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Channel: Shirdi Ke Sai Baba Group (Regd.)
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श्री गुरु तेग बहादर जी – साखियाँ - सिंघा द्वारा गुरु का वचन मानना

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श्री गुरु तेग बहादर जी – साखियाँ




सिंघा द्वारा गुरु का वचन मानना

अलीशेर से गुरु जी जोगे गाँव आए| आप ने भोपाला गाँव में डेरा लगाया| वहाँ रात ठहर कार आप खीवा कलां जा ठहरे| इस गाँव का एक किसान रोज आपके दर्शन को आता| वह तीन घड़ी बैठा भी रहता| परन्तु एक दिन वह माथा टेक कर झटपट ही उठकर चला गया|गुरु जी ने उससे इसका कारण पूछा कि आज आप जल्दी क्यों जा रहे हो?

सिंघा ने कहा कि गुरु जी आज एक व्यक्ति के यहाँ सगाई है| वहाँ सबको गुड़ मिलना है| मुझे भी अपने हिस्से का गुड़ लेने जाना है| गुरु जी ने वचन किया कि आप यहाँ धैर्य सहित बैठे रहे| आपको घर बैठे ही दो बाँटने आ जाया करेंगे| गुरु जी का वचन सुनकर सिंघा वहीं बैठा रहा|

उधर जिसके घर सगाई थी, जब उसे इस बात का ज्ञान हुआ कि सिंघा गुरु जी के पास बैठा है तो गाँव के चौधरी ने कहा कि साधू संत के पास जाना ठीक है| आगे से तुम्हें उसे दो बाँटने वाले दिया करो| यदि वह खुद ना लेने आए तो उसके घर दे आया करो| उस दिन से सिंघा को दो बाँटने वाले मिलने लगे|

सिंघा के बिना इस गाँव का और कोई भी आदमी गुरु जी के दर्शन करने नहीं आया| सिंघा बहुत प्रसन्न था कि उसने गुरु जी के वचनों को मानकर कितना अच्छा किया|

श्री गुरु तेग बहादर जी – साखियाँ - जिमींदार द्वारा गुरु के वचनों की उलंघना करना

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श्री गुरु तेग बहादर जी – साखियाँ






जिमींदार द्वारा गुरु के वचनों की उलंघना करना

एक जिमींदार गुरु तेग बहादर जी की बड़ी श्रद्धा के साथ सेवा करता था| गुरु जी उसकी सेवा पर बहुत खुश थे| उसकी सेवा पर खुश होकर गुरु जी ने वह सारी भेंटा उसको दे दी जो संगत की तरफ से आई थी| गुरु जी ने साथ-साथ यह भी वचन किया कि इस धन से कूआँ लगवाओ और इसके साथ-साथ ही धर्मशाला भी बनवाओ| इसके साथ आपको और कुछ भी करना है| पास ही फलदार वृक्षों का बाग लगवाओ| साथ ही साथ गुरु जी ने यह भी कहा कि इस धन के लालच में मत पड़ना| अगर आप इन्हें अन्य प्रकार से खर्च करोगे तो सब कुछ निष्फल हो जाएगा|

जब गुरु जी चले गए तो जिमींदार को लालच आ गया| उसने लोभ में आकर उस धन का कूआँ अपनी खेती में लगवाने की सलाह कर ली| उसने कारीगरों को बुलाया| कारीगरों को बुलाकर कूएँ का पाड़ खुदवाया| उसमे चक्क उतारा| तो वह वहाँ ही ठहर गया| बहुत जोर लगाया पर चक्क नीचे ना उतरा|

इस कूएँ की खुडल आज तक जिमींदार के खेत में उजाड़ है| इस तरह गुरु जी के वचनों की उलंघना करके जिमींदार ने यह सारा धन ही निष्फल गँवा लिया|

श्री गुरु तेग बहादर जी – साखियाँ - खारा कूआँ मीठा करना

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श्री गुरु तेग बहादर जी – साखियाँ





खारा कूआँ मीठा करना

श्री गुरु तेग बहादर जी जब गाँव मूलोवाल पहुँचे तो मईया व गोदे ने आपकी खूब सेवा की| गुरु जी को बहुत प्यास लगी| उन्होंने पीने के लिए पानी मंगवाया| परन्तु पानी बहुत खारा था| गुरु जी ने उनसे पूछा कि यहाँ कोई मीठे पानी का कूआँ नहीं है? तब मईया ने कहा कि महाराज! मीठे पानी का कूआँ गाँव से बहुत दूर है| यदि आप हुक्म करो तो वहाँ से मीठा पानी ले आऊँ|

गुरु जी ने वचन किया जाओ वाहि गुरु कहकर यहाँ से ही हमारे पीने के लिए जल ले आओ| येही मीठा हो जायेगा| गुरु जी का वचन मानकर गोंदा ने वैसा ही किया जैसा गुरु जी ने कहा था| गोंदा जब पानी लाया तो गुरु जी ने पी कर बताया कि यह जल बहुत ठंडा और मीठा है| आज से यह कूआँ गुरु का कहावेगा|

जब लोगों को यह ज्ञात हुआ कि गुरु जी के वचनों से खारे कूएँ का पानी मीठा हो गया है, तो संगत श्रद्धा से साथ भेंट लेकर आपके दर्शन को आई| इस गाँव में आपने दो दिन विश्राम किया| मईया के प्रेम और श्रद्धा से खुश होकर उसको गाँव का चौधरी बना दिया|

दहेज़ के खिलाफ हमारी आवाज़ ..... साडा हक... ऐथे रख !!

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दहेज़ के खिलाफ हमारी आवाज़ ..... साडा हक... ऐथे रख !!

ॐ सांई राम

दहेज़ प्रथा के खिलाफ एक नारा

हम अपने मानव जीवन में स्त्री या पुरुष, बाल या प्रौढ़ किसी भी अवस्था में
क्यों ना हो ....

एक बात तो तय है की, या तो हम ईश्वरिये शक्ति को मानते है या नहीं मानते ...

उस ईश्वरिये शक्ति का कोई मज़हब नहीं, कोई जात नहीं, कोई आकार नहीं, वह तो अनंत
है एवं सभी का स्वामी है

परन्तु एक बात हम भूल जाते है की हम सब की रचना करने वाला केवल एक ही है और
यदि हमे बनाने वाले ने ही

हमारी रचना में किसी तरह का भेद नहीं किया तो फिर हम ही हमारे रचनाकर्ता के
साथ भेद भाव क्यों रखते है ...

किसी भी धर्म या जाती में खून का रंग तो लाल ही होता है |

आसमान भी किसी धर्म को देख कर अपना रंग तो नहीं बदलता |

वायु मज़हब का फर्क देख कर रुख नहीं बदलती |

वादियाँ अपनी सुन्दरता में फर्क नहीं आने देती |

पानी हिन्दू-मुसलमान को अपना स्वाद अलग-अलग ज्ञात नहीं करवाता |

और यही ईश्वरिये क़ानून सिर्फ हिन्दुस्तान में ही नहीं बल्कि सारे संसार में
लागू है |

सिर्फ फर्क इतना है की इश्वर के हाथ की कठपुतली बन कर चलने वाला ये मानव शरीर,

स्वयं को ईश्वरिये शक्ति से भी अधिक बलशाली मानता है,

जबकि वो इस बात से भली भाँती परिचित है की उसकी हैसियत मिटटी से अधिक नहीं है
बल्कि कई गुना कम ही है |

आज आप अपने इश्वर को साक्षी मान कर अपने आप से वायदा करें की आप भले ही दुनिया
के हजारो साल पुरानी,

इस समाज की एक दीवार तो आज गिरा कर ही रहेंगे,

और वह दुनिया की सबसे गन्दी और घिनौनी दीवार है दहेज़ की |

आज आप किसी की बेटी को यदि अपनी बहु के रूप में अपनाने के लिए दहेज़ की मांग
कर भी रहे है,

तो यह बात तय है की लगभग उसका दुगना आप को अपनी बेटी के दहेज़ के लिए भी संजो
कर रखना पड़ेगा|

यदि आज कोई अपनी बहु को दहेज़ के कारण जिंदा जला कर या ख़ुदकुशी के लिए मजबूर
भी कर रहा है तो यह बात जान लो,

की इश्वर हमारे सभी कर्मो का लेखा-झोखा रखता है और उसके न्याय में ज़रा भी रहम
की गुंजाइश नहीं होती....

आज हम आप से बस इतना ही चाहते है बस कुछ पालो के लिए अपने मज़हब को भूल कर,

इस दहेज़ रुपी बिमारी का अंत करने के लिए एक हो जाए..

एक युवा मोर्चे का हिस्सा बने, दहेज़ लेने वालों और देने वालो का नाम जग में
उजागर करे,

ठीक वैसे ही जैसा की आज कल लोग दुसरो की गाड़ियों की तसवीरें खीच कर फेसबुक पर,

दिल्ली ट्रेफिक पुलिस के पेज पर डालना अपना दायित्व समझते है |

क्या इस बिमारी से भी लड़ना आपका दायित्व नहीं है |

चलो आज देखें की कितने लोगो के जवाब हमारी इस आवाज़ के हक में आते है |

हम एक है, तो नेक क्यों नहीं |

दहेज़ के खिलाफ हमारी आवाज़ .....

साडा हक...

ऐथे रख !!

अपना जिगर का टुकड़ा देना दहेज़ देने से लाखो गुणा ऊँचा फैसला है ||

हमारा उद्देश्य किसी की निजी सोच को ठेस पहुचना बिलकुल नहीं है और यदि हमारी
सोच से किसी को कोई आपत्ति है तो ...

हम क्षमाप्रार्थी है..

पर आइना सच्चा चेहरा ही दिखाता है ...

Kindly Provide Food & clean drinking Water to Birds & Other Animals,

This is also a kind of SEWA.

श्री गुरु तेग बहादर जी – साखियाँ - सिंघा द्वारा गुरु का वचन मानना

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श्री गुरु तेग बहादर जी – साखियाँ




सिंघा द्वारा गुरु का वचन मानना

अलीशेर से गुरु जी जोगे गाँव आए| आप ने भोपाला गाँव में डेरा लगाया| वहाँ रात ठहर कार आप खीवा कलां जा ठहरे| इस गाँव का एक किसान रोज आपके दर्शन को आता| वह तीन घड़ी बैठा भी रहता| परन्तु एक दिन वह माथा टेक कर झटपट ही उठकर चला गया|गुरु जी ने उससे इसका कारण पूछा कि आज आप जल्दी क्यों जा रहे हो?

