fill all space.

All that you see taken together is Myself.

I do not shake or move.

If one devotes their entire time to me and rests in me, need fear nothing for body and soul.

If one sees me and me alone and listens to my Leelas and is devoted to me alone, they will reach God.

My business is to give blessings.

I get angry with none. Will a mother get angry with her children? Will the ocean send back the waters to the several rivers?

I will take you to the end.

Surrender completely to God.

If you make me the sole object of your thoughts and aims, you will gain the supreme goal.

Trust in the Guru fully. That is the only sadhana.

I am the slave of my devotee.

Stay by me and keep quiet. I will do the rest.

What is our duty? To behave properly. That is enough.

My eye is ever on those who love me.

Whatever you do, wherever you may be, always bear this in mind: I am always aware of everything you do.

I will not allow my devotees to come to harm.

If a devotee is about to fall, I stretch out my hands to support him or her.

I think of my people day and night. I say their names over and over.

My treasury is open but no one brings carts to take from it. I say, “Dig!” but no one bothers.

My people do not come to me of their own accord; it is I who seek and bring them to me.

All that is seen is my form: ant, fly, prince, and pauper

However distant my people may be, I draw them to me just as we pull a bird to us with a string tied to its foot.

I love devotion.

This body is just my house. My guru has long ago taken me away from it.

Those who think that Baba is only in Shirdi have totally failed to know me.

Without my grace, not even a leaf can move.

I look on all with an equal eye.

I cannot do anything without God’s permission.

God has agents everywhere and their powers are vast.

I have to take care of my children day and night and give an account to God of every paisa.

The wise are cheerful and content with their lot in life.

If you are wealthy, be humble. Plants bend when they bear fruit.

Spend money in charity; be generous and munificent but not extravagant.

Get on with your worldly activities cheerfully, but do not forget God.

Do not kick against the pricks of life.

Whatever creature comes to you, human or otherwise, treat it with consideration.

Do not be obsessed by the importance of wealth.

See the divine in the human being.

Do not bark at people and don’t be aggressive, but put up with others’ complaints.

There is a wall of separation between oneself and others and between you and me. Destroy this wall!

Give food to the hungry, water to the thirsty, and clothes to the naked. Then God will be pleased.

Saburi (patience) ferries you across to the distant goal.

The four sadhanas and the six Sastras are not necessary. Just has complete trust in your guru: it is enough.

Meditate on me either with form or without form, that is pure bliss.

God is not so far away. He is not in the heavens above, nor in hell below. He is always near you.

If anyone gets angry with another, they wound me to the quick.

If you cannot endure abuse from another, just say a simple word or two, or else leave.

What do we lose by another’s good fortune? Let us celebrate with them, or strive to emulate them.

That should be our desire and determination.

I stay by the side of whoever repeats my name.

If formless meditation is difficult, then think of my form just as you see it here. With such meditation, the difference between subject and object is lost and the mind dissolves in unity.

If anyone offends you do not return tit for tat.

I am the slave of those who hunger and thirst after me and treat everything else as unimportant.

Whoever makes me the sole object of their love, merges in me like a river in the ocean.

Look to me and I will look to you.

What God gives is never exhausted, what man gives never lasts.

Be contented and cheerful with what comes.

My devotees see everything as their Guru.

Poverty is the highest of riches and a thousand times superior to a king’s wealth.

Put full faith in God’s providence.

Whoever withdraws their heart from wife, child, and parents and loves me, is my real lover.

Distinguish right from wrong and be honest, upright and virtuous.

Do not be obsessed by egotism, imagining that you are the cause of action: everything is due to God.


If we see all actions as God’s doing, we will be unattached and free from karmic bondage.

Other people’s acts will affect just them. It is only your own deeds that will affect you.

Do not be idle: work, utter God’s name and read the scriptures.

If you avoid rivalry and dispute, God will protect you.

People abuse their own friends and family, but it is only after performing many meritorious acts that one gets a human birth. Why then come to Shirdi and slander people?

Speak the truth and truth alone.

No one wants to take from me what I give abundantly.

Do not fight with anyone, nor retaliate, nor slander anyone.

Harsh words cannot pierce your body. If anybody speaks ill of you, just continue on unperturbed.

Choose friends who will stick to you till the end, through thick and thin.

Meditate on what you read and think of God.

I give my devotees whatever they ask, until they ask for what I want to give.

You should not stay for even one second at a place where people are speaking disrespectfully of a saint.

If you do not want to part with what you have, do not lie and claim that you have nothing, but decline politely saying that circumstances or your own desires prevent you.

Let us be humble.

Satsang that is associating with the good is good. Dussaya, or associating with evil-minded people, is evil and must be avoided.

What you sow, you reap. What you give, you get.

Recognize the existence of the Moral Law as governing results. Then unswervingly follow this Law.

All gods are one. There is no difference between a Hindu and a Muslim. Mosque and temple are the same.

Fulfill any promises you have made.

Death and life are the manifestations of God’s activity. You cannot separate the two. God permeates all.

Mukti is impossible for those addicted to lust.

Gain and loss, birth and death are in the hands of God.

When you see with your inner eye. Then you realize that you are God and not different from Him.

Avoid unnecessary disputationò

The giver gives, but really he is sowing the seed for later: the gift of a rich harvest.

Wealth is really a means to work out dharma. If one uses it merely for personal enjoyment, it is vainly spent.

To God be the praise. I am only the slave of God.

God will show His love. He is kind to all.

Whenever you undertake to do something, do it thoroughly or not at all.

One’s sin will not cease till one falls at the feet of Sadhusò

Be ashamed of your hatred. Give up hatred and be quiet.

The Moral Law is inexorable, so follow it, observe it, and you will reach your goal: God is the perfection of the Moral Law.
                  
I am your servants’ servant.

Always think of God and you will see what He does.

Have faith and patience. Then I will be always with you wherever you are.


शिर्डी के साईं बाबा ग्रुप (रजि.)
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