सिंघा ने कहा कि गुरु जी आज एक व्यक्ति के यहाँ सगाई है| वहाँ सबको गुड़ मिलना है| मुझे भी अपने हिस्से का गुड़ लेने जाना है| गुरु जी ने वचन किया कि आप यहाँ धैर्य सहित बैठे रहे| आपको घर बैठे ही दो बाँटने आ जाया करेंगे| गुरु जी का वचन सुनकर सिंघा वहीं बैठा रहा|

उधर जिसके घर सगाई थी, जब उसे इस बात का ज्ञान हुआ कि सिंघा गुरु जी के पास बैठा है तो गाँव के चौधरी ने कहा कि साधू संत के पास जाना ठीक है| आगे से तुम्हें उसे दो बाँटने वाले दिया करो| यदि वह खुद ना लेने आए तो उसके घर दे आया करो| उस दिन से सिंघा को दो बाँटने वाले मिलने लगे|

सिंघा के बिना इस गाँव का और कोई भी आदमी गुरु जी के दर्शन करने नहीं आया| सिंघा बहुत प्रसन्न था कि उसने गुरु जी के वचनों को मानकर कितना अच्छा किया|

श्री गुरु तेग बहादर जी – साखियाँ - एक पीर का भ्रम निवृत करना

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श्री गुरु तेग बहादर जी – साखियाँ





एक पीर का भ्रम निवृत करना

एक दिन एक पीर जी कि रोपड़ में रहता था अपने मुरीदो से कार भेंट लेता हुआ आनंदपुर आया| गुरु जी के दरबार की महिमा संगत का आना-जाना तथा लंगर चलता देख वह बड़ा प्रभावित हुआ| उसने एक सिख से पूछा यह किस गद्दी का गुरु है? सिख ने कहा यह गुरु नानक साहिब जी की गद्दी पर बैठे नौवें गुरु श्री गुरु तेग बहादर जी हैं| पीर ने कहा गुरु नानक जी तो बड़े बली महापुरुष हुए हैं| अगर यह इनकी गद्दी पर विराजमान हैं तो इनमे भी शक्ति होनी चाहिए| सिख ने कहा गुरु जी वैराग्य के पुंज और शक्ति के मालिक हैं|

पीर ने अगला प्रशन किया कि गुरु जी ग्रहस्थी हैं या फकीर? सिख ने उत्तर दिया की गुरु जी ग्रहस्थी हैं| गुरु नानक देव जी भी ग्रहस्थी थे| पीर ने फिर कहा वैराग्य गुरु पीर होकर फिर यह ग्रहस्थ का आडम्बर क्यों?

इसके पश्चात पीर ने गुरु जी के दर्शन करके जब यही सवाल पूछा तो गुरु जी ने कहा साईं लोगों! ग्रहस्थ सब धर्मों से ऊँचा है| यह सारे पीरो-फकीरों, ऋषि-मुनियों को पैदा करता है फिर सबकी गुजरान का आधार रहता है| जो पुरुष ग्रहस्थ धर्म में पूरे उतरते हैं उन्हें अन्तिम समय मुक्ति प्राप्त होती है|

ग्रहस्थ का धर्म है अतिथि की सवा करनी तथा अपनी नेक कमाई से पुण्य दान करना| ऐसा ग्रहस्थी परम सुख प्राप्त करता है|

गुरु जी से यह बात सुनकर पीर ने गुरु जी को माथा टेका और कहा कि अब मुझे इस बात का ज्ञान हो गया है की ग्रहस्थ धर्म पुरुष का मुख्य उदेश्य है इसको बुरा समझना एक बड़ी भूल है|

श्री गुरु तेग बहादर जी की शहीदी

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श्री गुरु तेग बहादर जी




श्री गुरु तेग बहादर जी की शहीदी


औरंगजेब एक कट्टर मुसलमान था| जो कि अपनी राजनीतिक व धार्मिक उन्नति चाहता था| इसके किए उसने हिंदुओं पर अधिक से अधिक अत्याचार किए| कई प्रकार के लालच व भय देकर हिंदुओं को जबरदस्ती मुसलमान बनाया| उसने अपने जरनैलो को भी आज्ञा दे दी हिंदुओं को किसी तरह भी मुसलमान बनाओ| जो इस बात के लिए इंकार करे उनका क़त्ल कर दिया जाए| 

औरंगजेब के हुकम के अनुसार कश्मीर के जरनैल अफगान खां ने कश्मीर के पंडितो और हिंदुओं को कहा कि आप मुसलमान हो जाओ| अगर आप ऐसा नहीं करोगे तो क़त्ल कर दिया जायेगा| कश्मीरी पंडित भयभीत हो गए| उन्होंने अपना अन्न जल त्याग दिया और प्रार्थना करने लगे| कुछ दिन के बाद उन्हें आकाशवाणी के द्वारा अनुभव हुआ कि इस समय धर्म की रक्षा करने वाले श्री गुरु तेग बहादर जी (Shri Guru Tek Bahadar Ji) हैं| आप पंजाब जाकर अपनी व्यथा बताओ| वह आपकी सहायता करने में समर्थ हैं| 

आकाशवाणी के अनुसार पंडित पूछते-पूछते श्री गुरु तेग बहादर जी के पास आनंदपुर आ गए और प्रार्थना की कि महाराज! हमारा धर्म खतरे में है हमे बचाएं| 

उनकी पूरी बात सुनकर गुरु जी सोच ही रहे थे कि श्री गोबिंद सिंह जी (Shri Guru Gobind Singh Ji) वहाँ आ गए| गुरु जी कहने लगे बेटा! इन पंडितो के धर्म की रक्षा के लिए कोई ऐसा महापुरुष चाहिए, जो इस समय अपना बलिदान दे सके| 

पिता गुरु का वह वचन सुनकर श्री गोबिंद जी ने कहा कि पिता जी! इस समय आप से बड़ा और कौन महापुरुष है, जो इनके धर्म कि रक्षा कर सकता है? आप ही इस योग्य हो| 

अपने नौ साल के पुत्र की यह बात सुनकर गुरु जी बहुत प्रसन्न हुए| आपने पंडितो को कहा कि जाओ अफगान खां से कह दो कि अगर हमारे आनंदपुर वासी गुरु जी मुसलमान हो जाएगें तो हम भी मुसलमान बन जाएगें|

यह बात सुनकर औरंगजेब ने गुरु जी को दिल्ली बुला लिया| गुरु जी ने सन्देश वाहक को कहा कि तुम चले जाओ हम अपने आप बादशाह के पास पहुँच जाएगें| गुरु जी ने घर बाहर का प्रबंध मामा कृपाल चंद को सौंप कर तथा हर बात अपने साहिबजादे को समझा दी और आप पांच सिक्खों को साथ लेकर दिल्ली की और चल दिए| 

आगरे पहुँच कर गुरु जी ने एक गडड़ीए के द्वारा कौतक रच के अपने आप को बंदी बना लिया| औरंगजेब ने आपको बंदीखाने में बंद करके काजी को गुरु जी के पास भेजा और प्रार्थना की कि आप मुसलमान हो जाओ| गुरु जी ने वचन किया तुम सारे देश में एक धर्म करना चाहते हो परन्तु यदि परमात्मा चाहे तो दो धर्मो के तीन हो जायेगें| इस बात को सिद्ध करने के लिए गुरु जी ने एक मण मिर्च मंगाई और उन्हें जलाया| आगे से गुरु जी कहने लगे यदि राख में से एक मिर्च साबुत निकली तो परमात्मा को एक धर्म कबूल होगा यदि दो निकली तो दो धर्म और अगर तीन मिर्चे साबुत निकली तो समझ लेना कि परमात्मा को तीसरा धर्म कबूल होगा| 

इस तरह जब मिर्चो का ढेर जलाकर औरंगजेब ने राख को बिखेर कर देखा तो उसमे से तीन मिर्चे साबुत निकली| यह निर्णय देखकर बादशाह हैरान हो गया| 

इसके पश्चात जब गुरु जी किसी तरह भी मुसलमान होना ना माने तो उन्हें करामात दिखाने के लिए कहा गया| गुरु जी ने करामात को कहर का नाम दिया और करामात दिखने से मना कर दिया| औरंगजेब ने कहा ना आप इस्लाम धर्म कबूल करना चाहतें हैं और ना ही कोई करामात दिखाना चाहतें हैं तो फिर कत्ल के लिए तैयार हो जाइए| गुरु जी ने कहा हमें आप की दोनों बाते स्वीकार नहीं परन्तु तुम्हारी तीसरी बात कत्ल होना हमे स्वीकार है| 

इस समय गुरु जी के साथ पांच सेवादार सिख भी कैद थे-

· भाई मति दास

· भाई दिआला जी

· भाई गुरदित्ता जी

· भाई ऊदो जी

· भाई चीमा जी



जब गुरु साहिब जी किसी भी तरह ना माने तो औरंगजेब ने गुरु जी को डराने के लिए भाई मति दास को आरे से सिरवा दिया और भाई दिआले जी को पानी की उबलती हुई देग में डालकर आलू की तरह उबाल दिया| दोनों सिखों ने अपने आप को हँस-हँस कर पेश किया| जपुजी साहिब का पाठ तथा वाहि गुरु का उच्चारण करते हुए सच खंड जा विराजे| बाकी तीन सिख गुरु जी के पास रह गए| 

गुरु जी ने अपना अन्तिम समय नजदीक जानकर बाकी तीन सिखों को वचन किया कि तुम अपने घरों को चले जाओ अब यहाँ रहने का कोई लाभ नहीं है| उन्होंने प्रार्थना की कि महाराज! हमारे हाथ पैरों को बेडियाँ लगी हुई हैं, दरवाजों पर ताले लगे हुए हैं हम यहाँ से किस तरह से निकले| गुरु जी ने वचन किया कि आप इस शब्द का "कटी बेडी पगहु ते गुरकीनी बन्द खलास"का पाठ करो| आपकी बेडियाँ टूट जाएगीं और दरवाजों के ताले खुल जाएगे और तुम्हें कोई नहीं देखेगा|

गुरु जी का वचन मानकर दो सिख आज़ाद हो कर चले गए| बाद में भाई गुरु दित्ता ही गुरु जी से पास रह गए| गुरु जी ने अपनी मस्ती में यह शलोक पड़ा|

शलोक महला ९

संग सखा सब तजि गए कोऊ न निबहिओ साथ||
कहु नानक इिह बिपत मै टेक एक रघुनाथ||५५||




इसके पश्चात गुरु जी ने अपनी माता जी व परिवार को धैर्य देने वह प्रभु की आज्ञा को मानने के लिए शलोक लिखकर भेजे - 

गुन गोबिंद गाइिओ नही जनमु अकारथ कीन||
कहु नानक हरि भजु मना जिहि विधि जल कौ मीन||१||




यहाँ से आरम्भ करके अंत में लिखा -

राम नामु उरि मै गहियो जाकै सम नही कोइि||
जिह सिमरत संकट मिटै दरसु तुहारो होइि||५७||

(श्री गुरु ग्रंथ साहिब पन्ना १४२६-१४२९)




इन शालोको के साथ ही गुरु जी ने पांच पैसे और नारियल एक सिख के हाथ आनंदपुर भेज के गुरु गद्दी अपने सुपुत्र श्री गोबिंद राय को दे दी|

अंत में जब 13 माघ (सुदी 5) संवत 1732 विक्रमी का अभाग्यशाली दिन वीरवर आ गया| आप जी को चाँदनी चौक कोतवाली के पास सूर्य अस्त के समय बादशाह के हुक्म से जल्लाद ने तलवार के एक वार से शहीद कर दिया| इस निर्दय सके का वर्णन गुरु गोबिंद सिंह जी ने इस तरह किया-

तेग बहादर के चलत भयो जगत को शोक||
है है है सब जग भयो जै जै जै सुर लोक||१६||

(दशम ग्रंथ: बिचित्र नाटक, ५ अध्याय)




इस अत्याचार के समय इतिहासकार लिखते हैं कि बहुत भयानक काली आंधी चली| जिसके अंधकार मैं आपजी का पवित्र शीश भाई जैता (जीऊन सिंह) अपने कपड़ो में लपेटकर जल्दी-जल्दी चलकर आनंदपुर ले आया| यहाँ आप जी के शीश को बड़े सत्कार, वैराग्य तथा शोक सहित अग्नि भेंट किया गया| इस स्थान गुरुद्वारा "शीश गंज"सुशोभित है|

इसके पश्चात इस आंधी के गुबार में ही आप जी का पवित्र धड़ एक लुबाणा सिख अपनी बैल गाड़ी के माल में ले गया और अपनी कुटीर में रख दिया| फिर उसने आग लगाकर धड़ को वहीं अग्नि भेंट कर दिया| इस स्थान पर "गुरुद्वारा रकाबगंज"सुशोभित है|

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 11

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ॐ सांई राम


आप सभी को शिर्डी के साईं बाबा ग्रुप की और से साईं-वार की हार्दिक शुभ कामनाएं
हम प्रत्येक साईं-वार के दिन आप के समक्ष बाबा जी की जीवनी पर आधारित श्री साईं सच्चित्र का एक अध्याय प्रस्तुत करने के लिए श्री साईं जी से अनुमति चाहते है
हमें आशा है की हमारा यह कदम घर घर तक श्री साईं सच्चित्र का सन्देश पंहुचा कर हमें सुख और शान्ति का अनुभव करवाएगा
किसी भी प्रकार की त्रुटी के लिए हम सर्वप्रथम श्री साईं चरणों में क्षमा याचना करते है


श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 11

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सगुण ब्रहम श्री साईबाबा, डाँक्टर पंडित का पूजन, हाजी सिद्दीक फालके, तत्वों पर नियंत्रण ।
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इस अध्याय में अब हम श्री साईबाबा के सगुण ब्रहम स्वरुप, उनका पूजन तथा तत्वनियंत्रण का वर्णन करेंगे । 



सगुण ब्रहम श्री साईबाबा
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ब्रहमा के दो स्वरुप है – निर्गुण और सगुण । निर्गुण नराकार है और सगुण साकार है । यघरु वे एक ही ब्रहमा के दो रुप है, फर भी किसी को निर्गुण और किसी को सगुण उपासना में दिलचस्पी होती है, जैसा कि गीता के अध्याय 12 में वर्णन किया गया है । सगुण उपासना सरल और श्रेष्ठ है । मनुष्य स्वंय आकार (शरीर, इन्द्रय आदि) में है, इसीलिये उसे ईश्वर की साकार उपासना स्वभावताः ही सरल हैं । जब तक कुछ काल सगुण ब्रहमा की उपासना न की जाये, तब तक प्रेम और भक्ति में वृद्घि ही नहीं होती । सगुणोपासना में जैसे-जैसे हमारी प्रगति होती जाती है, हम निर्गुण ब्रहमा की ओर अग्रसर होते जाते हैं । इसलिये सगुण उपासना से ही श्री गणेश करना अति उत्तम है । मूर्ति, वेदी, अग्नि, प्रकाश, सूर्य, जल और ब्राहमण आदि सप्त उपासना की वस्तुएँ होते हुए भी, सदगुरु ही इन सभी में श्रेष्ठ हैं ।

श्री साई का स्वरुप आँखों के सम्मुख लाओ, जो वैराग्य की प्रत्यक्ष मूर्ति और अनन्य शरणागत भक्तों के आश्रयदाता है । उनके शब्दों में विश्वास लाना ही आसन और उनके पूजन का संकल्प करना ही समस्त इच्छाओं का त्याग हैं ।

कोई-कोई श्रीसाईबाबा की गणना भगवदभक्त अथवा एक महाभागवत (महान् भक्त) में करते थे या करते है । परन्तु हम लोगों के लिये तो वे ईश्वरावतार है । वे अत्यन्त क्षमाशील, शान्त, सरल और सन्तुष्ट थे, जिनकी कोई उपमा ही नहीं दी जा सकती । यघरि वे शरीरधारी थे, पर यथार्थ में निर्गुण, निराकार,अनन्त और नित्यमुक्त थे । गंगा नदी समुद्र की ओर जाती हुई मार्ग में ग्रीष्म से व्यथित अनेकों प्रगणियों को शीतलता पहुँचा कर आनन्दित करती, फसलों और वृक्षों को जीवन-दान देती और जिस प्रकार प्राणियों की क्षुधा शान्त करती है, उसी प्रकार श्री साई सन्त-जीवन व्यतीत करते हुए भी दूसरों को सान्त्वना और सुख पहुँचाते है । भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा है संत ही मेरी आत्मा है । वे मेरी जीवित प्रतिमा और मेरे ही विशुद्घ रुप है । मैं सवयं वही हूँ । यह अवर्णनीय शक्तियाँ या ईश्वर की शक्ति, जो कि सत्, चित्त् और आनन्द हैं । शिरडी में साई रुप में अवर्तीण हुई थी । श्रुति (तैतिरीय उपनिषद्) में ब्रहमा को आनन्द कहा गया है । अभी तक यह विषय केवल पुस्तकों में पढ़ते और सुनते थे, परन्तु भक्तगण ने शिरडी में इस प्रकार का प्रत्यक्ष आनन्द पा लिया है । बाबा सब के आश्रयदाता थे, उन्हें किसी की सहायता की आवश्यकता न थी । उनके बैठने के लिये भक्तगण एक मुलायम आसन और एक बड़ा तकिया लगा देते थे । बाबा भक्तों के भावों का आदर करते और उनकी इच्छानुसार पूजनादि करने देने में किसी प्रकार की आपत्ति न करते थे । कोई उनके सामने चँवर डुलाते, कोई वाघ बजाते और कोई पादप्रक्षालन करते थे । कोई इत्र और चन्दन लगाते, कोई सुपारी, पान और अन्य वस्तुएँ भेंट करते और कोई नैवेघ ही अर्पित करते थे । यघपि ऐसा जान पड़ता था कि उनका निवासस्थान शिरडी में है, परन्तु वे तो सर्वव्यापक थे । इसका भक्तों ने नित्य प्रति अनुभव किया । ऐसे सर्वव्यापक गुरुदेव के चरणों में मेरा बार-बार नमस्कार हैं ।


डाँक्टर पंडित की भक्ति
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एक बार श्री तात्या नूलकर के मित्र डाँक्टर पंडित बाबा के दर्शनार्थ शिरडी पधारे बाबा को प्रणाम कर वे मसजिद में कुछ देर तक बैठे । बाबा ने उन्हें श्री दादा भट केलकर के पास भेजा, जहाँ पर उनका अच्छा स्वागत हुआ । फिर दादा भट और डाँक्टर पंडित एक साथ पूजन के लिये मसजिद पहुँचे । दादा भट ने बाबा का पूजन किया । बाबा का पूजन तो प्रायः सभी किया करते थे, परन्तु अभी तक उनके शुभ मस्तक पर चन्दन लगाने का किसी ने भी साहस नहीं किया था । केवल एक म्हालसापति ही उनके गले में चन्दन लगाया करते थे । डाँक्टर पंडित ने पूजन की थाली में से चन्दन लेकर बाबा के मस्तक पर त्रिपुण्डाकार लगाया । लोगों ने महान् आश्चर्य से देघा कि बाबा ने एक शब्द भी नहीं कहा । सन्ध्या समय दादा भट ने बाबा से पूछा, क्या कारण है कि आर दूसरों को तो मस्तक पर चन्दन नहीं लगाने देते, परन्तु डाँक्टर पंडित को आपने कुछ भी नहीं कहा बाबा कहने लगे, डाँक्टर पंडित ने मुझे अपने गुरु श्री रघुनाथ महाराज धोपेश्वरकर, जो कि काका पुराणिक के नाम से प्रसिदृ है, के ही समान समझा और अपने गुरु को वे जिस प्रकार चन्दन लगाते थे, उसी भावना से उन्होंने मुझे चन्दन लगाया । तब मैं कैसे रोक सकता था । पुछने पर डाँक्टर पंडित ने दादा भट से कहा कि मैंने बाबा को अपने गुरु काका पुराणिक के समान ही डालकर उन्हें त्रिपुण्डाकार चन्दन लगाया है, जिस प्रकार मैं अपने गुरु को सदैव लगाया करता था ।
यघपु बाबा भक्तों को उनकी इच्छानुसार ही पूजन करने देते थे, परन्तु कभी-कभी तो उनका व्यवहार विचित्र ही हो जाया करता था । जब कभी वे पूजन की थाली फेंक कर रुद्रावतार धारण कर लेते, तब उनके समीप जाने का साहस ही किसी को न हो सकता था । कभी वे भक्तों को झिड़कते और कभी मोम से भी नरम होकर शान्ति तथा क्षमा की मूर्ति-से प्रतीत होते थे । कभी-कभी वे क्रोधावस्था में कम्पायमान हो जाते और उनके लाल नेत्र चारों ओर घूमने लगते थे, तथापि उनके अन्तःकरण में प्रेम और मातृ-स्नेह का स्त्रोत बहा ही करता था । भक्तों को बुलाकर वे कहा करते थे कि उनहें तो कुछ ज्ञात ही नहीं हे कि वे कब उन पर क्रोधित हुए । यदि यह सम्भव हो कि माताएँ अपने बालकों को ठुकरा दें और समुद्र नदियों को लौटा दे तो ही वे भक्तों के कल्याण की भी उपेक्षा कर सकते हैं । वे तो भक्तों के समीप ही रहते हैं और जब भक्त उन्हें पुकारते है तो वे तुरन्त ही उपस्थित हो जाते है । वे तो सदा भक्तों के प्रेम के भूखे है ।



हाजी सिद्दीक फालके
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यह कोई नहीं कह सकता था कि कब श्री साईबाबा अपने भक्त को अपना कृपापात्र बना लेंगे । यह उनकी सदिच्छा पर निर्भर था । हाजी सिद्दीक फालके की कथा इसी का उदाहरण है ।

कल्याणनिवासी एक यवन, जिनका नाम सिद्दीक फालके था, मक्का शरीफ की हज करने के बाद शिरडी आये । वे चावड़ी में उत्तर की ओर रहने लगे । वे मसजिद के सामने खुले आँगन में बैठा करते थे । बाबा ने उन्हें 9 माह तक मसजिद में प्रविष्ट होने की आज्ञा न दी और न ही मसजिद की सीढ़ी चढ़ने दी । फालके बहुत निराश हुँ और कुछ निर्णय न कर सके कि कौनसा उपाय काम में लाये । लोगों ने उन्हें सलाह दी कि आशा न त्यागो । शामा श्रीसाई बाबा के अंतरंग भक्त है । तुम उनके ही द्घारा बाबा के पास पहुँचने का प्रयत्न करो । जिस प्रकार भगवान शंकर के पास पहुँचने के लिये नन्दी के पास जाना आवश्यक होता है, उसी प्रकार बाबा के पास भी शामा के द्घारा ही पहुँचना चाहिये । फालके को यह विचार उचित प्रतीत हुआ और उन्होने शामा से सहायता की प्रार्थना की । शामा ने भी आश्वासन दे दिया और अवसर पाकर वे बाबा से इस प्रकार बोले कि, बाबा, आप उस बूढ़े हाजी को मसजिद में किस कारण नहीं आने देते । अने भक्त स्वेच्छापूर्वक आपके दर्शन को आया-जाया करते है । कम से कम एक बार तो उसे आशीष दे दो । बाबा बोले, शामा, तुम अभी नादान हो । यदि फकीर अल्लाह) नहीं आने देता है तो मै क्या करुँ । उनकी कृपा के बिना कोई भी मसजिद कीसीढ़ियाँ नहीं चढ़ सकता । अच्छा, तुम उससे पूछ आओ कि क्या वह बारवी कुएँ निचली पगडंडी पर आने को सहमत है । शामा स्वीकारात्मक उत्तर लेकर पहुँचे । फर बाबा ने पुनः शामा से कहा कि उससे फिर पुछो कि क्या वह मुझे चार किश्तों में चालीस हजार रुपये देने को तैयार है । फिर शामा उत्तर लेकर लौटे कि आप कि आप कहें तो मैं चालीस लाख रुपये देने को तैयार हूँ । मैं मसजिद में एक बकरा हलाल करने वाला हूँ, उससे पूछी कि उसे क्या रुचिकर होगा – बकरे का मांस, नाध या अंडकोष । शामा यह उत्तर लेकर लौटे कि यदि बाबा के यदि बाबा के भोजन-पात्र में से एक ग्रास भी मिल जाय तो हाजी अपने को सौभाग्यशाली समझेगा । यह उत्तर पाकर बाबा उत्तेजित हो गये और उन्होंने अपने हाथ से मिट्टी का बर्तन (पानी की गागर) उठाकर फेंक दी और अपनी कफनी उठाये हुए सीधे हाजी के पास पहुँचे । वे उनसे कहने लगे कि व्यर्थ ही नमाज क्यों पढ़ते हो । अपनी श्रेष्ठता का प्रदर्शन क्यों करते हो । यह वृदृ हाजियों के समान वे्शभूषा तुमने क्यों धारण की है । क्या तुम कुरान शरीफ का इसी प्रकार पठन करते हो । तुम्हें अपने मक्का हज का अभिमान हो गया है, परन्तु तुम मुझसे अनभिज्ञ हो । इस प्रकार डाँट सुनकर हाजी घबडा गया । बाबा मसजिद को लौट आयो और कुछ आमों की टोकरियाँ खरीद कर हाजी के पास भेज दी । वे स्वयं भी हाजी के पास गये और अपने पास से 55 रुपये निकाल कर हाजी को दिये । इसके बाद से ही बाबा हाजी से प्रेेम करने लगे तथा अपने साथ भोजन करने को बुलाने लगे । अब हाजी भी अपनी इच्छानुसार मसजिद में आने-जाने लगे । कभी-कभी बाबा उन्हें कुछ रुपये भी भेंट में दे दिया करते थे । इस प्रकार हाजी बाबा के दरबार में सम्मिलित हो गये ।

बाबा का तत्वों पर नियंत्रण
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बाबा के तत्व-नियंत्रण की दो घटनाओं के उल्लेख के साथ ही यह अध्याय समाप्त हो जायेगा ।
1. एक बार सन्ध्या समय शिरडी में भयानक झंझावात आया । आकाश में घने और काले बादल छाये हुये थे । पवन झकोरों से बह रहा था । बादल गरजते और बिजली चमक रही थी । मूसलाधार वर्षा प्रारंभ हो गई । जहाँ देखो, वहाँ जल ही जल दृष्टिगोचर होने लगा । सब पशु, पक्षी और शिरडीवासी अधिक भयभीत होकर मसजिद में एकत्रित हूँ । शिरडी में देवियाँ तो अनेकों है, परन्तु उस दिन सहायतार्थ कोई न आई । इसलिये सभी ने अपने भगवान साई से, जो भक्ति के ही भूखे थे, संकट-निवारण करने की प्रार्थना की । बाबा को भी दया आ गई और वे बाहर निकल आये । मसजिद के समीप खड़े हो जाओ । कुछ समय के बाद ही वर्षा का जोर कम हो गया । और पवन मन्द पड़ गया तथा आँधी भी शान्त हो गई । आकाश में चन्द्र देव उदित हो गये । तब सब नोग अति प्रसन्न होकर अपने-अपने घर लौट आये ।

2. एक अन्य अवसर पर मध्याहृ के समय धूनी की अग्नि इतनी प्रचण्ड होकर जलने लगी कि उसकी लपटें ऊपर छत तक पहुँचने लगी । मसजिद में बैठे हुए लोगों की समझ में न आता था कि जल डाल कर अग्नि शांत कर दें अथवा कोई अन्य उपाय काम में लावें । बाबा से पूछने का साहस भी कोई नहीं कर पा रहा था । परन्तु बाबा शीघ्र परिस्थिति को जान गये । उन्होंने अपना सटका उठाकर सामने के थम्भे पर बलपूर्वक प्रहार किया और बोले नीचो उतरो और शान्त हो जाओ । सटके की प्रत्येक ठोकर पर लपटें कम होने लगी और कुछ मिनटों  में ही धूनी शान्त और यथापूर्व हो गई । श्रीसाई ईश्वर के अवतार हैं । जो उनके सामने नत हो उनके शरणागत होगा, उस पर वे अवश्य कृपा करेंगे । जो भक्त इस अध्याय की कथायें प्रतिदिन श्रद्घा और भक्तिपूर्वक पठन करेगा, उसका दुःखों से शीघ्र ही छुटकारा हो जायेगा । केवल इतना ही नही, वरन् उसे सदैव श्रीसाई चरणों का स्मरण बना रहेगा और उसे अल्प काल में ही ईश्वर-दर्शन की प्राप्ति होकर, उसकी समस्त इच्छायें पूर्ण हो जायेंगी और इस प्रकार वह निष्काम बन जायेगा ।

।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

श्री गुरु गोबिंद सिंह जी : जीवन-परिचय

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श्री गुरु गोबिंद सिंह जी :
जीवन-परिचय























Parkash Ustav (Birth date): December 22, 1666 at Patna Sahib, Bihar. 
प्रकाश उत्सव (जन्म की तारीख): पटना साहिब, बिहार में 22 दिसंबर 1666.

Father: Guru Teg Bahadar ji 
पिता: श्री गुरु तेग बहादर जी

Mother: Mata Gujri ji 
माँ: माता गुजरी जी

Mahal (spouse): Mata Sundri ji, Mata Jeto J, Mata Sahib Kaur Ji 
महल (पति या पत्नी): माता सुन्दरी जी, माता जेतो जम्मू, माता साहिब कौर जी

Sahibzaday (offspring): Baba Ajit Singh, Baba Jujhar Singh, Baba Zorawar Singh and Baba Fateh Singh 
साहिबज़ादे (वंश): बाबा अजीत सिंह, बाबा जूझर सिंह, बाबा जोरावर सिंह और बाबा फतेह सिंह

Joti Jyot (ascension to heaven): October 7, 1708 at Nanded. 
ज्योति ज्योत (स्वर्ग करने के उदगम): नांदेड़ में 7 अक्टूबर 1708.



वह प्रगटिओ मरद अगंमड़ा वरियाम अकेला || 
वाहु वाहु गोबिंद सिंह आपे गुर चेला || १७ || 

(भाई गुरदास दूजा)

श्री गुरु गोबिंद सिंह जी का जन्म पोरव सुदी सप्तमी संवत 1723 विक्रमी को श्री गुरु तेग बहादर जी के घर माता गुजरी जी की पवित्र कोख से पटना शहर में हुआ| 
मुर पित पूरब कीयसि पयाना || भांति भांति के तीरथि नाना || 

जब ही जात त्रिबेणी भए || पुन दान निन करत बितए || 
तही प्रकास हमारा भयो || पटना सहर विखे भव लयो || 

(दशम-ग्रंथ: बिचित्र नाटक ७ वां अध्याय)


माता नानकी जी ने अपने पौत्र के जन्म की खबर देने के लिए एक विशेष आदमी को चिट्ठी देकर अपने सुपुत्र श्री गुरु तेग बहादर जी के पास धुबरी शहर भेजा| गुरु जी ने चिट्ठी पड़कर जब राजा राम सिंह को खुशी भरी खबर सुनाई तब राजा ने अपने फौजी बाजे बजवाए| तोपों की सलामी दी तथा गरीबों को दान दिया| चिट्ठी लेकर आने वाले सिख को गुरु जी ने बहुत धन दिया उसका लोक परलोक संवार दिया|

इसके पश्चात गुरु जी ने माता जी को चिट्ठी लिखी कि माता जी! इस समय हम कामरूप के पास धुबरी शहर ठहरे हुए हैं| राजा राम सिंह का काम संवार कर जल्दी वापस आप के पास पटने आ जाएगे| गुरु नानक साहिब आपके अंग-संग हैं| आपने चिंता नहीं करनी| साहिबजादे का नाम "गोबिंद राय"रखना| यह आशीष और धैर्य पूर्ण चिट्ठी पड़कर माताजी और परिवार के अन्य सदस्य बहुत खुश हुए|

जो कोई भी भिखारी और प्रेमी माता जी को बधाई देने घर आता माता जी उसको धन, वस्त्र और मिठाई आदि से प्रसन्न करके घर से भेजते| माता जी ने साहिबजादे के सोने व खेलने के लिए एक सुन्दर पंघूड़ा बनवाया जिसमे साहिबजादे को लेटाकर माता जी लोरियाँ देती व पंघूड़ा हिलाकर मन ही मन खुश होती| आपके हाथों के कड़े, पाँव के कड़े और कमर की तड़ागी के घुंघरू खनखनाते रहते| माता नानकी जी बालक गोबिंद राय को स्नान कराकर सुंदर गहने व कपड़े पहनाते|

पटने से आनंदपुर साहिब बुलाकर श्री गुरु तेग बहादर जी ने अपने सुपुत्र श्री गोबिंद राय जी को घुड़ सवारी, तीर कमान, बन्दूक चलानी आदि कई प्रकार की शिक्षा सिखलाई का प्रबंध किया| बच्चो के साथ बाहर खेलते समय मामा कृपाल जी को आपकी निगरानी के लिए नियत कर दिया| इस प्रकार श्री गुरु तेग बहादर जी के किए हुए प्रबंध के अनुसार आप शिक्षा लेते रहे|



दशमेश जी इस प्रथाए अपनी आत्म कथा बचित्र नाटक में लिखते हैं -


मद्र देस हम को ले आए || भांति भांति दाईयन दुलराऐ || 
कीनी अनिक भांति तन रछा || दीनी भांति भांति की सिछा || 

(दशम ग्रंथ बिचित्र नाटक, ७ वा अध्याय)

प्राग राज के निवास समय श्री गोबिंद राय जी के जन्म से पहले एक दिन माता नानकी जी ने स्वाभाविक श्री गुरु तेग बहादर जी को कहा कि बेटा! आप जी के पिता ने एक बार मुझे वचन दिया था कि तेरे घर तलवार का धनी बड़ा प्रतापी शूरवीर पोत्र इश्वर का अवतार होगा| मैं उनके वचनों को याद करके प्रतीक्षा कर रही हूँ कि आपके पुत्र का मुँह मैं कब देखूँगी| बेटा जी! मेरी यह मुराद पूरी करो, जिससे मुझे सुख कि प्राप्ति हो|

अपनी माता जी के यह मीठे वचन सुनकर गुरु जी ने वचन किया कि माता जी! आप जी का मनोरथ पूरा करना अकाल पुरख के हाथ मैं है| हमें भरोसा है कि आप के घर तेज प्रतापी ब्रह्मज्ञानी पोत्र देंगे|

गुरु जी के ऐसे आशावादी वचन सुनकर माता जी बहुत प्रसन्न हुए| माता जी के मनोरथ को पूरा करने के लिए गुरु जी नित्य प्रति प्रातकाल त्रिवेणी स्नान करके अंतर्ध्यान हो कर वृति जोड़ कर बैठ जाते व पुत्र प्राप्ति के लिए अकाल पुरुष कि आराधना करते|

गुरु जी कि नित्य आराधना और याचना अकाल पुरख के दरबार में स्वीकार हो गई| उसुने हेमकुंट के महा तपस्वी दुष्ट दमन को आप जी के घर माता गुजरी जी के गर्भ में जन्म लेने कि आज्ञा की| जिसे स्वीकार करके श्री दमन (दसमेश) जी ने अपनी माता गुजरी जी के गर्भ में आकर प्रवेश किया|


श्री दसमेश जी अपनी जीवन कथा बचितर नाटक में लिखते है -

|| चौपई || 

मुर पित पूरब कीयसि पयाना || भांति भांति के तीरथि नाना || 
जब ही जात त्रिबेणी भए || पुन्न दान दिन करत बितए || १ || 
तही प्रकास हमारा भयो || पटना सहर बिखे भव लयो || २ || 

(दशम ग्रन्थ: बिचित्र नाटक, ७वा अध्याय)

पहला विवाह
संवत 1734 की वैसाखी के समय जब देश विदेश से सतगुरु के दर्शन करने के लिए संगत आई और लाहौर की संगत में एक सुभीखी क्षत्री जिसका नाम हरजस था उन्होंने अपनी लड़की जीतो का रिश्ता श्री (गुरु) गोबिंद राय जी के साथ कर दिया| विवाह की मर्यादा को 23 आषाढ़ संवत 1734 को पूर्ण किया| आज कल यह स्थान "गुरु का लाहौर"नाम से प्रसिद्ध है|

साहिबजादे

चेत्र सुदी सप्तमी मंगलवार संवत 1747 को साहिबजादे श्री जुझार सिंह जी का जन्म हुआ|

माघ महीने के पिछले पक्ष में रविवार संवत् 1753 को साहिबजादे श्री जोरावर सिंह जी का जन्म हुआ|

बुधवार फाल्गुन महीने संवत् 1755 को साहिबजादे श्री फतह सिंह जी का जन्म हुआ|

दूसरा विवाह
संवत 1741 की वैसाखी के समय जब देश विदेश से सतगुरु के दर्शन करने के लिए संगत आई और लाहौर की संगत में एक कुमरा क्षत्री जिसका नाम दुनीचंद था उन्होंने अपनी लड़की सुन्दरी का विवाह सात बैसाख श्री (गुरु) गोबिंद राय जी के साथ कर दिया|

साहिबजादे

23 माघ संवत 1743 को साहिबजादे श्री अजीत सिंह जी का जन्म पाऊँटा साहिब में हुआ|

श्री गुरु गोबिंद सिंह जी : गुरुगद्दी मिलना

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श्री गुरु गोबिंद सिंह जी : गुरुगद्दी मिलना









श्री गुरु तेग बहादर जी के समय जब औरंगजेब के हुकम के अनुसार कश्मीर के जरनैल अफगान खां ने कश्मीर के पंडितो और हिंदुओं को कहा कि आप मुसलमान हो जाओ| अगर आप ऐसा नहीं करोगे तो क़त्ल कर दिया जायेगा| कश्मीरी पंडित भयभीत हो गए| उन्होंने अपना अन्न जल त्याग दिया और प्रार्थना करने लगे| कुछ दिन के बाद उन्हें आकाशवाणी के द्वारा अनुभव हुआ कि इस समय धर्म की रक्षा करने वाले श्री गुरु तेग बहादर जी हैं| आप पंजाब जाकर अपनी व्यथा बताओ| वह आपकी सहायता करने में समर्थ हैं| 

आकाशवाणी के अनुसार पंडित पूछते-पूछते श्री गुरु तेग बहादर जी के पास आनंदपुर आ गए और प्रार्थना की कि महाराज! हमारा धर्म खतरे में है हमे बचाएं| 

उनकी पूरी बात सुनकर गुरु जी सोच ही रहे थे कि श्री गोबिंद सिंह जी वहाँ आ गए| गुरु जी कहने लगे बेटा! इन पंडितो के धर्म की रक्षा के लिए कोई ऐसा महापुरुष चाहिए, जो इस समय अपना बलिदान दे सके| 

पिता गुरु का वह वचन सुनकर श्री गोबिंद जी ने कहा कि पिता जी! इस समय आप से बड़ा और कौन महापुरुष है, जो इनके धर्म कि रक्षा कर सकता है? आप ही इस योग्य हो| 

अपने नौ साल के पुत्र की यह बात सुनकर गुरु जी बहुत प्रसन्न हुए| आपने पंडितो को कहा कि जाओ अफगान खां से कह दो कि अगर हमारे आनंदपुर वासी गुरु जी मुसलमान हो जाएगें तो हम भी मुसलमान बन जाएगें|

यह बात सुनकर औरंगजेब ने गुरु जी को दिल्ली बुला लिया| गुरु जी ने सन्देश वाहक को कहा कि तुम चले जाओ हम अपने आप बादशाह के पास पहुँच जाएगें| गुरु जी ने घर बाहर का प्रबंध मामा कृपाल चंद को सौंप कर तथा हर बात अपने साहिबजादे को समझा दी और आप पांच सिखों को साथ लेकर दिल्ली की और चल दिए|

जब गुरु साहिब जी किसी भी तरह ना माने तो औरंगजेब ने गुरु जी को डराने के लिए भाई मति दास को आरे से चीर दिया और भाई दिआले जी को पानी की उबलती हुई देग में डालकर आलू की तरह उबाल दिया| दोनों सिखों ने अपने आप को हँस-हँस कर पेश किया| जपुजी साहिब का पाठ तथा वाहि गुरु का उच्चारण करते हुए सच खंड जा विराजे| बाकी तीन सिख गुरु जी के पास रह गए| 

गुरु जी ने अपना अन्तिम समय नजदीक जानकर बाकी तीन सिखों को वचन किया कि तुम अपने घरों को चले जाओ अब यहाँ रहने का कोई लाभ नहीं है| उन्होंने प्रार्थना की कि महाराज! हमारे हाथ पैरों को बेडियाँ लगी हुई हैं, दरवाजों पर ताले लगे हुए हैं हम यहाँ से किस तरह से निकले| गुरु जी ने वचन किया कि आप इस शब्द का "कटी बेडी पगहु ते गुरकीनी बन्द खलास"का पाठ करो| आपकी बेडियाँ टूट जाएगीं और दरवाजों के ताले खुल जाएगे और तुम्हें कोई नहीं देखेगा|
इसके पश्चात गुरु जी ने अपनी माता जी व परिवार को धैर्य देने वह प्रभु की आज्ञा को मानने के लिए शलोक लिखकर भेजे - 


गुन गोबिंद गाइिओ नही जनमु अकारथ कीन|| 
कहु नानक हरि भजु मना जिहि विधि जल कौ मीन||१||

यहाँ से आरम्भ करके अंत में लिखा -

राम नामु उरि मै गहियो जाकै सम नही कोइि|| 
जिह सिमरत संकट मिटै दरसु तुहारो होइि||५७|| 

(श्री गुरु ग्रंथ साहिब पन्ना १४२६-१४२९)

इन शालोको के साथ ही गुरु जी ने पांच पैसे और नारियल एक सिख के हाथ आनंदपुर भेज के गुरु गद्दी अपने सुपुत्र श्री गोबिंद राय को दे दी|

परन्तु गुरुगद्दी पर बैठने की पूरी मर्यादा श्री गुरु तेग बहादर जी के अन्तिम संस्कार करने के बाद 12 मघहर संवत 1232 को की गई| इस समय बाबा बुड्डा जी से पांचवी पीढ़ी उनके बड़े पोत्र बाबा राम कुइर (बाबा गुरबक्श सिंह) जी ने आप जी को गुरुगद्दी का तिलक लगाकर गुरु की मर्यादा अर्पण की| इसके पश्चात संगत ने अपनी अपनी भेंट अर्पण करके आपको नमस्कार किया|

आपजी ने गुरुगद्दी पर बैठकर अपने बाबा श्री गुरु हरि गोबिंद जी की तरह मीरी-पीरी दोनों कामों को अपना लिया| अच्छे योद्धा, शस्त्र व घोड़े अपने पास इक्टठे करने शुरू कर दिए| बीबी वीरो के पांच पुत्र, बाबा सूरज मल जी के दो पौत्र तथा श्री गुरु हरिगोबिंद जी के प्र्रोहित का पुत्र दयानन्द आदि योद्धे सतिगुरु के पास आनंदपुर रहने लगे| सतिगुरु जी इन से मिलकर नित्य प्रति शस्त्र विद्या का और घोड़े की सवारी का अभ्यास करते रहते| इनके साथ ही आपजी गुरु घर की मर्यादा के अनुसार सिख सेवकों को सतिनाम के उपदेश द्वरा आनन्दित करते| 
बिचित्र नाटक में आप जी लिखते हैं - 

राज साज हम पर जब आयो || जथा शकत तब धरम चलायो || 
भांति भांति बन खेल शिकारा || मरे रीछरोझ झंखार || १ || 

(दशम-ग्रंथ: बिचित्र नाटक: ७ वां अध्याय)

श्री गुरु गोबिंद सिंह जी - खालसा पंथ की साजना

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श्री गुरु गोबिंद सिंह जी - खालसा पंथ की साजना



श्री गुरु गोबिंद सिंह जी - खालसा पंथ की साजना

पाँच प्यारों का चुनाव करना 

वैसाखी संवत १७४६ वाले दिन एक बहुत बड़े पंडाल में गुरु जी का दीवान सजा| सभी संगत एकत्रित हो गई| संगत आप जी के वचन सुन ही रही थी कि गुरु जी अपने दाँये हाथ में एक चमकती हुई तलवार ले कर खड़े हो गए|

श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने ऊँची आवाज में कहा कि कोई सिख हमे अपना शीश भेंट दे|आप जी के यह वचन सुनकर भाई दया राम जी उठ कर खड़े हो गए और प्रार्थना कि गुरूजी मेरा शीश हाजिर है|गुरु जी बाजू पकड़कर तम्बू में ले गए| कुछ समय के बाद रक्त से भीगी तलवार लेकर तम्बू से बाहर आ गए|

गुरु जी ने फिर एक और सिख के शीश कि मांग की| फिर भाई धर्म जी हाथ जोड़कर खड़े हो गए| उसे भी गुरु जी हाथ पकडकर अंदर ले गए|खून से भीगी तलवार लेकर गुरु जी ने फिर से शीश की माँग की|

अब मुहकम चंद जी व चौथी बार भाई साहिब चंद जी आये| गुरु जी ने फिर वैसे ही किया|हाथ पकड़कर अंदर ले गए व फिर खून से भीगी तलवार लेकर शीश की माँग| अब पांचवी बार हिम्मत मल जी हाथ जोड़कर खड़े हो गए| गुरु जी उन्हें भी अंदर ले गए|

गुरु जी ने तलवार को म्यान में डाल दिया और सिंघासन पर बैठ गए| तम्बू में ही पाँच शीश भेंट करने वाले प्यारों को नयी पोशाकें पहना कर अपने पास बैठा कर संगत को कहा की यह पाँचो मेरा ही स्वरूप है और मैं इनका स्वरूप हूँ| यह पाँच मेरे प्यारे है|


अमृत तैयार करके छकाना 
तीसरे पहर गुरु जी ने लोहे का बाटा मँगवा कर उसमें सतलुज नदी का पानी डाल कर अपने आगे रख दिया| पाँच प्यारों को सजा कर अपने सामने खड़ा कर लिया| फिर अपने बांये हाथ से बाटे को पकड़कर दाँये हाथ से खंडे को जल में घुमाते रहे|मुख से जपुजी साहिब आदि बाणियो का पाठ करते रहे|पाठ की समाप्ति के बाद अरदास करके पाँच प्यारों को बारी-२ पहले अमृत के पाँच-पाँच घूँट पिलाये| फिर पाँच-२ बार हरेक की आँखों पर इसके छींटे मारे| पाँच-२ घूँट हरेक के केशों में डाले|हर बार बोल "वाहिगुरू जी का खालसा वाहिगुरू जी की फतह "पहले आप कहते और पीछे-२ अम्रृत पीने वाले को कहलाते|

इस तरह गुरु जी ने अमृत पिला कर हरेक प्यारों को सिंह पद प्रदान किया जैसे-
१. भाई दया सिंह जी
२. भाई धर्म सिंह जी
३. भाई मुहकम सिंह जी
४. भाई साहिब सिंह जी
५. भाई हिम्मत सिंह जी

इस तरह पाँच प्यारों को हर प्रकार की शिक्षा से तयार करके गुरु गोबिंद जी ने उनसे आप अमृत छका और अपने नाम के साथ भी श्री गोबिंद राय से श्री गुरु गोबिंद सिंह जी कहलाये|


जिस स्थान पर आप जी ने यह सारा कौतक रचा, उसका नाम केशगढ़ रखा| जो इस समय तख़्त केसगढ़ के नाम से आनंदपुर साहिब में सुशोभित है|

इस सारे उत्साह भरपूर चरित्र को देखकर और भी हजारों सिक्खों ने खंडे का अमृत छककर सिंह सज गए| सब सिखों ने अमृत छक कर पाँच ककार की रहत धारण करके अपने नाम के साथ "सिंह"रख लिया|

श्री गुरु गोबिंद सिंह जी – साखियाँ - पूर्ण सिक्ख के लक्षण व सिक्खी धारण योग्य बातें

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श्री गुरु गोबिंद सिंह जी – साखियाँ



पूर्ण सिक्ख के लक्षण व सिक्खी धारण योग्य बातें

श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने वचन किया कि हे सिक्खो! जिस का जीवन धर्म के लिए है और अपना आचरण गुर-मर्यादा के अनुसार रखता है, वही पूरण सिक्ख है|

गुरु जी आगे कहने लगे कि सिक्ख अपनी कमाई में से गुरु के निमित दशवंध दे|सिक्खी की रहत में रहे, स्नान और ध्यान स्मरण में लग कर समय व्यतीत करे| परायी स्त्री व पराये धन का त्याग करे| गुरुबाणी का पाठ करे, गुरु पर विश्वास रखे|

सिक्ख के धारण योग्य बातें:
१. सिक्ख भ्रम न करे|
२. सम्बन्धी के मरने पर रोना पीटना न करे|
३. नीच चंडाल को और वैश्या स्त्री को कर्ज न दे| खोटे पुरुष के साथ कभी प्रीति ना करे|
४. वाहिगुरू की ओर से विमुख होकर आंहे न भरे|
५. गुरूद्वारे जाते समय नाख्नों तक सारे पैर धोकर अंदर जाए|
६. रोटी खाने के बाद पेट ना बजाये|
७. चलते-चलते खाना व शौच न करे|
८. अन्न खा कर उसकी निंदा ना करे|
९. बदचलण पुरुष व स्त्री से प्रीति न करे|
१०. धर्म पुस्तकों को पढकर व सुन कर अपना अंहकार दूर करे|
११. जीवन की जुमेवारियो को धैर्य से निभाए|
१२. खोटा हठ, खोटा भोजन में अपना बडप्पन न करे|
१३. खाता-पीता मन को प्रभू की याद में लगाये|

जो सिक्ख अपने व्यवहार तथा खाने-पीने को शुद्ध रखता है, उसका घर धन से भरपूर रहता है|

श्री गुरु गोबिंद सिंह जी – साखियाँ - अरदास की महत्ता

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श्री गुरु गोबिंद सिंह जी – साखियाँ





अरदास की महत्ता

एक दिन उजैन शहर के रहने वाले एक सिक्ख बशंबर दास ने गुरु जी के आगे प्रार्थना की कि सच्चे पातशाह! मुझे धन कि बख्शिश करो| मेरे घर बड़ी गरीबी है|

सतिगुरु जी ने फ़रमाया कि भाई! सिक्ख को हर कार्य के प्रारम्भ के समय कड़ाह प्रसाद करके उसे पवित्र चौंकी पर रख कर ऊपर साफ़ कपड़े से ढक कर पास बैठ कर पूरी पवित्रता से जपुजी साहिब का पाठ करना या करवाना चाहिए| इसके पश्चात कार्य कि सफलता के लिए खड़े होकर हाथ जोड़कर नम्रता से अरदास करनी अथवा करवानी चाहिए| फिर जो भी कार्य होगा अवश्य सिद्ध होगा|

घर जाकर भी तुम इस तरह कि ही अरदास करवाना , तेरे घर बहुत धन और सुख सम्पदा कि बख्शिश होगी| हे बशंबर दास! हरेक सिक्ख कि यह अरदास होनी चाहिए|

बशंबर दास ने कहा,गुरु जी! महलों और दुशालों में रहते अथवा अति गरीबी के समय हर हालात में आप जी के चरणों का भरोसा मेरे ह्रदय में ज्यों का त्यों बना रहे| मेरा मन सिक्खी भरोसे से न डोले|

श्री गुरु गोबिंद सिंह जी – साखियाँ - चरण पाहुल तथा खंडे के अमृत की शक्ति

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श्री गुरु गोबिंद सिंह जी – साखियाँ





चरण पाहुल तथा खंडे के अमृत की शक्ति

सिक्खों ने पांच प्रकार की सिक्खी का उल्लेख सुनकर श्री गुरु गोबिंद सिंह जी से प्रार्थना कि महाराज! हमें पाहुल व अमृत का उल्लेख बताओ| गुरु जी ने फरमाया कि भाई! तंत्र-मन्त्र आदि कार्य कि सिद्धि के लिए प्रसिद्ध है,परन्तु वाहिगुरू-मन्त्र जो चारों वर्णों को एक करने वाला है,इससे सभी सिद्ध हो जाते है| लोहे का शस्त्र (खंडा), जल तथा मिष्ठान से तैयार किया हुआ अमृत एक बड़ा तन्र्त्र है, जो स्त्री व पुरुष को बलवान बना देता है|

श्री गुरु नानक देव जी से लेकर अब तक गुरु घर में चरण पाहुल की मर्यादा थी| जिससे सिक्ख की गुरु चरणों में बहुत प्रीति होती है| चरण धोकर उसके ऊपर गुरु मन्त्र पड़कर सिक्ख को पिला देना व भजन करने का उपदेश देना, इस विधि से केवल मन्त्र के बल से सतो गुणी चरणामृत बनता है|

परन्तु जल तथा मिष्ठान्न लोहे के बाटे में डाल कर उसमें लोहे का खंडा घुमा कर अमृत तैयार किया जाता है| यह तंत्र है, जिसमें बिजली की तरह ऐसी शक्ति पैदा होती है, जो अमृत पान करने वाले के अंदर वीर रस व धर्म की दृढ़ता भर देती है, इस अमृत को तैयार करते समय जो जो गुरुबाणी का पाठ एक मन होकर सिंह करते है, वह मन्त्र है| गुरुसिख को जो पाँच ककार धारण कराये जाते है, वह यंत्र है|

इन तीनों तंत्र, मन्त्र व यंत्र के इकठ में एक त्रिगुणी बलवान शक्ति पैदा हो जाती है| इस लिए खंडे का अमृत चरणामृत से कई प्रकार से बढकर शक्ति रखता है|

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय - 12

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ॐ सांई राम


आप सभी को शिर्डी के साईं बाबा ग्रुप की और से साईं-वार की हार्दिक शुभ कामनाएं। हम प्रत्येक साईं-वार के दिन आप के समक्ष बाबा जी की जीवनी पर आधारित श्री साईं सच्चित्र का एक अध्याय प्रस्तुत करने के लिए श्री साईं जी से अनुमति चाहते है । हमें आशा है की हमारा यह कदम घर घर तक श्री साईं सच्चित्र का सन्देश पंहुचा कर हमें सुख और शान्ति का अनुभव करवाएगा। किसी भी प्रकार की त्रुटी के लिए हम सर्वप्रथम श्री साईं चरणों में क्षमा याचना करते है|


श्री साई सच्चरित्र - अध्याय - १२
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काका महाजनी, धुमाल वकील, श्रीमती निमोणकर, मुले शास्त्री, एक डाँक्टर के द्घारा बाबा की लीलाओं का अनुभव ।
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इस अध्याय में बाबा किस प्रकार भक्तों से भेंट करते और कैसा बर्ताव करते थे, इसका वर्णन किया गया हैं ।






सन्तों का कार्य
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हम देख चुके है कि ईश्वरीय अवतार का ध्येय साधुजनों का परित्राण और दुष्टों का संहार करना है । परन्तु संतों का कार्य तो सर्वथा भिन्न ही है । सन्तों के लिए साधु और दुष्ट प्रायःएक समान ही है । यथार्थ में उन्हें दुष्कर्म करने वालों की प्रथम चिन्ता होती है और वे उन्हें उचित पथ पर लगा देते है । वे भवसागर के कष्टों को सोखने के लिए अगस्त्य के सदृश है और अज्ञान तथा अंधकार का नाश करने के लिए सूर्य के समान है । सन्तों के हृदय में भगवान वासुदेव निवास करते है । वे उनसे पृथक नहीं है । श्री साई भी उसी कोटि में है, जो कि भक्तों के कल्याण के निमित्त ही अवतीर्ण हुए थे । वे ज्ञानज्योति स्वरुप थे और उनकी दिव्यप्रभा अपूर्व थी । उन्हें समस्त प्राणियों से समान प्रेम था । वे निष्काम तथा नित्यमुक्त थे । उनकी दृष्टि में शत्रु, मित्र, राजा और भिक्षुक सब एक समान थे । पाठको । अब कृपया उनका पराक्रम श्रवण करें । भक्तों के लिये उन्होंने अपना दिव्य गुणसमूह पूर्णतः प्रयोग किया और सदैव उनकी सहायता के लिये तत्पर रहे । उनकी इच्छा के बिना कोई भक्त उनके पास पहुँच ही न सकता था । यदि उनके शुभ कर्म उदित नहीं हुए है तो उन्हे बाबा की स्मृति भी कभी नहीं आई और न ही उनकी लीलायें उनके कानों तक पहुँच सकी । तब फिर बाबा के दर्शनों का विचार भी उन्हें कैसे आ सकता था । अनेक व्यक्तियों की श्री साईबाबा के दर्शन सी इच्छा होते हुए भी उन्हें बाबा के महासमाधि लेने तक कोई योग प्राप्त न हो सका । अतः ऐसे व्यक्ति जो दर्शनलाभ से वंचित रहे है, यदि वे श्रद्घापूर्वक साईलीलाओं का श्रवण करेंगे तो उनकी साई-दर्शन की इच्छा बहुत कुछ अंशों तक तृप्त हो जायेगी । भाग्यवश यदि किसी को किसी प्रकार बाबा के दर्शन हो भी गये तो वह वहाँ अधिक ठहर न सका । इच्छा होते हुए भी केवल बाबा की आज्ञा तक ही वहाँ रुकना संभव था और आज्ञा होते ही स्थान छोड़ देना आवश्यक हो जाता था । अतः यह सव उनकी शुभ इच्छा पर ही अवलंबित था ।

काका महाजनी
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एक समय काका महाजनी बम्बई से शिरडी पहुँचे । उनका विचार एक सप्ताह ठढहरने और गोकुल अष्टमी उत्सव में सम्मिलित होने का था । दर्शन करने के बाद बाबा ने उनसे पूछा, तुम कब वापस जाओगे । उन्हें बाबा के इस प्रश्न पर आश्चर्य-सा हुआ । उत्तर देना तो आवश्यक ही था, इसलिये उन्होंने कहा, जब बाबा आज्ञा दे । बाबा ने अगले दिन जाने को कहा । बाबा के शब्द कानून थे, जिनका पालन करना नितान्त आवश्यक था । काका महाजनी ने तुरन्त ही प्रस्थान किया । जब वे बम्बई में अपने आफिस में पहुँचे तो उन्होंने अपने सेठ को अति उत्सुकतापूर्वक प्रतीक्षा करते पाया । मुनीम के अचानक ही अस्वस्थ हो जाने के कारण काका की उपस्थिति अनिवार्य हो गई थी । सेठ ने शिरडी को जो पत्र काका के लिये भेजा था, वह बम्बई के पते पर उनको वापस लौटा दिया गया ।

भाऊसाहेब धुमाल
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अब एक विपरीत कथा सुनिये । एक बार भाऊसाहेब धुमाल एक मुकदमे के सम्बन्ध में निफाड़ के न्यायालय को जा रहे थे । मार्ग में वे शिरडी उतरे । उन्होंने बाबा के दर्शन किये और तत्काल ही निफाड़ को प्रस्थान करने लगे, परन्तु बाबा की स्वीकृति प्राप्त न हुई । उन्होने उन्हे शिरडी में एक सप्ताह और रोक लिया । इसी बीच में निफाड़ के न्यायाधीश उदर-पीड़ा से ग्रस्त हो गये । इस कारण उनका मुकदमा किसी अगले दिन के लिये बढ़ाया गया । एक सप्ताह बाद भाऊसाहेब को लौटने की अनुमति मिली । इस मामले की सुनवाई कई महीनों तक और चार न्यायाधीशों के पास हुई । फलस्वरुप धुमाल ने मुकदमे में सफलता प्राप्त की और उनका मुवक्किल मामले में बरी हो गया ।

श्रीमती निमोणकर
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श्री नानासाहेब निमोणकर, जो निमोण के निवासी और अवैतनिक न्यायाधीश थे, शिरडी में अपनी पत्नी के साथ ठहरे हुए थे । निमोणकर तथा उनकी पत्नी बहुत-सा समय बाबा की सेवा और उनकी संगति में व्यतीत किया करते थे । एक बार ऐसा प्रसंग आया कि उनका पुत्र और अन्य संबंधियों से मिलने तथा कुछ दिन वहीं व्यतीत करने का निश्चय किया । परन्तु श्री नानासाहेब ने दूसरे दिन ही उन्हें लौट आने को कहा । वे असमंजस में पड़ गई कि अब क्या करना चाहिए, परन्तु बाबा ने सहायता की । शिरडी से प्रस्थान करने के पूर्व वे बाबा के पास गई । बाबा साठेवाड़ा के समीप नानासाहेब और अन्य लोगों के साथ खड़े हुये थे । उन्होंने जाकर चरणवन्दना की और प्रस्थान करने की अनुमति माँगी । बाबा ने उनसे कह, शीघ्र जाओ, घबड़ाओ नही, शान्त चित्त से बेलापुर में चार दिन सुखपूर्वक रहकर सब सम्बन्धियों से मिलो और तब शिरडी आ जाना । बाबा के शब्द कितने सामयिक थे । श्री निमोणकर की आज्ञा बाबा द्घारा रद्द हो गई ।

नासिक के मुने शास्त्रीः ज्योतिषी
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नासिक के एक मर्मनिष्ठ, अग्नहोत्री ब्रापमण थे, जिनका नाम मुले शास्त्री था । इन्होंने 6 शास्त्रों का अध्ययन किया था और ज्योतिष तथा सामुद्रिक शास्त्र में भी पारंगत थे । वे एक बार नागपुर के प्रसिदृ करोड़पति श्री बापूसाहेब बूटी से भेंट करने के बाद अन्य सज्जनों के साथ बाबा के दर्शन करने मसजिद में गये । बाबा ने फल बेचने वाले से अनेक प्रकार के फल और अन्य पदार्थ खरीदे और मसजिद में उपस्थित लोंगों में उनको वितरित कर दिया । बाबा आम को इतनी चतुराई से चारों ओर से दबा देते थे कि चूसते ही सम्पूर्ण रस मुँह में आ जाता तथा गुठली और छिलका तुरन्त फेंक दिया जा सकता था बाबा ने केले छीलकर भक्तों में बाँट दिये और उनके छिलके अपने लिये रख लिये । हस्तरेएखा विशारद होने के नाते, मुले शास्त्री ने बाबा के हाथ की परीक्षा करने की प्रार्थना की । परन्तु बाबा ने उनकी प्रार्थना पर कोई ध्यान न देकर उन्हें चार केले दिये इसके बाद सब लोग वाड़े को लौट आये । अब मुने शास्त्री ने स्नान किया और पवित्र वस्त्र धारण कर अग्निहोत्र आदि में जुट गये । बाबा भी अपने नियमानुसार लेण्डी को पवाना हो गये । जाते-जाते उन्होंने कहा कि कुछ गेरु लाना, आज भगवा वस्त्र रँगेंगे । बाबा के शब्दों का अभिप्राय किसी की समझ में न आया । कुछ समय के बाद बाबा लौटे । अब मध्याहृ बेला की आरती की तैयारियाँ प्रारम्भ हो गई थी । बापूसाहेब जोग ने मुले से आरती में साथ करने के लिये पूछा । उन्होंने उत्तर दिया कि वे सन्ध्या समय बाबा के दर्शनों को जायेंगे । तब जोग अकेले ही चले गये । बाबा के आसन ग्रहण करते ही भक्त लोगों ने उनकी पूजा की । अब आरती प्रारम्भ हो गई । बाबा ने कहा, उस नये ब्राहमण से कुछ दक्षिणा लाओ । बूटी स्वयं दक्षिणा लेने को गये और उन्होंने बाबा का सन्देश मुले शास्त्री को सुनाया । वे बुरी तरह घबड़ा गये । वे सोचने लगे कि मैं तो एक अग्निहोत्री ब्राहमण हूँ, फिर मुझे दक्षिणा देना क्या उचित है । माना कि बाबा महान् संत है, परन्तु मैं तो उनका शिष्य नहीं हूँ । फिर भी उन्होंने सोचा कि जब बाबा सरीखे महानसंत दक्षिणा माँग रहे है और बूटी सरीखे एक करोड़पति लेने को आये है तो वे अवहेलना कैसे कर सकते है । इसलिये वे अपने कृत्य को अधूरा ही छोड़कर तुरन् बूटी के साथ मसजिद को गये । वे अपने को शुद्घ और पवित्र तथा मसजिद को अपवित्र जानकर, कुछ अन्तर से खड़े हो गये और दूर से ही हाथ जोड़कर उन्होंने बाबा के ऊपर पुष्प फेंके । एकाएक उन्होंने देखा कि बाबा के आसन पर उनके कैलासवासी गुरु घोलप स्वामी विराजमान हैं । अपने गुरु को वहाँ देखकर उन्हें महान् आश्चर्य हुआ । कहीं यह स्वप्न तो नहीं है । नही । नही । यह स्वप्न नहीं हैं । मैं पूर्ण जागृत हूँ । परन्तु जागृत होते हुये भी, मेरे गुरु महाराज यहाँ कैसे आ पहुँचे । कुछ समय तक उनके मुँह से एक भी शब्द न निकला । उन्होंने अपने को चिकोटी ली और पुनः विचार किया । परन्तु वे निर्णय न कर सके कि कैलासवासी गुरु घोलप स्वामी मसजिद में कैसे आ पहुँचे । फिर सब सन्देह दूर करके वे आगे बढ़े और गुरु के चरणों पर गिर हाछ जोड़ कर स्तुति करने लगे । दूसरे भक्त तो बाबा की आरती गा रहे थे, परन्तु मुले शास्त्री अपने गुरु के नाम की ही गर्जना कर रहे थे । फिर सब जातिपाँति का अहंकार तथा पवित्रता और अपवित्रता कीकल्पना त्याग कर वे गुरु के श्रीचरणों पर पुनः गिर पड़े । उन्होंने आँखें मूँद ली, परन्तु खड़े होकर जब उन्होंने आँखें खोलीं तो बाबा को दक्षिणा माँगते हुए देखा । बाबा का आनन्दस्वरुप और उनकी अनिर्वचनीय शक्ति देख मुले शास्त्री आत्मविस्मृत हो गये । उनके हर्ष का पारावार न रहा । उनकी आँखें अश्रुपूरित होते हुए भी प्रसन्नता से नाच रही थी । उन्होंने बाबा को पुनः नमस्कार किया और दक्षिणा दी । मुले शास्त्री कहने लगे कि मेरे सब समशय दूर हो गये । आज मुझे अपने गुरु के दर्शन हुए । बाबा की यतह अदभुत लीला देखकर सब भक्त और मुले शास्त्री द्रवित हो गये । गेरु लाओ, आज भगवा वस्त्र रंगेंगे – बाबा के इन शब्दों का अर्थ अब सब की समझ में आ गया । ऐसी अदभुत लीला श्री साईबाबा की थी ।


डाँक्टर
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एक समय एक मामलतदार अपने एक डाँक्टर मित्र के साथ शिरडी पधारे । डाँक्टर का कहना था कि मेरे इष्ट श्रीराम हैं । मैं किसी यवन को मस्तक न नमाऊँगा । अतः वे शिरडी जाने में असहमत थे । मामलतदार ने समझाया कि तुम्हें नमन करने को कोई बाध्य न करेगा और न ही तुम्हें कोई ऐसा करने को कहेगा । अतः मेरे साथ चलो, आनन्द रहेगा । वे शिरडी पहुँचे और बाबा के दर्शन को गये । परन्तु डाँक्टर को ही सबसे आगे जाते देख और बाब की प्रथम ही चरण वन्दना करते देख सब को बढ़ा विस्मय हुआ । लोगों ले डाँक्टर से अपना निश्चय बदलने और इस भाँति एक यवन को दंडवत् करने का कारण पूछा । डाँक्टर ने बतलाया कि बाबा के स्थान पर उन्हें अपने प्रिय इष्ट देव श्रीराम के दर्शन हुए और इसलिये उन्होंने नमस्कार किया । जब वे ऐसा कह ही रहे थे, तभी उन्हें साईबाबा का रुप पुनः दीखने लगा । वे आश्चर्यचकित होकर बोले – क्या यह स्वप्न हो । ये यवन कैसे हो सकते हैं । अरे । अरे । यह तो पूर्ण योग-अवतार है । दूसरे दिन से उन्होंने उपवास करना प्रारम्भ कर दिया । उन्होंने प्रतिज्ञा की कि जब तक बाबा स्वयं बुलाकर आशीर्वाद नहीं देंगे, तब तक मसजिद में कदापि न जाऊँगा । इस प्रकार तीन दिन व्यतीत हो गये । चौथे दिन उनका एक इष्ट मित्र थानदेश से शरडी आया । वे दोनों मसजिद में बाबा के दर्शन करने गये । नमस्कार होने के बाद बाबा ने डाँक्टर से पूछा, आपको बुलाने का कष्ट किसने किया । आप यहाँ कैसे पधारे । यह जटिल और सूचक प्रश्न सुनकर डाँक्टर द्रवित हो गये और उसी रात्रि को बाबा ने उनपर कृपा की । डाँक्टर को निद्रा में ही परमानन्द का अनुभव हुआ । वे अपने शहर लौट आये तो भी उन्हें 15 दिनों तक वैसा ही अनुभव होता रहा । इस प्रकार उनकी साईभक्ति कई गुनी बढ़ गई ।
उपर्यु्क्त कथाओं की शिक्षा, विशेषतः मुले शास्त्री की, यही है कि हमें अपने गुरु में दृढ़ विश्वास होना चाहिये ।
अगले अध्याय में बाबा की अन्य लीलाओं का वर्णन होगा ।

।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

श्री गुरु गोबिंद सिंह जी – साखियाँ - आज्ञा मानने की व्याख्या

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श्री गुरु गोबिंद सिंह जी – साखियाँ





आज्ञा मानने की व्याख्या

एक दिन श्री गुरु गोबिंद सिंह जी दीवान की ओर आ रहे थे कि रास्ते में एक सिक्ख दीवार पर लेप कर रहा था| दीवार के ऊपर लेप मारते समय उससे गुरु जी के पाजामे के ऊपर चिकड़ के छींटे पड़ गए|

गुरु जी ने सेवकों से कहा इस लिपाई करने वाले को जोर से थप्पड़ मारो| यह बात सुनकर कई सिक्खों ने जोर से थप्पड़ लगा दिए| बहुत थप्पड़ों की मार से वह गरीब सिक्ख बेहोश हो गया| उसकी यह दशा देखकर गुरु जी ने अपने सेवकों को कहा मैंने एक सिक्ख को थप्पड़ मारने की आज्ञा दी थी| परन्तु आप सब ने हो इस गरीब को एक एक थप्पड़ मारकर बेहोश कर दिया है|

सिक्खों ने कहा महाराज! हमने तो आपका हुक्म माना है| गुरु जी ने कहा यदि हमारा हुक्म मानते हो तो इस सिक्ख को कोई अपनी लड़की का रिश्ता दे दो| गुरु जी का यह वचन सुनकर सभ चुप हो गए| सबको चुप देखकर गुरु जी ने कहा, गुरु का हुक्म तब ही यथार्थ है यदि गुरु के सारे हुक्म माने जाए| परन्तु तुमसे सिक्खी दूर है| आसान हुक्म मान लेते हो तथा कठिन समय चुप धारण कर लेते हो|

गुरु जी के यह वाक्य सुनकर कंधार के एक सिक्ख अजायब सिंह ने अपनी लड़की का रिश्ता उस गरीब सिक्ख को दे दिया तथा गुरु की अटूट खुशी प्राप्त की|

श्री गुरु गोबिंद सिंह जी – साखियाँ - शुद्ध गुरुबाणी पढ़ने का महत्व

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श्री गुरु गोबिंद सिंह जी – साखियाँ





शुद्ध गुरुबाणी पढ़ने का महत्व

एक दिन एक सिक्ख श्री गुरु गोबिंद सिंह जी की शरण में "दखणी ओंकार"का पाठ पढ़ रहा था| गुरु जी उसकी मीठी व सुन्दर आवाज़ के साथ बाणी का पाठ बड़े प्रेम से सुन रहे थे| परन्तु जब उसने यह चरण -

करते की मिति करता जाणै के जाणै गुरु सूरा ||

पढ़ी तो आपने एक सेवादार को कहा कि इसके मुँह के ऊपर थपड़ मारो व इसे दूर ले जाओ| जब यह बात हुई तो संगत ने बड़े हैरान होकर प्रार्थना की कि सच्चे पातशाह! इस सिक्ख से आपने इस तरह क्यों किया है? यह तो बड़े प्रेम से गुरुबाणी पढ रहा था|

गुरु जी ने उत्तर दिया यह सिक्ख बाणी का पाठ गल्त कर रहा था| इससे यह व्यवहार इस लिए किया गया है क्योंकि यह पढ़ रहा था -

करते की मिति करता जाणै के जाणै गुरु सूरा ||

जिसका गल्त अर्थ यह बनता है कि कर्ते की महिमा कर्ता ही जनता है, गुरु शूरवीर क्या जान सकता है| सवाल यह है कि यदि करते की मिति को गुरु नहीं जान सकता, तो फिर उस गुरु ने सिक्ख को क्या उपदेश देना है|

सो भाई सिक्खों! गुरु जी की बाणी के शुद्ध पाठ उच्चारण का बहुत बड़ा महत्व है| इसका शुद्ध पाठ किया करो| इस चरण का शुद्ध पाठ यह है कि -
"के जाणै गुरु सूरा" - जिसका अर्थ है - कर्ते की महिमा कर्ता आप ही जानता है या शूरवीर गुरु जानता है|

आप जी के यह वचन सुनकर सारे सिक्खों ने शुद्ध पाठ करने का प्रण किया|

श्री गुरु गोबिंद सिंह जी – साखियाँ - लंगर की परीक्षा करनी

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श्री गुरु गोबिंद सिंह जी – साखियाँ





लंगर की परीक्षा करनी

आनंदपुर में सिक्ख संगत ने अपने अपने डेरों में लंगर लगाए हुए थे| गुरू जी ने जब इनकी शोभा सुनी कि गुरु की नगरी में आने वाला कोई भी रोटी से भूखा नहीं रहता तो एक दिन रात के समय गुरु जी आप एक गरीब सिक्ख का वेष धारण करके इनकी परीक्षा लेने चल पड़े|

एक सिक्ख के डेरे पर जाकर आपने कहा हमें जल्दी भोजन दो, भूख लगी है| उसने कहा कुछ देर बैठ जाओ भोजन तैयार हो रहा है, मिल जाएगा|

उससे हटकर आप जी दूसरे सिक्ख के डेरे गए और वहाँ भी भोजन माँगा| परन्तु उसने कहा दाल भाजी तैयार हो रही है, फिर आकर भोजन छक लेना|

फिर इसके पश्चात गुरु जी तीसरे व चौथे सिक्ख के डेरे भोजन के लिए गए| तो एक ने कहा "आनन्द साहिब"का पाठ तथा अरदास करके लंगर बटेगा| दूसरे ने कहा सारी संगत एकत्रित हो जाए, तो पंक्ति लगाकर लंगर बाँटा जाएगा, आप बैठ जाओ|

इसके पश्चात आप जी भाई नन्द लाल जी के डेरे भोजन के लिए गए| आप ने वहाँ जाकर भी भोजन माँगा| भाई के पास जो कुछ तैयार था गुरु जी के आगे लाकर रख दिया| गुरु जी छक कर बहुत प्रसन्न हुए और अपने महलों में आ गए|

दूसरे दिन जब सिक्खों के लंगर की बातें चली तो गुरु जी ने अपनी रात की सारी वार्ता सुनाकर बताया की हमे केवल भाई नन्द लाल के लंगर से ही भोजन मिला है| बाकी सबने कोई ना कोई बात करके हमें लंगर नहीं छकाया| जो सिक्ख भूखे को शीघ्र ही भोजन देने का यत्न करता है, वही सिक्ख हमें प्यारा है| भूखे को रोटी-पानी देने के लिए कोई समय नहीं विचारना चाहिए| जिस अन्न के दाने से प्राण बच जाते है, उसका पुण्य फल सभी दानों से अधिक है|

सतिगुरु जी की तरफ से अन्न दान महिमा सुनकर सबने प्रण कर लिया कि आगे से किसी को भूखा नहीं भेजा जाएगा|

श्री गुरु गोबिंद सिंह जी – साखियाँ - गधे को शेर की पौशाक पहना कर सिखों को शिक्षा

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श्री गुरु गोबिंद सिंह जी – साखियाँ





गधे को शेर की पौशाक पहना कर सिखों को शिक्षा

एक दिन श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने सिक्खों को शिक्षा देने के लिए शेर की खाल रात के समय एक गधे को पहना दी| उस गधे को बाहर खेतों में छोड़ दिया| हरे खेत खाकर गधा बहुत मस्त हो गया|

एक दिन रात के समय वह अपने ही मालिक कुम्हार के घर आकर खड़ा हो गया| कुछ देर बाद कुम्हार के गधे हींगे तो वह भी बाहर से हींगने लगा| कुम्हार ने जब उसकी यह आवाज़ सुनी तो गधे से ऊपर से शेर की खाल उतार दी|उसे दो चार डंडे भी मारे और दूसरे गधों के साथ बांध दिया| यह बात सारे लोगों में फ़ैल गई कि जिसको शेर समझकर उससे डरते थे, वह कुम्हार का गधा था| जिस पर से खाल उतरकर कुम्हार ने उसपर छट लाद दी है|

यह बात सुनकर गुरु जी ने सिक्खों को बताया कि यह तुम्हें बाणा उदहारण के द्वारा समझाया है कि जिस तरह एक गधा शेर का बाणा धारण करके लोगों के खेत खाता रहा और उसे शेर समझकर उसके पास कोई न गया| परन्तु जब वह अपने भाईयों से मिलकर अपनी भाषा बोला तो उसको कुम्हार ने डंडे मारकर आगे लगा लिया और पीठ पर छट लादकर अन्य गधों के साथ बांध दिया| इसी तरह सिक्खी बाणा है, जो इसको धारण करके इसपर कायम रहेगा, उससे सारे लोग भय खायेंगे| परन्तु जो सिक्खी बाणे पर असूलों को त्याग देगा, उसपर सब कोई अपने हुक्म की छट लादेगा और खरी खोटी बोली के डंडे मारेगा|

यह दृष्टांत सुनकर सारे सिक्खों ने प्रण किया कि वह कभी भी सिक्खी बाणे और असूलों का त्याग नहीं करेंगे|

श्री गुरु गोबिंद सिंह जी – साखियाँ - ब्राहमणों की परीक्षा करनी

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श्री गुरु गोबिंद सिंह जी – साखियाँ





ब्राहमणों की परीक्षा करनी

श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने ब्राहमणों का चुनाव करने के लिए दूर दूर के क्षेत्रों से जैसे कश्मीर, मथुरा, प्रयाग व काशी आदि दक्षिण पूर्व दिशा से सारे पंडितो को आनंदपुर आने के लिए अपने सिख भेजकर बुलवाया|

बहुत से पंडित एकत्रित हो गए| गुरु जी ने उनके लिए एक ओर लंगर में खीर, पूड़े तथा लड्डू आदि तैयार करवाए| दूसरी ओर गुरु जी ने मासाहारी भोजन तैयार करवाया| इसके पश्चात गुरु जी ने सबको कहा कि जो वैष्णव भोजन खीर पूड़े आदि खायेगा उसे पांच रूपये दक्षिणा मिलेगी तथा जो मांस वाला भोजन खायेगा उसे पांच मोहरे दक्षिणा मिलेगी|

गुरु जी के यह वचन सुनकर बहुत से पंडित मांस खाने वाले लंगर में जाकर बैठ गए| बाकी थोड़े से ही वैष्णव भोजन खीर पूड़े वाले लंगर में रह गए| दोनों लंगर में सबने भोजन खा लिया|

गुरु जी ने मासाहारी ब्राहमणों को सम्बोधित करके कहा कि तुमने लोभवश होकर अपना ब्राहमण धर्म भ्रष्ट किया है| मांस खाना क्षत्रियों का धर्म है ब्राहमणों का नहीं| इस करके तुम्हें पांच-पांच मोहरों की जगह पांच-पांच रूपये दक्षिणा दी जाती है|

इसके पश्चात गुरु जी ने वैष्णवों को कहा कि तुमने लोभवश होकर अपना ब्राहमण धर्म नहीं छोड़ा जो कि लोक व परलोक में सहायक होता है| तुम्हें शाबाश है| उनको गुरु जी ने प्रसन्न होकर पांच - पांच मोहरे दक्षिणा दी| आपने बड़े ही सत्कार से उनको विश्राम कराया|
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